कभी-कभी,
ये यादें,उदास क्यों हो जाती हैं?
सूने तकिये पर,सिर रख कर—
छत,क्यों निहारती हैं,
और,घर से निकल, आ जाती हैं,सूनी पगडंडी पर
कभी-कभी,
ये यादें, उदास क्यों हो जाती हैं/
कमरे से,बाहर आकर---
खडी हो जाती हैं,
बालकनी की रेलिंग से टिक कर
और, आसमान के खालीपन में खो जाती हैं
कभी-कभी,
ये यादें,उदास क्यों हो जाती हैं?
अपनों की हथेलियों को थाम
उनकी गर्माहट में भी,
ठंडी सी हो जाती हैं—
और, आंखो की कोरों से टपकी
बूंदे बन जाती हैं—
कभी-कभी,
ये यादें-----
yaadein aisi hin hoti hai, kabhi sunepan se taakti ghabraati hai to kabhi kuchh mithi yaadein jivan ke khaalipan ko bharti hai. yaadein to yaadein hain, aankhon mein paani ban tapakti hai. sundar rachna, badhai.
ReplyDeleteक्या कहने, बहुत सुंदर
ReplyDeleteयादें हमें हमारी निजता में खींचकर ले जाती हैं, चुपचाप बतियाने के लिये।
ReplyDeleteउदासी भी कुछ न कुछ अपने आप में बात करती है ..सुन्दर प्रस्तुति
ReplyDeleteआपकी किसी नयी -पुरानी पोस्ट की हल चल आज 08 -12 - 2011 को यहाँ भी है
ReplyDelete...नयी पुरानी हलचल में आज... अजब पागल सी लडकी है .
बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति है आपकी.
ReplyDeleteसंगीता जी की हलचल ने यहाँ तक पहुँचाया.
आपका आभार.
संगीता जी का आभार.
मेरे ब्लॉग पर आपका हार्दिक स्वागत है.
बेहतरीन।
ReplyDeleteसादर
वाह ....बहुत बढि़या।
ReplyDeleteये यादें,उदास क्यों हो जाती हैं?
ReplyDeleteअपनों की हथेलियों को थाम
उनकी गर्माहट में भी,
ठंडी सी हो जाती हैं—
और, आंखो की कोरों से टपकी
बूंदे बन जाती हैं—....बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति..
मेरी नई पोस्ट 'यादें ' पर आप का स्वागत है..
लाजवाब रचना है मन को उदासी के कोहरे में लपेटती सी ! यादों की फितरत होती ही है ऐसी जो सुबहो शाम के हर लम्हे को उदासी के अर्क में मेरीनेट कर जाती है और जीवन के स्वाद को बदल देती है ! बहुत ही सुन्दर रचना !
ReplyDeleteयादें तो हमेशा ही रुलातीं है ..मन के भावों का खूबसूरत चित्रण
ReplyDeleteto jara rasta badal diya kijiye na in udas yadon ka apne aap hi udasi peechhe chhoot jayegi.
ReplyDeletegehen, sunder abhivyakti.
gahare bhavo ko darshati ati uttam rachana hai...
ReplyDeleteयादें उदास हो जाती हैं ... अच्छा प्रयोग। मन को भिंगोती रचना।
ReplyDeleteअपनों की हथेलियों को थाम
ReplyDeleteउनकी गर्माहट में भी,
ठंडी सी हो जाती हैं—
और, आंखो की कोरों से टपकी
बूंदे बन जाती हैं—
कभी-कभी,
ये यादें-----
man khush ho gaya padh ker... halchal ne yahan tak pahuchaya... kabhi mere blog mei bhi aiyae...achha lagega...
स्मृतियाँ बहुत बार आँखें भिगो जाती हैं ...यूँ ही चुपचाप ....
ReplyDeletebhawbhini......
ReplyDeleteइस पोस्ट के लिए धन्यवाद । मरे नए पोस्ट :साहिर लुधियानवी" पर आपका इंतजार रहेगा ।
ReplyDeleteमन का आरोपण बाहरी आलंबन पर .अच्छी रचना नया आलंबन लिए .
ReplyDeleteमन के भावों खुबशुरत चित्रण ,...सुंदर पोस्ट ...
ReplyDeleteमेरी नई रचना........
नेताओं की पूजा क्यों, क्या ये पूजा लायक है
देश बेच रहे सरे आम, ये ऐसे खल नायक है,
इनके करनी की भरनी, जनता को सहना होगा
इनके खोदे हर गड्ढे को,जनता को भरना होगा,
बहुत खूब....
ReplyDeleteआपके कुछ लेख भी पढ़े...बहुत अच्छे लगे.
सादर.
लगता है आपको मेरे ब्लॉग पर आने में संकोच है जी.
ReplyDelete'मन के मनके' का विस्तार ही है मेरा ब्लॉग.
फिर संकोच कैसा.
मन अक्सर भूतकाल में ही जीता है। इसलिए,ज्ञानी लोग वर्तमान में जीने की सलाह देते हैं ताकि भविष्य को उसकी पूर्णता में जिया जा सके।
ReplyDeleteधन्यवाद
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