बचुवा ---पहले अपना घर बुहालीजो
हम सामाजिक प्राणी होने के नाते खुद से ज्यादा औरों की फ़िक्र अधिक करने लगते हैं और इस आपाधापी में खुद के घर की सफाई करना भूल जाते हैं .
सांत कहते आये हैं--- बचुआ, अपनी झुपदिया बुहार लेवो,पहले.
हम संतों की वाणी चार कान लगा कर सुनते जरूर हैं लेकिन ,उन कानो के आर, पार छेद इतने साफ़ सुथरे होते हैं इधर गए संत वचन उधर से निकल गए.
मित्रो, इतनी बड़ी भूमिका मैंने इसलिए बांधी है एक सरल,सटीक,बात को कहने के लिए कि, हम सभी, कभी ना कभी ऐसे सामाजिक सफाई रिश्ते,नातेदारों की औरों के घरों को बुहारने की आदत के भुक्तभोगी रहे होंगे .
मैं भी भुगतती रहती हूँ और कुछ ज्यादा ही.
इसा कृपा के कई कारण हो सकते हैं--पहला सबसे बड़ा कारण है कि,
मैं , कुछ अपने तौर तरीके वाली हूँ,दूसरा कारण हो सकता कि, अकेले स्वतंत्र जीवन को जी रही हूँ.
इन सामाजिक कर्ताओं को मेरे घर के आगे कचरा चाहे जब दिखने लगता है और मेरी गैरहाजिरी में भी मेरे घर की देहरी तो झाड जाते हैं,चूंकि घर बंद मिलता है तो घर के अन्दर झाडू नहीं लगा पाते हैं यह सूचित करते हुए----आपका घर कई रोज से बंद है,आप कहाँ घूम रहे हैं .
मैं उन्हें धन्यवाद के साथ एक संत नसीहत देना चाहती हूँ---बचुआ, पहले
अपनी झुपदिया भुहारालीजो ,तब जैबो औरों के दरवाजे.
एक महाभुकभोगी
No comments:
Post a Comment