आभी-अभी लौटी हूं--एक छोटी सी यात्रा से.
स्टेशन से घर लौट रही थी--सडके भीगी-भीगी सी लग रहीं थीं--और याद आने लगीं वो झरियां--वो लडियां--वो बौछारें--वो छींटे--जिनकी छांव तले सोते रहते थे--भीगते हुए--और जब बारिशें तेज हो जाती थीं--तो बिस्तरों की दरियां ओढ कर फिर सो जाते थे---शायद आपको भी याद हों ऐसी बारिशें--यादें वर्तमान की माटी की खाद हैं जो वर्तमान के पौधों को पुष्ट करती हैं--बशर्ते वे आपने सहेजी हों धरोहरों की तरह--छांट-छांट कर.
आइये कुछ पंक्तियां उद्धरित करती हूं---बिखरे थे स्वर्ग से.
तब,खिडकी के शीशों से
स्टेशन से घर लौट रही थी--सडके भीगी-भीगी सी लग रहीं थीं--और याद आने लगीं वो झरियां--वो लडियां--वो बौछारें--वो छींटे--जिनकी छांव तले सोते रहते थे--भीगते हुए--और जब बारिशें तेज हो जाती थीं--तो बिस्तरों की दरियां ओढ कर फिर सो जाते थे---शायद आपको भी याद हों ऐसी बारिशें--यादें वर्तमान की माटी की खाद हैं जो वर्तमान के पौधों को पुष्ट करती हैं--बशर्ते वे आपने सहेजी हों धरोहरों की तरह--छांट-छांट कर.
आइये कुछ पंक्तियां उद्धरित करती हूं---बिखरे थे स्वर्ग से.
झांकते
नही थे,टुकडे-आसमान के
इंद्रधनुष के हारों को पहने
सांवरे-सलोने--मेघ
द्वार तलक, आ जाते थे
बन बरसाती
मेह्मान
कभी,हीरों की-
छोटी-छोटी कनियों से
घर के सूखे आंगन पर
यूं जग-मग
से भर जाते थे
जैसे,नवेली की चुनरी पर
टंक गये, लाखों के जाल
कभी-कभी,काले-काले मेघ
चंचल-नटखट-अडियल से बन
पटी छतों पर,टप-टप,गिर
ढोल-नगाडे से , बज जाते
थे
घर-आंगन , गली-मुहल्ले
उथल-पुथल सी, मच जाती थी
कहीं, ओखली-आंगन की
लब-लबा-लब,कर रहे काले
मेघा
कहीं,दरी-बिछोंने,खाट-खटोले
तर-बतोर,कर रहे,काले
मेघा
तो कहीं,सूखी मूंग-मगोडी
भर पानी कढाई में
तल रहे, काले मेघा
कहीं, आंगन में जलते
चूल्हे में
पानी की छीटें दे---
होम कर रहे,काले मेघा
जब-तक,घर-आंगन,कोने-कोने
तर-बतोर न कर जायेंगे
तब-तक--मेघा-काले
बूंद-बुदरिया ले--
लौट, और गांव न जाएंगे
स्वागत है,हर साल तुम्हारा
पूरब से- आए-मेहमान
पर,तनिक सांस तो आने दो
घर-आंगन,बैठक-चौबारों
को
सूख तनिक तो जाने दो
घर-द्वारे,आसन-पीढी तो बिछ जाने
दो
ठंडे चूल्हों को,गरम जरा
हो जाने दो
भीगी पांत,मूंग-मगोरी की
खाट-खटोलो पर, बिछ---
सूख जरा जाने तो दो
चूल्हों से उठती ठंडी लपटों पर
मजी-कढाई, चढ जाने तो दो
बूढी अम्मा के हाथों से
बेसन के चीले तो सिक
जाने दो
तैल भरी,गरम कढाई को
मीठे,पुए-गुलगुलों
से, भर जाने दो
चौबारों में सिमटी खटियों को
फिर से बिछ जाने दो---
अगले बरस,फिर आना काले
मेघ
अपनी मनमानी,जी-भर-कर
कर जाना काले-मेघा--
बिखरे थे-स्वर्ग--चारों तरफ
अति उत्तम
ReplyDeleteगुलगुलों और पुए सी मीठी और अतीत की यादों को समेटती प्रस्तुती
ReplyDeleteआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 16 - 07 - 2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 2038 में दिया जाएगा
ReplyDeleteधन्यवाद
thanks or including--bikhare the swarg--in tha plateform of charchamanc.
Deleteसुंदर पेशकश !!1
ReplyDeleteबहुत बढ़िया
ReplyDeleteबहुत सही
ReplyDeleteमीठी यादों को समेटती बहुत उम्दा कविता
ReplyDeleteवाह
Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ...बड़े लोग :)