Wednesday, 6 April 2016

कली-कली ही चुनती रहती हूं



कली-कली ही चुनती रहती हूं
कांटों की बाडें हैं—बे-शक
उम्मीदों की डालों पर
फूलों की झालर-महकेगीं-
मौसम को अभी पलटना है बाकी
पीडाओं की कोख हरी है
स्नेहों के मौसम भी पलटेगें—बे-शक
अपने मेरे आए तो मेरे घर तक
कहने को शब्द नहीं थे—शायद
तिरस्कारों के मौसम में भी
स्नेहों के फूल चटक आते हैं—बे-शक
अपने हैं—तो ही तो आते हैं
कुछ देने-कुछ लेने—मुझ तक
गैरों को क्या गर्ज भला
लेन-देन होता है-अपनों में ही तो
पीडाओं की कोख कहारती है
आंचल में,अपनों को भरने को—
आशाओं का इंद्रधनुष बिखरता
काली रातों के हटने पर ही
स्नेहों का बसंत चटकता
जब होता मन सिंचित अश्रुओं से
जो सच है शेष वही रहता है
झूठ बिखरता वक्त के अंधियारों में.
अश्रु पिघलते हैं जब सिर टिक जाते
अपनों के कांधों पर ही
कली-कली ही चुनती रहती हूं
कांटों की हैं बाड बहुत हैं—बे-शक.



1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-04-2016) को "नैनीताल के ईर्द-गिर्द भी काफी कुछ है देखने के लिये..." (चर्चा अंक-2306) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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