मुझे, अब, बुद्ध हो जाने दो----
बिंधे हैं कांटे,पैरों के तलुओं में
किन-किन जन्मों के पापों के
पापों की बन सहचरी,संग मेरे
अधखुली पलकों से,सुप्त हुई,लेटी सी
जाने कब,जग जाए------
मुझे, दबे पांव,निकल जाने दो
मुझे,अब, बुद्ध हो जाने दो---
आंखों में,अश्रु अधिक हैं---
होंठो पर,मुस्कान खेलती, आंख-मिचोली सी
जाने कब,अश्रु बन,सागर खारा सा—
ले जांय मुझे बहा, अनंत-अनंतों तक
जाने कब,भिचें होंठ------
जांये चटक, बन दग्ध-शिलाओं से
मुझे,अब, बुद्ध हो जाने दो----
मौलश्री की छांव तले-----
कितनी रातें, सोई जागी सी
फूलों पर लेटी सी,पर----
सुगंध कहां! ना जानी थी
अब जागी रातों में-----
बिखरे फूलों को बीनूंगी---
भोर हुई, माला सी, गूथूंगी
कांटों में भी, चुन लूंगी---
मौलश्री के फूल-
मुझे,अब,बुद्ध हो जाने दो---
बिंधे हैं कांटे,पैरों के तलुओं में
ReplyDeleteकिन-किन जन्मों के पापों के
पापों की बन सहचरी,संग मेरे
अधखुली पलकों से,सुप्त हुई,लेटी सी
जाने कब,जग जाए------
मुझे, दबे पांव,निकल जाने दो
....गहन चिंतन ....बहुत सारगर्भित और भावपूर्ण अभिव्यक्ति..
बहुत सुन्दर
उम्दा प्रस्तुति।
ReplyDeleteबहुत सार्थक प्रस्तुति, आभार|
ReplyDeleteशुद्ध बुद्ध भाव जगाती रचना।
ReplyDeleteज्ञान का आना ही बुद्ध हो जाना है...
ReplyDeleteगहन चिन्तक से उपजी रचना ... बैरागी का भाव ही बुद्ध होना है ...
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