Monday 12 March 2012

कृपया,दरवाजा ,उढकाए रखिये---


जीवन,बंद दरवाजों से झांकती,दो आंखें नही हो सकता .
अपनी सुरक्षा, अपने आस्तित्व को बचाये रखने की जद्दोजहद में,हम एक घर में दरवाजों की तहों में-
घुटी सांसो में,उम्र गुजारते रहते हैं.
यह कैसी त्रासदी है!!!

एक बिचारी जान और बीस जोडी दरवाजे!!!
कहां से देखें,इंद्रधनुष के रंग, कहां से आये बयार,महकते फूलों को छू कर, भोर का सूरज , तरस-तरस,जाय—कि,कोई तो हो, नहा ले,नारंगी रंग में जिसे तैयार करने में,उसे १२ घंटे लगे.


भोर सुबह से,जगे पक्षियों के कलरव भी दरवाजों से टकराकर लौट-लौट जाते हैं,परंतु वे हैं कि,अगली सुबह की आस लिये, अपनी-अपनी,दिनचर्या में व्यस्त हो जाते हैं.
उनकी आशाएं  अडिग है,परंतु,हम सर्व-समर्थ, आशा-विहीन हो गये है—मौत तो जब आये तब आए, हम खुद से भी खौफ़ खाए हुए हैं.
डर को बाहर जाने दीजिए,कृपया,दरवाजा, उढकाए रखिए.
                                                  मन के-मन के


5 comments:

  1. जीवन,बंद दरवाजों से झांकती,दो आंखें नही हो सकती....
    वाह! सुन्दर बात... सार्थक लेखन/चिंतन.
    सादर.

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  2. प्रभावशाली बिम्ब, स्पष्ट संदेश..

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  3. वाह!!!
    बेहतरीन जीवन दर्शन...

    सादर.

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  4. प्रेरक चिंतन..

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