क्या मेरा चीखना जरूरी है
क्या आहों को भर----
क्रंदन जरूरी है
क्या सत्य की लकीरों को---
मेटना जरूरी है
या---असत्य की ले ढाल---
महाभारत---जरूरी है
सत्य की लकीरें—
युगांतरी हैं
कृष्ण----जन्में ना
जन्में
यहां---महाभारत
होगा ही होगा
अवतरण राम का---
हो ना हो
भातृ-भार्या के साथ,राम का
वन-गमन हो ना हो
रावण-दहन होगा ही होगा
चाणक्य की शिखा---
बंधे या खुले
घनानंद के काष्ठ-महल
भस्म हो ना हों
बुद्धों को----
दुखों के जंगलों से भटक
आंख मूंद
तिष्ट—होना ही होगा
कोख किसकी है—
और—किसको मिलेगी
यह सब पूर्वनियोजित-व्यूह
युगांतरित है—
कौन किसको छलेगा
कौन किस पर मिटेगा
यह गणित----
बुद्धि से परे है
विष-पान भी होंगे
अमृत भी छनेगा
शिव—जटाओं को बांधे
मृत्यु की भस्म ओढे
मृतंजय हो---
विष-पान कर—
नीलकंठ बनेंगे ही बनेंगे
सिंदूर
की मांगे---भरेंगी
वैधव्य की फूटेंगी
चूडियां भी
जन्म---क्रंदन की गोद से
हो पल्लवित
मातृत्व को सार्थक
करेंगे ही करेंगे
मां की गोद का
साया भी होगा,तो
अनाथों की टोलियां—
भटकेगीं ही भटकेगी
वीथियों में---
अपने-अपनों का कर हनन
विद्वेषों की बोयेंगे फसल
विद्वेषों की विष-धर फसल पर
अपनत्व के फूल----
खिलेंगे ही खिलेंगे
क्योंकि---सत्य की लकीरें
मिटती नहीं हैं---और
मिटाना भी जरूरी नहीं है
युगांतर----अपने व्यूह में समेटे हैं
कारावास में---कृष्ण-अवतरण
दानावल---महाभारत का
राम की मर्यादाएं
वन-गमन—
करेंगीं ही करेंगी
घनानंद के काष्ठ-महल
धू-धू जलेंगे—क्या
चाण्क्य की शिखा
खुलनी जरूरी है?
राजकुमार महलों से निकल
छांव---सत्यों की ढूंढने
वन-गमन---करेंगे ही करेंगे
और----
शरद-पूर्णिमा की खीर, चख
बुद्ध से बौद्धव्य---
झरेंगे ही झरेंगे
क्योंकि----सत्य
कभी मिटते नहीं
हैं
मिटाना भी जरूरी नहीं है.
जीवन-एक पहेली है---कभी-कभी आभास सा होता है---जैसे जीवन कम्पूटराइज है
जरा परदे के पीछे खडे होकर झांकिये---बिसात बिछी हो,कोई प्यादे खिसका रहा हो--
शह भी उसकी---मात भी उसकी.
’वह’ ऐसे भी दिख जाता है.
माया तो उसकी ही है ... जो होना है वो भी उसी ने करना है ... जो न हो वो भी उसके ही जिम्मे है ... समय के हाथों खिलोने ... फिर भी लगे जैसे हम ही हैं बस ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-06-2014) को ""स्नेह के ये सारे शब्द" (चर्चा मंच 1631) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस' प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (02-06-2014) को ""स्नेह के ये सारे शब्द" (चर्चा मंच 1631) पर भी होगी!
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक
बहुत ही खूबसूरत लिखा है...
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