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Wednesday, 21 January 2015

बस कुछ भी ना होना----कुछ भी असाधारण ना होना,बुद्धत्व है.


बाहर गली में दो बच्चे गुजर रहे थे---चहकते हुए,पैरों से रास्ते में पडे कंकडों को ठोकर मारते हुए.

अमरूद के पेड पर लदे अधपके फलों को चोरों की नजर डालते हुए---सहसा कुछ मेरे कानों तक आकर

रुक गया और जो सुना वह इतना मासूम था कि होठों पर मुस्कुराहठ बन कर फैल गया.

सुनिये---और सोचिये---जीवन की दालमखानी में गंभीरता का तडका कितना लगाया जाय???

एक कह रहा था----सुन,उस दिन अगर मां ना होती तो हमें तो चील ही उठा ले जाती---फिर क्या है,

चील के पेट से चिपके हम  हवा में इधर-उधर उड रहे होते---कभी किसी पेड पर रख देती तो वहीं बिलबिला

रहे होते---औेर चील का दूध  पी रहे होते.

दूसरा---बडे मनोयोग से सुन रहा था,हां में हां मिला रहा था.

क्या बानगी है झूठ की और झूठ को सच करने की.

लेकिन,आनंद तो है---इस झूठ में भी,जहां कोई चेष्ठा नहीं है झूठ को सच---झूठ को ’पाप’ में परिभाषित करने की---बस एक निश्च्छलता है---सहजता जो बगैर किसी ’बोध’ के बह रही है.

बुद्ध का वचन—--अपराध-बोध तुम्हारी छाती पर एक चट्टान की की तरह बैठ कर तुम्हें कुचल देता है,वह तुम्हें नृत्य करने की अनुमति नहीं देता है.

एक पापी उसे (आनंद को) अपराध-बोध के कारण खो देता है,संत अपने अहंकार के कारण.

हंसी बहुत तु्च्छ वह संसारिक चीज है,प्रसन्न रहना--- बहुत साधारण बात है.

आइये इस सहजता-सरलता को चरम पर पहुंचाया---झेन गुरुओं ने और इस संदर्भ में बुद्ध को लाना ही होता

है क्योंकि--

बुद्ध का धर्म एक धर्मरहित धर्म है,और झेन उसका चर्मोत्कर्ष.

झेन उसकी सुवास है.

बुद्ध में जो बीज था,झेन में वह खिल कर एक सुवास बन गया.

जीने के दो ढंग हो सकते हैं---स्वाभाविक रूप से जीना दूसरा अस्वाभाविक रूप से.

तर्क-्वितर्क एक अपरिभाषित भय को जन्म देते हैं और जीवन की स्वाभाविकता को चोट पहुंचाते हैं,उसे

नैसर्गिक नहीं रहने देते---जीवन एक अंग्रेजी उद्धान की तरह बन जाता है इतना सुव्यवस्थित कि कुरूप हो जाते हैं.

दूसरी ओर झेन का उद्धान---जहां वृक्षों की समरूपता नहीं होगी.

लेकिन यही सौंदर्य है.

एक बार एक महान सम्राट एक झेन सदगुरू से उद्धान के बारे में सीख रहा था.उसने तीन वर्ष सीखने के बाद

एक सुंदर और विशाल उद्धान बनवाया.

तीन वर्षों के बाद झेन गुरू उसे देखने आये.

सम्राट ने सभी नियम-कायदे के मुताबिक उद्धान को विकसित करवाया था.

वह पूरी तरह तर्क-वितर्क का पालन कर रहा था.

सद्गुरू आये,चारों तरफ अपनी कठोर नजरों से निरीक्षण किया,जरा भी मु्स्कुराये नहीं.

अंत में इतना ही बोले---मैंने उद्धान में एक भी सूखा पत्ता नहीं देखा.सारे सूखे पत्ते कहां चले गये?

बिना सूखे पत्तों के इतना बडा उद्धान कैसे हो सकता है.

सम्राट ने कहा---चूंकि आप यहां पधार रहे थे सो सारे सूख पत्ते यहां से हठवा दिये गये.

सद्गुरू ने कहा---अपने आदमियों से कहो---सारे सूखे पत्ते लाकर उद्धान में बिखेर दिये दें.

ऐसा ही किया गया.

सद्गुरू हंस पडे और कहा---अब ठीक है.लेकिन तुम असफल हुए.तीन वर्ष बाद फिर लौटूंगा.

जीवन भी झेन के उद्धान की नाईं होना चाहिये---स्वाभाविक---सरल—सतत---तर्क-वितर्क-विहीन.

गतिशील-ऊर्जा-आनंद---जैसे ये पंक्षी गीत गा रहे है—दूर कोयल कूक रही है---यह क्षण यहीं और अभी.

सो जो एक किस्सा यूं ही उग आया था जंगली फूल की तरह---अपनी खुशबू बिखरते हुए----और---दूर गली में विलीन हो गया---कुछ बे-वजह की हसीं दे कर---कु्छ ना सोचने के लिये कह कर.

( झेन गुरू की कहानी उद्धरि्त की गयी---सब कुछ अभी घट रहा है. ओशो—सहज जीवन से )