तुम-----
अपने-अहम के
बबूलों को
सींचते रहे---
मेरे घर के
गुलदानों को
तोडकर—
शायद---
तुम्हें मालूम नहीं
टूटे हुए गुलदान
दुबारा जुडते नहीं
तुम---
उम्मीद करते रहे
हठों की जमीन पर
महक जाएंगे,वो फूल
जो---
टूटे गुलदानों में (टूटने से पहले)
सजाए थे मैंने
गुलदानी उम्मीदों से
हर बरस---
पतझड में,मैंने
राहें देखीं थीं
एक और बसंत की
पर अब----
एक अहसास
धीरे-धीरे जगाता है,मुझे
बहानों की नींद से
जो अब तलक---
सोई हुई हूं
मैं,गहरी नींद में
क्योंकि----
कभी-कभी
टूटे गुलदान
खुद ही,कह देते हैं
अब---
इन्हें जोडना बेमानी है
क्योंकि----
उन जोडों में,कुछ रिसाव
भरे ही नहीं जा सकते
और----
रिसते रहते हैं
धीरे-धीरे,ता-उम्र---
सही है जोडों में गांठ रह ही जाती है, बहुत गहन अभिव्यक्ति, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
जोड़ कभी पूरी तरह भरते नहीं.....काश के कभी तोड़ा न होता...
ReplyDeleteसुन्दर भाव..
अनु
बहुत ही सुन्दर नये अंदाज में प्रस्तुति.
ReplyDeleteमधुर मिलन की चाह मन ,नैनन दर्शन आस ।
कौन जतन कैसे घटे , अन्तर्घट की प्यास ।।
रोचक ढंग से प्रस्तुत गहरी अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत अच्छी भावाभिव्यक्ति, बधाई.
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर प्रस्तुति....!!!
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