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Thursday, 10 September 2015

ये खुशबुएं गज़ब की होती हैं!!!


 

ये खुशबुएं गज़ब की होती हैं

ये खुशबुएं—गज़ब की होती हैं—जी हां.

आइये चलते हैं इन खुश्बुओं की गलियों में.

पिछले दिनों करीब एक देढ माह पूर्व आमों का मौसम चल रहा था,हमारे देश यानि कि भारत में—क्योंकि इन दिनों मैं आ्स्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हूं—अतः बात को यूं कहना पड रहा है.

सौभाग्य से वह भी लखनऊ शहर में—जो दशहरी आमों का गढ कहा जाता है.उस समय आम ही आम नजर आ रहे थे.नजर ना भी आ रहे थे तो भी दिलों को छूती हुई उनकी महक हवाओं में घुल रही थी—जरूरी नहीं होता आप आम खाएं ही—उनकी खुश्बुओं से भी तृप्ति का आनंद लिया जा सकता है—ब-शर्ते आनंद लेने की कला आती हो,जरा जोर लगा कर सूंघना होता है—अच्छा व्यायाम है—योग—अनुलोम-विलोम—एक पंथ दो काज वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है.

खुशबुओं की बात चली है—चलते हैं एक और गली में—खाने की थाली की महक—उनमें रखी हुईं विभिन्न पकवानों की कटोरियां—.—हरएक के पास एक धरोहर इन खुश्बुओं की अवश्य होती है—कि मां के हाथ की पकाई हुई कोई दाल.कोई सब्जी या कि खीर—या कि एक महक कि, दाल का छौक.

करीब साठ दसक बाद भी मैं आज भी सूंघ पाती हूं उस छौंक की महक को जो हमारी मामी लगाया करती थीं—मूंग की छिलके वाली दाल में.

एक कहावत है—किसी के दिल में पहुंचना हो तो खाने की थाली के जरिये पहुंचना बहुत ही नैसर्गिक व सहज होता है.बात सौ प्रतिशत सही है,तभी तो शादी के कई वर्षों बाद तक बेटे मां के हाथ के खाने के स्वाद व महक को भुला नहीं पाते—और पत्नियों के सामने आंखें झुकानी पडती हैं—क्योंकि पत्निओं की ्टेढी नजरों जो होती हैं?

बात आती है फूलों की महक की—उनकी भी गलियां हैं—गुजरिये उन गलियों में से और आप पाएंगे कि दसियों महको के झोंको में से एक झोंका आपको विस्मृत करता हुआ गुजर जाएगा—मुझे मोंगरा बहुत भाता है.जब भी मौका मिलता है—जब भी कहीं उसकी चांदनी में नहाई सी चार-छः पांखुरी वाली कली मि्ल जाती हैं—मुट्ठी में बांध लेती हूं—और सूंघती रहती हूं.

यह तो रही, कुछ खुशबुओं की गलियों की बात—आइये चलते उन गलियों में—उन खुशबुओं में जो नितांत आलौकिक हैं—बिलकुल अपने आस्तिव की जडें हैं-उन जडों से फूटती हैं—हमारे आस्तित्व की शाखाएं—उन पर फूटती हैं –जीवन की धूप में सरसराती हुई पांते—पांतों की बीच में से झांकती हुई—बंद कलियां जो आतुर सी खुलने के लिये—और फूल बन कर महकने के लिये—परंतु वो खुशबुएं वहां होती ही हैं—जिन से फूट कर वे भी फूटी हैं.

मां के मैले आंचल की महक—एक महक मैली होती हुई भी अपनत्व की शाखों से-मातृत्व के फूलों सी फूटती हुई!!!

कमल-कीचड की तरह ही उस आंचल के साथ वह महक जो अपनी सारी कीचड के साथ भी बस एक ही— बस एक ही!!!

सौभाग्यशाली हैं—जिनके पास है—और जो सहेजे हुए हैं?

कभी आपने भी देखा होगा—एक शिशु अपनी मां के आंचल को पकडे हुए अपने-आप को सुरक्षित महसूस करता है---आप उसे मखमल पकडवाइये—छोड देगा—मां के मलिन-आंचल के सामने.

बहुत गहराइयां हैं ये—जहां डूबा नहीं जाता—वरन, पार निकला जा सकता है—मन की ग्लानियों से—पछतावों से.

जो शब्दों में बयां ना हो सके—खुशबुओं के जरिये पहुंच जाता है—कभी-ना-कभी रूमाल की खुशबू ने भी महकाया होगा—दिल की बात है—रहने दीजिये दिल में ही.

खुशबुओं को हम ता-उम्र ढूंढते ही रहते हैं—

बहुत ही खूबसूरत खुशबुओं की गलियों से गुजर रही हूं—मैं और मेरा सबसे छोटा पोता और हम-- अक्सर खुशबुओं से ही अपनी-अपनी बात कह लेते हैं—यह राज भी उसने ही बतया—जब भी पास बैठता है—मुझे सूंघने लगता है—अम्माजी—why are u smelling like Indian?

और मेरे पास उसके प्रश्नों में छुपे उसके ही उत्तर मिल जाते हैं.

मुस्कुरा भर देती हूं.