एक शाश्वत प्रश्न,जो सदैव निरुत्तरित रहा,हालांकि इसे हम बहुआयामि परिधि में बांध कर,इसे,किसी ना किसी, उत्तर की सीमा में रख कर भी देख सकते हैं.
परंतु,यह सब करना,भुस में लट्ठ मारने के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है. चले चार कोस,पहुंचे कहीं नहीं.
जीवन क्या है?
पुनः,यह प्रश्न अपने- आप से,पूछ रही हूं.
अतः,क्या है,का उत्तर पाने के लिये,हमें जीवन को पीछे मुड कर देखना होगा.
जीवन—स्मृतियां हैं—जहां हमारी पहली से पहली,स्मृति,मां की गोद की गर्माहट हो सकती है.
हो सकता है—कुछ भाग्यशाली हों जिन्हें,मां के आंचल से उतरते हुए अमृत का स्वाद याद हो.
जीवन—मां की उंगली थामे-पहला कदम,धरती पर रखना भी हो सकता है.
जीवन—मां के हाथों से,रोटी के छोटे-छोटे,कोरों के रूप में—अन्नपूर्णा का दर्शन भी हो सकता है.
जीवन—धूल-भरी गलियों को टीक-दुपहरी भर नापना भी हो सकता है.
जीवन—पतंग के कनकौवे उडाना भी हो सकता है,दूसरों की पतंग को काटना भी हो सकता है,तो अपनी कटी पतंग की फटी चिंदियों को समेटना भी हो सकता है.
जीवन—घर का सुकून भी हो सकता है तो कलह भी.
मां-पिता का आशीर्वाद भी है,उनकी तपस्या का फल भी,तो कभी-कभी,छिनी गोद भी.
कभी-कभी,जीवन,सडकों पर हांफता हुआ एक अहसास भी है,तो कभी-कभी,खाली पेट,चैन की नींद भी है.
जीवन—दे कर भूल जाना भी है तो कभी-कभी,अर्थ-हीन,छीना-छपटी भी है.
जीवन—ठहरा हुआ,संतोष,तो बिखरा हुआ,आस्तित्व भी है.
जीवन—अनजानी राहों पर,अनजानों का हाथ थामना भी है,तो अपनों से छिटकना भी है.
जीवन—काली रात को चीरता,भोर का,नारंगी उजाला भी है,तो
सागर के तटों पर,सर पटकता सुनामी भी है.
जीवन—क्षितिज पर फैला,सतरंगी,इंद्रधनुष भी है तो,
शांति को तोडता,बवंडर भी है.
जीवन—हर-पल पढने वाला पाठ है—पन्ने दर पन्ने,पढते रहिये—गुनते रहिये,बढते रहिये—
अंततः,जीवन की पोथी के भार को हलका करते रहिये—उतार कर,नीचे रख दीजिये—
सब कुछ में—कुछ ना होने के रहस्य को,खोलिये.
जाते समय,आंखे बंद हों,होठों पर तृप्ति की स्मिति हो—हाथों की मुट्ठियां ढीली हों—
और बुद्ध हो जाइये—
बस.
जीवन के सारे ही आयाम सहेज लिए हैं ... बहुत गहन प्रस्तुति
ReplyDeleteजीवन की काव्यमयी परिभाषा..
ReplyDeleteजीवन को करीब से देखने के बाद बुद्ध जैसी प्रवृति सहज ही आ गयी है आपके विचारों में ... पर इस शाश्वत प्रश्न का जवाब बुद्ध होने तक तो नहीं मिल पाता ...
ReplyDeleteगहन भावों का उत्कृष्ट संयोजन ।
ReplyDeleteबहुत सुदर
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