क्या,यह खूब ना होता,
कागज़ी-चिंदियों पर—
बे-फ़ज़ूल,रेखाएं,खींचते रहे
टेढे-मेढे, रेंगते चींटो की तरह
गर,कुछ कश्तियां ही बना
उन,कागज़ी-चिंदियों की—
हांफते सपनों को,मुट्ठी में कर बंद
कागज़ी-कश्ती में रख----
तेज़ रफ़्तार गाडी को----
कुछ धीमी कर---
सडक पर,अनायास ही—
उभर आए, शहरी नालों में
छोड देते----उस धार में
कैद हुए सपनों को, कर देते आज़ाद
क्या,यह खूब ना होता--
गहरी रचना..
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