Tuesday, 7 September 2021

                                        

                                            बिखरे हैं-- स्वर्ग  चारों तरफ

अक्सर जीवन में बहुत कुछ,बहुत ख़ूबसूरत बंधी मुट्ठी से  यूं सरक जाता है कि,

 हम उसकी आवाज भी नहीं सुन पाते हैं--और पास फैले इन्द्राधानुष को दूर कहीं क्षितिज में, उसे  पाने की कोशिश करते रहते हैं.

क्या अपनी छट के साए में जी पाना स्वर्ग नहीं है?

क्या दो पहर सम्मान का भोजन मिला पाना स्वर्ग नहीं है?

क्या दो व्यक्तित्व अपनी,अपानी निजता को साधे हुए एक होकर जीवन यात्रा में सहयात्री हो पाएं--स्वर्ग नहीं है?

क्या,

घर में बच्चों की किलकारियां को वयस्क होता देखा पाना स्वर्ग नहीं है?

और--हम उम्र के उस पड़ाव तक पहुंच पाए हों-कि, वंश के तीसरे पायदान पर खड़े हो उनकी साज-सवांर में अपना भी योगदान दे पा रहे हों--बेशक अपनी मौजूदगी का--स्वर्ग नहीं है?

बचपन  की कुछ बेहतरीन यादें हमारे पास हों,जिन्हें याद करके हम मुस्कुरा उठे हों,जब,

कभी,स्वर्ग नहीं है ?

और--इन स्वर्गों को शब्दों में उतार पा रहे हों--स्वर्ग नहीं है?

मूल्याकन नहीं किया जा सकता--इन स्वर्गों का.


मेरी कृति, "बिखरे हैं स्वर्ग चारों तरफ"  से चुनी गईं कुछ पंक्तियाँ.













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