शुभप्रभात मित्रों—आपका दिन मंगलमय हो,और कल बधीं
राखियों की डोर अभी ढीली ना हुई हो—ऐसी कामना के साथ:
आज कह रही हूं-कुछ अंदाजे बयां और में—कृपया कुछ
तो कहा करिये??
अब मेरे पास सपनों के अलावा और शायद,कुछ और नहीं
है
साल-दर-साल गुजर गये-पीडाओं को उम्मीदों की डोर
में,सपनों को पिरोते-पिरोते—
कभी कागजी-चिंदियों पर बे-बात की लकीरे खींचती
रही,
कभी,उम्मीदों के तीर पर बैठी-कागजी नाव को खैती
रही,
कभी,सपनों की कश्ती को सूखे पानी पर भिगोती रही,
कभी,किसी मित्र को कहती रही—मित्र,तुम चटक मत
जाना,और,
वहां चटकन के अलावा कुछ शेष और ना था,
कभी चटकती धूप में इंद्रधनुष के चटकने का इंतजार
था,मुझे
हाहाहा—-
कभी ऐसा भी भला हो सकता है—पागल थी मैं,
कभी गुनगुनाती रही—मेहराबों पर लटके बंदनवार सिमट
जाते हैं--
बारात गुजर जाने के बाद—समेटने ही होते हैं--??
कभी पतझड की पाती पर-प्रेम की पाती लिखती रही थी
मैं---
हा-हा—हा—पागल थी मैं.
और,अब जाना सालो-सालों बाद—
यह हाला है-
यह प्याला है—
यह माधुशाला है—
यह जीवन की मधुशाला है-
नशे-नशे में फ़र्क नहीं-
फ़र्क है तो असर नहीं-
-------------------------???
जब होश ना हो अपनों का-
जब गम ना हो बेगानों का-
अपनों से दूर छिटक-
गैरों का हाथ पकड—
जब थामा हो जाम—
सपनों का—
नशा तो बस नशा है.
अभी भी—बिखरे हैं,स्वर्ग—चारों तरफ.
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (20-08-2016) को "आदत में अब चाय समायी" (चर्चा अंक-2440) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बने रहें सपने ।
ReplyDeleteसच ही बिखरे रहते हैं स्वर्ग चारों तरफ ... बस आँखें खुली रखनी होती हैं ... कई कई बार मुंदने लगती हैं आँखें पर फिर जीवन खुद ही झटके से जगा देता है ...
ReplyDeleteसार्थक
ReplyDeleteसार्थक और सच्चा लेख
ReplyDeleteगहन मनोभाव
ReplyDeleteधन्यवाद जी
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