Saturday, 21 December 2013

ओशो---मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.


ओशो द्वारा,विभिन्न मित्रों-प्रेमियों को लिखे गये पत्रों का संकलन—’प्रेम की झील में अनुग्रह के फूल’ में से उद्धरित एक पत्र----

प्यारी योग तरु

         प्रेम.

तुम्हारे आंसुओं को मैं भली-भांति समझता हूं.

वे अतीत को पोंछ जाएंगे और भविष्य को जन्म देंगे.

वे सूखे पत्तों को बहा ले जांवेगे और नये पत्तों को शक्ति देंगे.

तुम्हारी साधना और तैयारी का यह अनिवार्य चरण है.

बहुत कुछ होने को है---उसके पूर्व अतीत से निर्भार होना है.

और,भविष्य के लिये तैयारी भी.

भविष्य अनजान-अपरिचित मार्गों पर ले जायेगा.

अनजान-अपरिचित मित्रों में.

अनजान-अपरिचित कार्यों में.

और,तुम्हारी तैयारी पूरी होते ही मेरा आदेश मिल जायेगा.

एक ऐसा माध्यम,जो दिल से दिल को जोडता है,ओशो—इस माध्यम की गरिमा व सार्थकता को बखूबी पहचानते थे और इस विधा पर उनके प्रयोग सटीक साबित हुए.

इस पत्र का एक-एक शब्द,प्रेम को पल्ल्वित करता हुआ प्रतीत होता है,प्रेम की बेल को अमर-बेल में विकिसित करता हुआ प्रतीत होता है.

साधारणतयाः,प्यारी----प्रेम--- शब्दों के सम्बोधन से पहले हम थोडा झिझकेगें अवश्य क्योंकि,हमारी क्रिया-प्रतिक्रियाएं उधार की हैं,जो हमें दी गयी हैं,बम्दिशों के साथ---इस्तेमाल करिये,हमारे तौर-तरीके के साथ.

ओशो—जीवन के प्रत्येक आयाम में इतनी सहजता से उतरते हैं कि छपाक की आवाज भी नहीं होती और वे,बिना हाथ-पैर मारे पार भी हो गये.

जो यह कह सके,’तुम्हारे आंसुओं को मैं भली-भाति समझता हूं’—बगैर देखे वे आंसुओं में सिक्त हो,हमारे अंतर्हृदय तक इतनी आत्मीयता से पहुंच जाते हैं कि वे वहां मौजूद ही थे.

वरना, हमें अक्सर अपने आंसुओं को छुपाना होता है,किसी कोने में खडे होकर,आंसुओं को हथेलियों से पोंछना होता है,क्योंकि वहां कोई भी नहीं है—कहे,ये क्यों?

’प्यारी योग तरु,प्रेम---शब्दों की लडी अंतर्तम प्रेम के मोतियों को पिरोये हुए हैं.

’उसके पूर्व अतीत से निर्भार होना है---और,भविष्य के लिये तैयारी भी---’ ओशो ने उनदेखे आंसुओं को छू भी लिया----उन अनकही पीडाओं को कुरेद कर ठंडा भी कर दिया,जो अतीत के चटकने से जन्मी हैं,और---एक मित्र के नायीं हाथ से इशारा भी दे दिया----चले आओ,मेरे साथ---अपरिचित राहों पर,परंतु मैं (ओशो) साथ हूं,तुम्हारे.सो भय कैसा,झिझक कैसी?

ओशो---ऐसे ही झंझावतों में,मैं भी घिर आई थी,जब मेरे पति का लंबी बीमारी के बाद देहांत हो गया.

मेरे बच्चे अपनी-अपनी जिंदगियों में,मुझसे हजारों मील दूर,मशगूल थे या यूं भी कह सकते हैं जीवन की आपाधापी में घिरे होंगे.

मुझे महसूस हो रहा था कि मेरे जीवन की पगडण्डी अब दूसरी ओर मुड रही है---जहां राह पर मुझे मेरे बच्चों की परछाइयां भी नसीब ना होंगी.

’और,भविष्य,अनजान-अपरिचित मार्गों पर ले जायेगा----’.

और,जब मैं यह पत्र पढ रही थी,मुझे अहसास हुआ कि---ओशो ने यह पत्र मुझे ही लिखा हो.

और,एक दिन—मैं कुछ पत्रिकाएं खरीदने बुक स्टाल पर गयी.जो पत्रिका मुझे लेनी थी उसके साथ ही दो और पत्रिकाएं भी रखीं थी—यस ओशो, ओशो वर्ल्ड.

अनायास ही उन पर मेरी नजर पडी और जैसे कि,ओशो का संदेश मेरे लिये हो,और मैं ने वे दोनों पत्रिकाएं भी खरीद लीं.

एक-दो दिन में मैंने दोनों पत्रिकाएं पढ लीं एक इच्छा के साथ---आगरा(मेरा शहर) के आस-पास ओशो का शिविर का आयोजन हो तो मैं अवश्य ही भाग लूंगी.इससे पहले ओशो से मेरा परिचय मात्र—आचार्य रजनीश के रूप में ही था वह भी कुछ तोडी-मरोडी खबरों के माध्यम से.

ओशो—दोनों हाथ फैलाए मुझे निमंत्रण दे रहे थे.दूसरे माह की पत्रिका में ,ओशो शिविर का आयोजन आगरा शहर में हो रहा है,यह सूचना जारी हो रही थी.

मैं हतप्रत सी,पढ रही थी.मैंने तो केवल सोचा था,और वह हो रहा है.

दी गयी जानकारी के आधार पर मैंने उस स्थान का पता किया जहां शिविर का आयोजन होना था,सो इसके लिये मैंने औटो रिक्शा से जाना उचित समझा,क्योंकि एक अनजान जगह पर पहुंचने के लिये यह उपयुक्त तरीका था.

और ओशो---फिर इशारा दे रहे थे,वह स्थान मेरे निवास से १००-१५० मीटर की दूरी पर था.

मैं, फिर हतप्रत सी,समझने की कोशिश कर रही थी---कौन है,मुझे लिये चल रहा है—अनजान-अप्रचित मार्गों पर,अनजान-अप्रचित मित्रों में,अनजान-अप्रचित कार्यों में----निःसंदेह—ओशो.

निःसंदेह ओशो,जिन्होंने मेरे आंसुओं को छुया ही होगा,और उनमें सिक्त होकर मेरे हृदयतम तक पहुंच गये.

एक ’इशारा’ एक ’सहारा’ काफी था मेरे ओशो का,मुझे ’अनजान-अपरिचित मार्गों पर ले जाने के लिये----

और मैं चल पडी हूं सहजता से,नदी की धारा सी सागर में विलीन होने के लिये.

हो सकता है----कगजों के जरिये, ओशो के पत्र मुझ तक ना पहुंचे हों---परंतु,उनकी ऊर्जा को मैंने महसूस किया है,अपने आस-पास,क्योंकि कुछ तो उन्होंने कहा है मेरे लिये,तभी तो मैं कह पाई---

ओशो---मैं तुम्हें प्यार करने लगी हूं.

 

 

5 comments:

  1. नदी अपना रास्ता खुद ढूंढ लेती है...सागर तक पहुंचने के लिए...

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज रविवार (22-12-13) को वो तुम ही थे....रविवारीय चर्चा मंच....चर्चा अंक:1469 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  3. यही है ईश्वर के होने की प्रमाणिकता किसी भी रूप में पहुँचे किसी भी माध्यम से मगर वो देखता भी है सुनता भी है और मार्ग प्रशस्त भी करता है फिर चाहे माध्यम कोई सा भी क्यों ना हो ।

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  4. ईश्वर के प्रमाण बंद आँखों से महसूस करने होते हैं ... ओशो का लिखा भी एक ऐसी ही ऊर्जा है जो कही तो पत्र के माध्यम से है पर महसूस धब्दों के माध्यम से हो ती है ...

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