बदरंग हो रहे हैं हम-क्या हम जीवन को जीते हैं???
बहुत ही बे-तुका प्रश्न हो सकता है—लेकिन थोडा ठहर कर
देखिये उस आइने में जिसे हम जीवन कहते हैं?
पर ऐसा होता नहीं हैं—उस आइने पर अपने अहम,अपने थोथेपन की
धूल पोंछते जाते हैं—कि और-और पा लें फिर इसको साफ करेंगे और फिर अपने खूबसूरत
चेहरे को निहारेगें—जो हम निरंतर बदसूरत किये जा रहे हैं.
भागे जा रहे हैं—भागे जा रहे हैं—सांसे फूल रही हैं
मुट्ठियां जकडे हुए हैं—पता नहीं उनकी सधों में से खूबसूरत पल नीचे गिर कर धूल हो
रहे हैं.
आज की पीढी का यह बे-नकाब चेहरा है—जिसे वे हर-पल छुपाने के
भ्रम में घिरे हुए हैं जो बाहर बाजारों में बिखरा पडा है—और लोग उन पर से गुजर
जाते हैं.
घर भरे हुए हैं—अटे पडे हैं—कबाड होने के इम्तजार में—वार्डरोबों
से हजारों के गोटे-कसीदे पैरों के तले पडे हैं—खाना पेटों से ऊपर बह रहा है—गंदी नालियों
में—गाडियां जरूरते नहीं है—दूसरों के अहमं को तोडने की हथोडियां हैं—चाहे वे
हमारे ही सिर और वजूद को चटका रहीं हों.
नींद के लिये—खोपडियों के बालों को नोंचे जा रहे है---
और इसके आगे---जिन्होंने उनके सपनों को हकीकत करने के लिये
खुद को गिरवीं रख दिया—सिर्फ़ एक चाह के लिये कि—जब उनके कंधे झुक जायेंगे तो हमें
बैसाखियों का सहारा नहीं लेना होगा—इनका हाथ हमें थाम ही लेगा—
ऐसा ना-काम भरोसा जो कभी ना-काम होता ही नहीं—पीढियां ना-काम
हो गयीं और होती जा रही हैं—जिंदगी का सबसे भयानक भ्रम—
समाज के-उस तबके की हकीकत है—जहां के कुत्ते उनकी कारों की
अगली सीटों पर बैठते हैं और—पिछली सीटों पर--??
एक बहुत कडुआ सच—जिसे जिंदगी का बहुत बडा हिस्सा पी रहा है—निरीह
होकर—क्योंकि यह ऐसा जहर है—जो गले में ही अटक कर रह जाता है—हालांकि शिव कम से कम
शिव तो बन गये—और ये निरीहता के कफन को खुद ही बुन रहे हैं अपने जीते जी.
आखिर हमेम इस जिंदगी से चाहिये क्या??
एक बार कहीं एकांत में जाकर—जोर-जोर से चीखना चाहिये—खुद से
प्रश्न करने चाहिये—उम्मीद है—हमारे ही अंतर्मन से इस विषाक्त प्रन का उत्तर मिलना
चाहिये—जो हमें इस विष की विषाक्तता से शिवोअहम कर सके--.
कृपया—कुछ पल छीनिये—इस मायाजाल के मकड जाल से---
समय हमारे पास बहुत है—केवल कुछ पल—और संभावना है—आशा भी है
---विष-पान के बाद भी हम शिव तो ना सही—कम से कम एक तृप्त इंसान हो जांय और इस
जीवन की सार्थकता को अहोभाव से स्वीकार कर पाएं—और अनुगृहित हो सकें—जो हमें मिला है,बगैर
कुछ चुकाए—कि जिसकी कोई कीमत नहीं—और बार-बार मिलेगा भी नहीं.
साभार—मन के-मनके.
सही प्रश्न किया है आपने
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