Wednesday, 19 December 2012

छलका-छलका हो ज़ाम साकी

माथे पर आई,वक्त की लकीरों को
पढ---जीना है बाकी----------------
साल-दर-साल,बढती झुर्रियों में
जिंदगी की इबारत को,पढना है,बाकी
अब तक,जीते रहे’बहाने’ जीने के लिये
अब,मकसद के रात-दिन,जीना है बाकी
अक्सर,कहते हैं लोग------------
हाथों के ज़ाम हो गये हैं खाली
रख,क्यों नहीं देते ज़मीं पर इन्हें
रीती मधु की बूंदों को झटक
रीत क्यों नहीं देते,हाथों से अपने
अब तक, जो भी पी------
पी वो औरों की मधुशाला की मधु
मेरी मधुशाला तो,यूं ही रही-----
मेरे हाथों के ज़ामों में भरी---
अब तक,उसको होठों से छुआ ही नहीं
सुरूर,उसका पलकों तक,छाया ही नहीं
हर नुक्कड पर,मधुशालाओं के खुले हैं द्वार
बस,दरवाज़ों को,उढकाना है बाकी------
जब तक, सांसों का ज़ाम है, छलकता
तब तक, भर-भर,पीना है,बाकी—
                   छलका-छलका हो,साकी का ज़ाम

4 comments:

  1. सुन्दर रचना..मधुशाला को बहना..

    ReplyDelete
  2. जीने को प्रेरित करता ... खुशियों के जाम छलकाता ...
    जीवन की मधुशाला खुली रहनी चाहिए ...

    ReplyDelete
  3. This comment has been removed by the author.

    ReplyDelete