पीपल के सूखे पत्ते पर,एक मासूमियत,अपने शैशव की करधनी में
लटकीं,खिलखिलाहटें
आंगन में रुनझुन बिखेरतीं------आज भी करीब ४५ साल
बाद,सुनहरे फोटोफ्रेम में---मेरी पहली धरोहर,मेरे आस्तित्व के निचोड की एक बूंद----हरदिन,हरपल,मेरी
कोख में,एक स्पंदन सी,जीती है.
वह स्पंदन तुम्हारे आस्तित्व से क्योंकर छिटक गया???
या तुम सत्य की छाती पर,अपने भविष्य के रथ को रोंदते हुए
निकलते रहे-----
कह नहीं सकती----क्या तुम्हारी मजबूरियां थीं?
क्यों तुम संवदनहीनता की हर सीमाओं को रोंदते
रहे---निरुत्तर हूं----भ्रमित हूं----आहत हूं—और अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के
झंझावतों में घिर आई हूं.
खलील ज़िब्राल(लेबनीज़ दार्शनिक-कवि)
द्वारा रचित कुछ बेहद खूबसूरत पंक्तियां पढने को मिलीं----
And a woman who held a babe
against her bosom said,Speak to us of children
And he said—
Your children are not your
children.
They come through you but not
from you.
And though they are with you
yet they belong not to you.
They are the sons and
daughters of life’s longing for itself.
कई बार पढा----पहली बार लगा कितने सुंदर भावों को,मोतियों
सा चुन---एक माला सी पिरोई गई हो---
दूसरी बार पढा---एक मोती,एक प्रश्न बन छिटक कर गिर गया----your children are not your children----तो मेरे ही
आस्तित्व से पुलकित वह स्पंदन कौन था---जिसे मेरी रक्त शिराओं ने हर पल सींचा----मिट्टी
में गिरा एक बीज जब पौधा बन आकाश की ओर बढने लगता है,उसमें रंगों से भरी,महक
बिखरने लगती हैं,फूलों से डालियां झुकती हैं तो,उस मिट्टी का ना होना कैसे नकारा
जा सकता है---बीज की सम्भावनाएं,मिट्टी के हर कण-कण में निहित हैं.
सत्य है,वृक्ष की अपनी निजी संभावनाएं होती ही हैं,फूलों की
अपनी अलग पहचान,परंतु बगैर मिट्टी के ये पहचान काव्य की कुछ पंक्तियां ही रह जाती
हैं---दर्शनशास्त्र की भूलभुलैया---जहां सत्य को गाया तो जा सकता है,उसे विभिन्न
कोणों से देखा जा सकता है---परंतु सत्य की लकीरों को मिटाया नहीं जा सकता है ना ही
छोटा-बडा किया जा सकता है.
मैं किसी भी दार्शनिक-कवि की काव्यांजली को पढना अवश्य
चाहूंगी---गुनगुना भी,किंतु कुछ गीत स्वप्न सरीखे ही होते हैं---मैं चांद को आंचल
में भ्रर लूं---मैं खुशबुओं को मुट्ठी में भर लूं---मैं सूरज को आंगन में
आंमंत्रित कर लूं---बहुत-बहुत सुंदर गीत लिखे जाते रहें
हैं,गाते-गाते,सुनते-सुनते,निःसंदेह एक और ही दुनिया में प्रवेश हो जाता है---फिर
जब नींद टूटती है,तो वही दीवारों के घेरे हैं,वहीं सकरी होती उम्मीदें हैं,यह वह
सत्य है जो खुली आंखों से दिखता है,हाथों से छू सकते हैं ,पैरों को लहूलुहान करते
है,ये रास्ते सत्य के.
वो सुनहरा फोटोफ्रेम,करीब ४५ वर्ष बाद भी,यूं का त्यों
सुरक्षित है,उसका कांच भी उतना ही पुराना है,एक बार भी नहीं चटका है.
कुछ संवेदनाएं बेशकीमती हैं,संवेदनाएं ना हों तो आप के
स्पर्श की गर्माहट ना होगी,आंखों में तैरती मुस्कुराहट ना होगी,इशारों की परिभाषाएं
पथरीली हो जाएंगी.
सुनो---एक छोटे सी कहानी कहने जा रही हूं---१८-१९ साल की एक
लडकी,अपने बिखरे अतीत की परछाइयों को लांघती,सुनहरी धूप से भरे आंगन में कदम रखती
है,सकुचाई सी,सहमी सी,परंतु विश्वास से भरी कि इस आंगन को बुहारूंगी---आंगन के
कोने में तुलसी का बिरवा सींचूंगी,संध्या-दीप से घर-आंगन को जग-मग करूंगी.आंगन से
लगा चौका होगा,जहां भोरसुबह से ,पतीलियां
गर्म होती रहेंगी,थालियां लगती रहेंगी---दालें उफनती रहेंगी,साग सुधियाते रहेंगे.
रात थक कर चूर जब बिस्तर पर पैर रखूंगी तो एक स्पर्श,मेरे
कांधे पर मुझे तृप्त कर जाएगा---
एक छोटा सा सपना---मेरे आस्तित्व का स्वाधिकार.
और नहीं जानती थी,अ ब स,इस रचना का,एक अल्हडपन बस एक सपना
एक घर बसाने का.इससे अधिक सपनों के बीज नहीं थे मेरे पास,बोने के लिये.
सुबह-सुबह---कोख में कुछ स्पंदित हुआ,कुछ घबडाहट सी हुई,कोख
पर अपनी हथेलियों को धीरे रखा,आंखें कभी बंद होने लगी,कभी खुलने लगीं,कुछ तो है???
ये कमरे में आए---कुछ कहने के लिये---मैं पुलकित हो
गई---सुनो,जरा अपना हाथ देना—क्यों क्या बात है? अरे! जरा अपना हाथ यहां तो
रखो---ये उलझन से भरे,अनमने मन से अपना हाथ हठा लिया---मैं अपनी दौनों हथेलियो की
गर्माहट को तुम तक पहुंचाती रही.
यह था मेरे-तुम्हारे बीच पहला संवाद.पता नहीं मैंने जो कहा
वह तुमने सुना या नहीं.परंतु मैं संभावनाओं के बीज को सींचती रही,बस एक चाह के साथ
कि जो भी आस्तित्व मेरे गर्भ में पल रहा है वह पूर्ण हो.
हर दिन मैं मां बनती रही,कोख विकसित होती रही,तुम्हारे आने
से पहले,तुम्हारा भोजन मेरी रक्तशिराओं में बह कर मेरे आंचल को भरता रहा.
और एक दिन,तुम अपने आस्तित्व को लिये,मेरे आस्तित्व से
छिटक,इस संसार के खुले प्रकाश में,बंद मुट्ठियां लिये,सहमी-सहमी खुली आंखों के
साथ,मेरे दाएं कांधे से सटे,लेटे हुए थे.
मैं डरते-डरते तुम्हे छू रही थी,निहार रही थी—क्या चमत्कार—क्या
लीला---कैसी कलाकारी है---
तुम्हारे पापा के द्वारा खींचे गये,ब्लेक एम्ड व्हाइट फोटो
जो मैंने स्केन करके लेपटोप पर डाल दिये हैं---करीब ५०० से अधिक ही होंगे.
वो केमरा भी तुम्हे याद होगा,रशियन केमरा,जिसे तुम अपने साथ
ले गये हो,उम्मीद है तुमने सभांल कर रखा होगा.
४५ सालका अंतराल एक जीवन को जीने के लिये काफ़ी है.एक-एक दिन
की हजार-हजार यादों को जी लेना----शब्दों से परे है,क्या याद रखें क्या भूल जांय.
यादों को समेटने के लिये,संवेदनाओं को जीना होता है,रोज
उनकी जडों को सींचना होता है.
शायद---तुमने अपनी सम्वेदनाओं को सींचना छोड दिया
है---उन्हें सींचना शुरू कर दो----उम्मीद है वे फिर से हरी हो जांयेगी---उम्मीद है
जीवन के झंझावतॊ में,तुम्हें कुछ छांव दे पाएं—सुकून अवश्य देंगी.
मरुस्थल में भी,कुछ ताड के पेड होते हैं जो छांव तो नहीं
देते,कम-से-कम,कुछ मीठे फल तो अवश्य देते हैं.
पुनः---
Your children are not your
children------
And though they are with
you,but not from you----???
शब्दातीत!!....इसे ही पूरा समझियेगा मनोभाव इस प्रसंगवश!!
ReplyDeleteख़ूबसूरत मनोभाव ,
ReplyDeleteशुभकामनायें
मन में उठते अनगिनत भावों का सैलाब मन में हलचल पैदा कर देता है।
ReplyDeleteमरुस्थल में भी,कुछ ताड के पेड होते हैं जो छांव तो नहीं देते,कम-से-कम,कुछ मीठे फल तो अवश्य देते हैं.
ReplyDeleteसचमुच............. अचंभित करती है आपकी लेखनी. नियमित लिखेंगे, ऐसी उम्मीद है. शुभकामनाएं.
जीवन के प्रति अंतराभावो का बड़ा ही सुन्दर चित्रण देखने को मिला। इसे बुकमार्क किया है ताकि रात में एक बार फिर शांत मन से पढू। साधुवाद।
ReplyDeleteकई बार मन किसी बात से आहत होता है ... कई बार बिना किसी बात के बस उदासी ओड़ लेता है ... पर ऐसे मनोभावों का आना स्वाभाविक है ... ओर इन्सान खुद ही इन्सबसे बाहर भी आ जाता है ... जब पंछी बाहर उड़ना सीखते हैं (जो की हम ही सिखाते हैं) तब बहुत सी आशाएं पाल लेते हैं (हालांकि वो अपनी ही होती हैं) ...पर ... ऐसी आपेक्षायें रखना चाहते हैं उन सभी से ... हालात की कठोर सतह कई बार वो संवेदनाएं व्यक्त नहीं करने देती ... मेरा मानना है संवेदनाएं हमशा दिल में होती हैं .. कई बार कोई अहम्, कोई मजबूरी ... या कुछ भी उन्हें बाहर नहीं आने देता ...कई बार बस एक फूंक हो काफी होती है ओर दिवार गिर भी जाती है ...
ReplyDeleteआपकी लेखनी का मौन बहुत कुछ कहता है ... अपना ख्याल रखिये ओर ऐसे ही लिखते रहिये ... पढ़ना अच्छा लगता है आपको ...
क्या कहूँ, भावों का समंदर है इस पोस्ट में.
ReplyDeleteबहुत से सवाल जो वक़्त वक़्त पर ज़हन में आते हैं.
एक फल अपने वृक्ष की डाल से तब तक ही जुड़ा रहता है जब तक वह पक नहीं जाता, फिर वह काम आता है किसी और के. ऐसे ही बच्चे होते हैं. हम उन्हें जन्म देते हैं, अपने रक्त से सींचते हैं, बड़ा करते हैं, फिर वे चले जाते हैं किसी और उद्देश्य की पूर्ती के लिए.
लिखती रहियेगा इन शब्दों में बहुत ताक़त होती है.
भावों के वटवृक्ष पर एक चिडिया आज भी फ़ुदकती है
ReplyDeleteस्मृति के पन्नों पर लिखी तहरीर ना अब हटती है
अंकुरित होने को तमन्ना के बीज सी आज भी उकरती है
तन्हाइयों के सफ़र में तुम्हारे नन्हे कदमों के पुन:आगमन को तरसती है
क्योंकि
तुम अंश हो चाहे विशेष नहीं मगर शेष हो एक जीवन के आगमन का
संवेदनाओं के पुनः विचरण का
इसलिये
प्रतीक्षा की थाली में इक माँ की नज़र आज भी भटकती है
मन के भावों की खूबसूरत अभिव्यक्ति .
ReplyDeleteइस पोस्ट की चर्चा, बृहस्पतिवार, दिनांक :-10/10/2013 को "हिंदी ब्लॉगर्स चौपाल {चर्चामंच}" चर्चा अंक -21 पर.
ReplyDeleteआप भी पधारें, सादर ....
नवरात्रि की शुभकामनाएँ.
गज़ब की पकड़ है शब्दों पर . . .
ReplyDeleteबधाई एवं शुभकामनायें !
हम उ्न किताबों को क़ाबिल-ए-ज़ब्ती समझते हैं,
ReplyDeleteजिन्हें पढ़कर बेटे मां-बाप को ख़ब्ती समझते हैं...
जय हिंद...
खलील जिब्रान का यह वाक्य बहुत पहले पढ़ा था, अत्यधिक प्रभावित किया था इसने।
ReplyDeleteमनोभावों का सशक्त सैलाब, बहुत ही प्रभावशाली आलेख, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
They are the sons and daughters of life’s longing for itself.
ReplyDeleteग़ज़ब.
... और हम हैं कि मोहपाश में फंस कर सबकुछ अपना समझ बैठते हैं. शायद इसीलिए सही ही कहा ... इसमें मेरा कुछ नहीं जो कुछ है सो तेरा
मन दुखी तो अवश्य होता है पर अपने बोये बिरवे को पल्लवित पुष्पित देख कर ही संतोष कर लेना ही श्रेयस्कर है. हमने अपना कर्तव्य अच्छी तरह निभाया....यह भी कम संतोष की बात नहीं .
ReplyDeleteसुन्दर आलेख
माँ की भावनाएं किसी दर्शन से तृप्त नहीं होतीं ! उसे तो प्रेम चाहिए बस ! बहुत सुन्दर मगर पीड़ा दाई अनुभूति !
ReplyDeletebahut sundar der se padha ..behtreen
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