श्री धीरेंद्र सिंह भदोरिया द्वारा प्रकाशित कविता--’पिता’ (११.२.१४.चरचामंच)
को पढते हुए सहसा याद हो आया,एक स्मृति लेख---बाबूजी नहीं रहे--मेरे ब्लोग ’मन के- मनके’ पर प्रकाशित.
और अनायास ही बाबूजी याद आ गये.
उनके जाने के करीब २५ वर्ष बाद---जी चाहता है आज जी भर कर रो लूं.आत्मग्लानि जो अंर्तरमन में दबी है--फूट पडने को आतुर है,उसे रेचन करके बाहर फेंक दू,जरूरी है.
कुछ बोझ तो दिखाई देते हैं ,कुछ अंदर दबे पडे रहते हैं और हम उन पर भ्रमों की हरी घास के पेबंद लगाते रहते हैं.सोचते हैं हमारे घर के आगे बगीचा हरा-भरा है.ऐसा नहीं है यह हरियाली औरों को सुकून देती ही होगी लेकिन जिन्होंने इसे रोपा है उनके मन उपेक्षाओं के असीमित मरुस्थलों के असीमित दायरों में भटक जाते हैं.
आज ९०% जीवन दूसरों के लिये जिया जाता है---जहां हम ही नहीं,हमारे वे भी उपेक्षित हो जाते हैं जो न हों तो हम भी ना हों.
विडंबना है---आज वृद्धाश्रम निहायत जरूरी हो गये हैं.
बाबूजी नहीं रहे---इस स्मृति के पन्ने दुबारा पलट रही हूं.
एक ऐसा वजूद---चट्टान सा कठोर,सामने खडे होने पर उसकी तपिश हमेशा महसूस होती रही----चेहरे पर संघर्षों की आंच,आंखे मोटे चश्में के पीछे---मुझसे हमेशा दूर रहीं---कोशिश करती रही इन आंखों में खुद को देख पाऊं?
उनका एक स्पर्श मुझसे कोसों दूर रहा---पानी का गिलास हाथ में देने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला--एक स्वभावगत,या परिस्थितिगत---पानी का गिलास दूर रख कर चले आना होता था.
उनका सानिद्ध्य कुछ माह का रहा होगा---बाकी समय तो मैं अपने को उनके द्वारा प्रेषित पत्रों में खुद को ढूंढती रही उन शब्दों जो अंतर्देशीय पत्र के बचे हुए कोने में पडे होते थे---उमा की पढाई--?
कभी-कभी अनुतरित प्रश्नों की कटीली झाडियों में----कुछ शिकायत---कुछ अघोषित अधिकारों के जंगली-बेखुशबू फूलों को ढूंढती रही.
परंतु जब बाबूजी नहीं रहे----
तब मुझे समझ आया---उनकी आंखे जो मोटे चश्में के पीछे होती थीं--उनमें प्यार था मैं ही नहीं देख पाई.पानी का गिलास जो दूर रख कर चली आती थी,उस पर उनके हाथों का स्पर्श होता था मैं ही नहीं छू पाई.उनकी चिट्ठियों में---मैं होती थी---उन शब्दों में जो अम्तरदेशीय पत्र के बचे हुए स्थान पर जैसे -तैसे,कोने में भटके से,छिटके से,भूले से---उमा की पढाई--?मैं ही उन शब्दों को नहीं पढ पाई.
वो बाबूजी,चार बच्चों के पिता,उनकी बाल्यकाल से वयस्क होने तक की जिम्मेदारी---दुनियादारी,पत्नि का साथ न होना,यदि वे चट्टान ना होते तो कैसे थामते इतनी आम्धियों को.
वो नितांतता,वो अकेलेपन की कोठरियां जो मनहूसियत से घिर गईं थीं--उन से पार जाना,बहुत-बहुत पीडादायक होगा.
एक और नई शुरूआत का विकल्प उनके पास नहीं था,मगर दो विकल्पों में से एक विकल्प का चुनाव ’आत्महंता" ही होना था क्योंकि आने वाले ’कल’ को सहेजना था और जाने वाले ’कल’ को जाने देना था.
आसान नहीं होगा कितना टूटेगे होंगे हमें सहजने के लिये,कितने बिखरे होंगे हमें समेंटने के लिये---
बाबूजी नहीं रहे---हम सब एक-एक करके अपनी-अपनी दुनिया में निकल आना और उनकी नितांतता की कटीली बाड का और घना हो जाना.
’आज’ हमेशा स्वार्थी होता है उसे अपने ’कल’ की परछाइयां तो नजर आती है लेकिन ’कल’ के दूर जाते कदमों की आहटें सुनाई नहीं पडतीं.
और चट्टान से बाबूजी छोटे होते चले गये---चौडे कांधें झुकते चले गए---जिन हाथों को छूना मुमकिन नहीं था,वो कांपने लगे थे---जिनके कदमों की ठसक हम सब को कोनों में समेट देती थी,अब घिसटन भर रह गई थी---जिनकी आवाज भरी नींद को तोडने के लिये काफी थी,अब गले में ही रुंधने लगी थी---
बाबूजी नहीं रहे---सपने जब जीवित हो जाते हैं तो वे ही उन सपनों को तोड देते हैं,जिनकी आंखों में वे पले थे कभी.
बाबूजी नहीं रहे----कभी-कभी जी चाहता है----कि--?
जो हमने पाया---जाना है कभी
यदि,कभी जाना भी है---तो जताया है कभी
यदि नहीं---तो एक बार कह देना ही चाहिए
बाबूजी,याद आते हैं ,आप बहुत
हम नहीं दे पाए वो जो,आप कह ना पाये कभी.
को पढते हुए सहसा याद हो आया,एक स्मृति लेख---बाबूजी नहीं रहे--मेरे ब्लोग ’मन के- मनके’ पर प्रकाशित.
और अनायास ही बाबूजी याद आ गये.
उनके जाने के करीब २५ वर्ष बाद---जी चाहता है आज जी भर कर रो लूं.आत्मग्लानि जो अंर्तरमन में दबी है--फूट पडने को आतुर है,उसे रेचन करके बाहर फेंक दू,जरूरी है.
कुछ बोझ तो दिखाई देते हैं ,कुछ अंदर दबे पडे रहते हैं और हम उन पर भ्रमों की हरी घास के पेबंद लगाते रहते हैं.सोचते हैं हमारे घर के आगे बगीचा हरा-भरा है.ऐसा नहीं है यह हरियाली औरों को सुकून देती ही होगी लेकिन जिन्होंने इसे रोपा है उनके मन उपेक्षाओं के असीमित मरुस्थलों के असीमित दायरों में भटक जाते हैं.
आज ९०% जीवन दूसरों के लिये जिया जाता है---जहां हम ही नहीं,हमारे वे भी उपेक्षित हो जाते हैं जो न हों तो हम भी ना हों.
विडंबना है---आज वृद्धाश्रम निहायत जरूरी हो गये हैं.
बाबूजी नहीं रहे---इस स्मृति के पन्ने दुबारा पलट रही हूं.
एक ऐसा वजूद---चट्टान सा कठोर,सामने खडे होने पर उसकी तपिश हमेशा महसूस होती रही----चेहरे पर संघर्षों की आंच,आंखे मोटे चश्में के पीछे---मुझसे हमेशा दूर रहीं---कोशिश करती रही इन आंखों में खुद को देख पाऊं?
उनका एक स्पर्श मुझसे कोसों दूर रहा---पानी का गिलास हाथ में देने का सौभाग्य मुझे नहीं मिला--एक स्वभावगत,या परिस्थितिगत---पानी का गिलास दूर रख कर चले आना होता था.
उनका सानिद्ध्य कुछ माह का रहा होगा---बाकी समय तो मैं अपने को उनके द्वारा प्रेषित पत्रों में खुद को ढूंढती रही उन शब्दों जो अंतर्देशीय पत्र के बचे हुए कोने में पडे होते थे---उमा की पढाई--?
कभी-कभी अनुतरित प्रश्नों की कटीली झाडियों में----कुछ शिकायत---कुछ अघोषित अधिकारों के जंगली-बेखुशबू फूलों को ढूंढती रही.
परंतु जब बाबूजी नहीं रहे----
तब मुझे समझ आया---उनकी आंखे जो मोटे चश्में के पीछे होती थीं--उनमें प्यार था मैं ही नहीं देख पाई.पानी का गिलास जो दूर रख कर चली आती थी,उस पर उनके हाथों का स्पर्श होता था मैं ही नहीं छू पाई.उनकी चिट्ठियों में---मैं होती थी---उन शब्दों में जो अम्तरदेशीय पत्र के बचे हुए स्थान पर जैसे -तैसे,कोने में भटके से,छिटके से,भूले से---उमा की पढाई--?मैं ही उन शब्दों को नहीं पढ पाई.
वो बाबूजी,चार बच्चों के पिता,उनकी बाल्यकाल से वयस्क होने तक की जिम्मेदारी---दुनियादारी,पत्नि का साथ न होना,यदि वे चट्टान ना होते तो कैसे थामते इतनी आम्धियों को.
वो नितांतता,वो अकेलेपन की कोठरियां जो मनहूसियत से घिर गईं थीं--उन से पार जाना,बहुत-बहुत पीडादायक होगा.
एक और नई शुरूआत का विकल्प उनके पास नहीं था,मगर दो विकल्पों में से एक विकल्प का चुनाव ’आत्महंता" ही होना था क्योंकि आने वाले ’कल’ को सहेजना था और जाने वाले ’कल’ को जाने देना था.
आसान नहीं होगा कितना टूटेगे होंगे हमें सहजने के लिये,कितने बिखरे होंगे हमें समेंटने के लिये---
बाबूजी नहीं रहे---हम सब एक-एक करके अपनी-अपनी दुनिया में निकल आना और उनकी नितांतता की कटीली बाड का और घना हो जाना.
’आज’ हमेशा स्वार्थी होता है उसे अपने ’कल’ की परछाइयां तो नजर आती है लेकिन ’कल’ के दूर जाते कदमों की आहटें सुनाई नहीं पडतीं.
और चट्टान से बाबूजी छोटे होते चले गये---चौडे कांधें झुकते चले गए---जिन हाथों को छूना मुमकिन नहीं था,वो कांपने लगे थे---जिनके कदमों की ठसक हम सब को कोनों में समेट देती थी,अब घिसटन भर रह गई थी---जिनकी आवाज भरी नींद को तोडने के लिये काफी थी,अब गले में ही रुंधने लगी थी---
बाबूजी नहीं रहे---सपने जब जीवित हो जाते हैं तो वे ही उन सपनों को तोड देते हैं,जिनकी आंखों में वे पले थे कभी.
बाबूजी नहीं रहे----कभी-कभी जी चाहता है----कि--?
जो हमने पाया---जाना है कभी
यदि,कभी जाना भी है---तो जताया है कभी
यदि नहीं---तो एक बार कह देना ही चाहिए
बाबूजी,याद आते हैं ,आप बहुत
हम नहीं दे पाए वो जो,आप कह ना पाये कभी.
निशब्द रचना...!!
ReplyDeleteमन भारी हो गया …
ReplyDeleteकाश! वक़्त रहते ही सम्भल जाएँ ...
~सादर
सच में निःशब्द हूँ इसे पढ़ने के बाद ... स्मृतियों के झरोखे से बाहर न आने देने वाली पोस्ट है ये ... नमन है आपकी लेखनी को ...
ReplyDeleteमन भारी करती रचना।
ReplyDeleteएक मर्मस्पर्शी संस्मरण ........जो कहीं अन्तर्मन को छू गया ....सच ही बहुत देर हो जाती है
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी संस्मरण
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