क्या तुम्हारे पास------
इतना बडा इंद्रधनुष नहीं,
जो, क्षितिज के इस छोर से—
उस छोर को, अपनी झिल-मिल में समेट
ले
जहां----------- भूख
है---
जहां बेनीदों की रातें
हैं
जहां----अकाल हैं—किलकारियों
के
जहां---गोद को तरसती—किलकारियां
हैं
जहां---उम्मीदों के धागों से बिने
मोरपंखी------गलीचे----
बिछ नहीं पाते---घरों में
और,दुबारा बिने भी नहीं जाते
जहां---इंतजार निगल जाते
हैं,जिंदगियों को
और,अपनों के कदमों की
आहटें,बहुत-बहुत
दूर
चली जाती हैं---
जहां, मासूम बचपन-------
ढूंढते रहते हैं—ता-उम्र,पूरे घरों
को
एक रात नसीब होता है—मां का आंचल
तो, अलसुबह,पिता की उंगली थाम लेते
हैं
ये घर---- अधूरे
से क्यों हो जाते हैं—
उम्र के सालों की गिनतियां
चेहरों पर आकर होती हैं पूरी
और, हाथ कांपने लगते हैं—गिनने के
लिये
धुंधली आंखो में,रीतते सपने—
रोज-रीतते चले ही जाते हैं—
घरों से-----
छिटकते बुढापे
देहरी के
बाहर---चटकते चबूतरों पर—
बैठ जाते हैं—
जहां,अपने ही हाथ झटक—दूर चले जाते
हैं
और,चुके सपनों की डोरी को ,अपने ही
बे-डोर पतंग सी छोड देते
हैं
क्या तुम्हारे पास-------
इतना
बडा इंद्रधनुष नहीं है
जो,क्षितिज
के इस छोर से
उस छोर को, अपनी झिलमिल में
समेट ले----
अब काफ़ी नहीं----
तुम्हारा, अधा-अधूरा सा
इंद्रधनुष----
सारे सपनों को समेटे एक हो इन्द्रधनुष..
ReplyDelete.
ReplyDeleteजहां----------- भूख है---
जहां बेनीदों की रातें हैं
जहां----अकाल हैं—किलकारियों के
जहां---गोद को तरसती—किलकारियां हैं
हृदयस्पर्शी !
अब काफ़ी नहीं----
तुम्हारा, आधा-अधूरा सा- इंद्रधनुष----
आदरणीया उर्मिला जी ,
सादर प्रणाम !
क्या बात है ...
बहुत भावपूर्ण लिखा आपने सर्वे भवन्तु सुखिना के उदात्त भावों को पिरो कर
बहुत सुंदर कविता लिखी आपने
आभार और मंगलकामनाएं !