Tuesday, 17 January 2012

प्रेम---ओशो की नज़र में


ओशो की बहुचर्चित व बहुआलोचित रचना,जो कि उनके विचारों,सिद्धांतों व मान्यताओं की भागीरथी की गंगोत्री है-पढने का अवसर मिला.
एक तुच्छ कोशिश,कि ओशो जैसे प्रबुद्ध व मौलिक विचारक के विचारों को अपनी सीमित योग्यता के आधार पर,समेट सकूं और उन भ्रांतियों के घेरे से बाहर ला सकूं जो संभवत जाने-अनजाने फैल गईं हैं.
एक प्रबुद्ध सत्य, जो अपनी सत्यता को,किसी भी युग में,सत्य की कसौटी पर,खरा ना उतर सका,वह एकमात्र सत्य,जो इस प्रकृति की धुरी है,इस ब्रंह्माम्ड का आधार है,जिस पर,माया का खेल घूम रहा है,एक-एक कण, इसी सत्य की परिकल्पना है,फिर भी पूर्वाग्रहों,स्वं-प्रितिपादित सिद्धांतों व संस्कारों की झीनी चादर से ढका है—उसी सत्य को ओशो ने अपनी नंगी मौलिकता से उघाडा,हर एक,थोपी हुई आस्था को उन्होंने नकारा और जीवन को मौलिकता देने की कोशिश की.
परंतु,इतनी ईमानदारी से सत्यापित किये गये इस प्रयत्न को,हम आज भी देखना नहीं चाहते,पढना नहीं चाहते,ना ही सुनना. अतः स्वीकार करने का तो प्रश्न ही नहीं उठता है.
यह कैसी विडंबना है—इसी प्रेम की माटी में,जीवन-रूपी बीज फूट रहा है और बीज उसे स्वीकारता भी नहीं है.
जिस प्रकार,मृदा,मानव परिकल्पित अशुद्धुता का योग है,जो सडे-गले-तिरस्कृत तत्वों से ही बनी है,फिर भी प्रकृति की ही ऊर्जा उसे पुनः जीवन में रूपांतरित कर देती है.
प्रकृति का यही नियम,प्रेम-रूपी बीज में प्रगट हो रहा है,जो काम-रूपी मृदा में दब कर फूट रहा है,अपनी दो पंखुडियों के साथ—पुनः-पुनः,यही चक्र चलता है और प्रकृति के कण-कण में,जीवन का खेल,दृष्टिगोचर हो रहा है. यही,माया है और यही सत्य है.
प्रेम और ओशो----
  ’प्रेम’ मनुष्य जीवन का श्रेश्ठ बिंदु है,परपज़ है,अवसर है,मंजिल है.
’प्रेम’,जो जीवन का श्रेष्ठ है,सुंदर है,और सत्य है---उसे जिया जा सकता है,जाना जा सकता है,हुआ जा सकता है,लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.
हम ’प्रेम’ चाहते हैं लेकिन कोशिश उसके विपरीत करते हैं,क्यों?
सम्भवत,इस कोशिश पर हमारे अपने द्वारा थोपे गये पूर्वाग्रह,स्वंगठित आस्थाएं हावी होती जा रहीं हैं.
प्रेम, को हमने मृगमरीचिका बना दिया है,प्रेम को हमने,मृग-कस्तूरी,बना दिया है,जो हमारे पास है—उसके लिये हम,जीवन-रूपी जंगल में भटकते रहते हैं.
ओशो—प्रेम खोजने की वस्तु नहीं है-जैसे, सांस क्या खोजी जा सकती है,वह है,शरीर है,शरीर है वह है.
,प्रेम, शिला का एक टुकडा है,जिसमें मूर्ति निहित है,केवल उसे उघाडना है.
’प्रेम’ इंद्रधनुष है,जो हमारी विकृतियों से आच्छादित है, बस स्वाभाविकता की एक बयार चल जाय,
यह अपने सातों रंगो की छटा के साथ है,स्पर्श में,आंखों की पुतलियों में,मधुर गीतों में,मिश्री की मिठास में,आत्मा के गर्भ-गृह में,अंततः,अंतिम मुक्ति में.
यही,मानव-कल्पित मोक्ष है,यही युग-युगांतर मानवीय पीडा है,जिसमें मानव छटपटा रहा है,परंतु,इस पीडा से मुक्त नहीं हो पा रहा है.
ओशो—
जिस प्रकार,स्वास्थय हमारा स्वभाव है,उसी प्रकार प्रेम भी हमारा स्वभाव है.
सत्य,किसी भी परिभाषा का कायल नहीं,सत्य शब्दों के आडंबरों से मुक्त है.
ठीक इसी प्रकार,प्रेम भी,जीवीय स्वभाव है,जो हर अस्वाभाविक चेष्टा से परे है.
जैसे,ईश्वर की परिकल्पना भी,केवल मानव-गठित है,चूंकि,वह है,कालातीत है,समयातीत है,अनाच्छादित है,प्रत्येक भ्रमित आवरण से,वह झांक रहा है,उसे ढके जाओ,उसे गढे जाओ,उसे थोपे जाओ—पर वह है,बस,है.
ठीक इसी प्रकार,’प्रे्म’ है---
जैसे,मिश्री में मिठास,फूल में सुगंध,इंद्रधनुष में सात रंग,सप्त-स्वरों में गीत.
प्रेम के सूत्र---ओशो की नज़र में
प्रेम,एक प्रतीक्षा है.
प्रेम,अवेटनिंग है.
प्रेम,एक धन्यता है.
प्रेम,निष्प्रयोजन है.
प्रेम,एक परपज है.
प्रेम,कोई शास्त्र नहीं.
प्रेम,कोई सिद्धांत नहीं.
प्रेम,कोई परिभाषा नहीं.

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