गुलिस्ता में थिरकती हैं,बज़्म सी
१.जाना कहां है,किसी को नहीं पता
आज यहां हैं,बस इतना पता है
जिंदगी इस पल के अलावा,फ़साना है
जो गाया जायेगा, जाने के बाद.
२.सुबह से सांझ तलक--
गुलिस्तां में,बज़्म सी थिरकती है
चाहो तो हथेलियों पर रख लो,दो बूंद चांदनी की
या कि,उंगलियों की पोरों पर, दो बूंद आंसुओं की.
३.मैं नमाजी हूं, या कि मौला-फ़कीर
ऊंची सी कोई दीवार सामने आती है,तो
फ़कत रुक जाने को जी चाहता है
दो हाथ कब-कैसे उठ जाते हैं—ऊपर की ओर
शायद सुना रखा है,तू वहीं कहीं ही है
अब,इस में मेरी कोई खता नहीं
खता तो कहने वाले की है,मैं क्या करूं?
४.सुबह तुम आ जाती हो,मेरे आंगन की मुडेरों पर
कुछ सुना जाती हो—शायद दिल की बात
या कि,पूछने आती हो,मेरे दिल की बात
मुझे तो याद नहीं,क्या मैंने तुम्हें बुलाया था?
कोई बात नहीं—आ तो जाती हो
यह क्या कम है,धन्यवाद,शुभअप्रभात.
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (09.10.2015) को "किसानों की उपेक्षा "(चर्चा अंक-2124) पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
ReplyDeleteहार्दिक शुभकामनाओं के साथ, सादर...!
Thank u.
ReplyDeleteबेहद खुबसूरत शब्दचित्र
ReplyDeleteThank u
DeleteThank u.
ReplyDeleteThamk u.
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