आज, मेरे शहर की हर सडक पर
मुझको बुलाते हैं, खन्डहर
जैसे कहना चाहते हों,
कोई तो उठा जाए मेरी गिरती हुई दीवार को
अफ़सोस, घरोंदे के घर हुए
घरों से रिहायशे
रिहायशों के भी खत्म हो गए
सुनसान फ़लसफ़े
वक्त ने किया क्या हसीं सितम
हम रहे न हम, तुम भी कुछ न रह गये कल को सजाने की चाहतो ने चटका दिये --- बे- खबर आज के शीशमहल जिनकी दरारों में
खुद के भी चेहरे भी बद शक्ल हो गये छोटी- छोटी हसरतें क्यों, बन नहीं पाती बीते हुये कल की धरोहरे क्यों कोइ बनाता नही उन्हे एक और ताजमहल
बेशक
इन ताजो को गढने के लिये कटे नही हजारों हाथ थे पर हजारों ख्यावों के बेआवाज कत्ल तो हो गये देखो
उस रिसते हुये सुर्ख लहू की धार को जो, ढके हुए घावों से फूटती है, हर समय वक्त ने किया क्या हसी सितम हम रहे न हम , तुम - तुम न रह गये मरते दम तक
उसके ताज का दीदार
पर कितने शाहेजहां , शाहेजहां के साथ था- ए- जिगर दफ्न हो गये बगेर दीदार के वक्त की आधी कुछ ऎसी चली हस्तियों के पेड, जड से ही ढह गये वक्त ने किया क्या हसी सितम हम रहे न हम , तुम, भी कुछ न रह गये कौन कहता है
पैंदा हुआ, कि था इस जहां में एक ही शाहेजहां जिसका ख्वावे
एक ही सिकन्दर - हकीकत था, ताजमहल , यहां पैंदा हुआ था
रोदें थे जिसने वक्त के कदमो के निशा
बस, चाहिये उस अहसास की एक ऎसी नजर जो ढूढ ले
राहों पर बिखरे हुये जाने वाले के कदमो के निशां
कुछ ऎसी चली
हस्तियों के पेड
जड से ही ढह गयेवक्त की आधी वक्त ने किया, क्या हसी सितम हम रहे न हम
उमा
, तुम भी, कुछ न रह गये ,,
मुझको बुलाते हैं, खन्डहर
जैसे कहना चाहते हों,
कोई तो उठा जाए मेरी गिरती हुई दीवार को
अफ़सोस, घरोंदे के घर हुए
घरों से रिहायशे
रिहायशों के भी खत्म हो गए
सुनसान फ़लसफ़े
वक्त ने किया क्या हसीं सितम
हम रहे न हम, तुम भी कुछ न रह गये कल को सजाने की चाहतो ने चटका दिये --- बे- खबर आज के शीशमहल जिनकी दरारों में
खुद के भी चेहरे भी बद शक्ल हो गये छोटी- छोटी हसरतें क्यों, बन नहीं पाती बीते हुये कल की धरोहरे क्यों कोइ बनाता नही उन्हे एक और ताजमहल
बेशक
इन ताजो को गढने के लिये कटे नही हजारों हाथ थे पर हजारों ख्यावों के बेआवाज कत्ल तो हो गये देखो
उस रिसते हुये सुर्ख लहू की धार को जो, ढके हुए घावों से फूटती है, हर समय वक्त ने किया क्या हसी सितम हम रहे न हम , तुम - तुम न रह गये मरते दम तक
उसके ताज का दीदार
पर कितने शाहेजहां , शाहेजहां के साथ था- ए- जिगर दफ्न हो गये बगेर दीदार के वक्त की आधी कुछ ऎसी चली हस्तियों के पेड, जड से ही ढह गये वक्त ने किया क्या हसी सितम हम रहे न हम , तुम, भी कुछ न रह गये कौन कहता है
पैंदा हुआ, कि था इस जहां में एक ही शाहेजहां जिसका ख्वावे
एक ही सिकन्दर - हकीकत था, ताजमहल , यहां पैंदा हुआ था
रोदें थे जिसने वक्त के कदमो के निशा
बस, चाहिये उस अहसास की एक ऎसी नजर जो ढूढ ले
राहों पर बिखरे हुये जाने वाले के कदमो के निशां
कुछ ऎसी चली
हस्तियों के पेड
जड से ही ढह गयेवक्त की आधी वक्त ने किया, क्या हसी सितम हम रहे न हम
उमा
, तुम भी, कुछ न रह गये ,,
आपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
ReplyDeleteप्रस्तुति भी कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (13-6-2011) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा और हमारा हौसला बढाइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com/
सुन्दर!!!
ReplyDeleteकल चमन था...आज इक सहरा हुआ...
ReplyDeleteप्रभावशाली कथ्य एवं काव्य .शराहनीय है
ReplyDeletebahut prabhawpurn
ReplyDeletebahut khub...man ke bhavo se paripurn abhivyakti
ReplyDeleteबहुत सुन्दर भावपूर्ण रचना..
ReplyDeletebahut sunder....
ReplyDeleteअच्छी रचना, पढ़ने में होने वाली असुविधा के कारण जिसका प्रभाव कम हो रहा है.
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