जैसे,मेहराबों पर,लटके बंदनवार
सिमट जाते हैं, बारात गुज़र जाने के बाद
शहनाई की उत्सवी गूंज में----यकायक
फूट पडते हैं ,मातम के बोल----
दरवाज़ों पर बिंछी,मनुहारी आंखे, सपनों के गलीचों पर
यकायक, हो जाती हैं—आंसुओं से लबालब---
जिंदगियां यूं सिमटती हैं,एक रोज़
अभी,कल ही की तो बात है—
धान से भरे कलश को,उढकाया था,मैंने
महावरी पैर के अंगूठे से----
अभी,कल ही की तो बात है—
मेंहदी से रची हथेलियों को—
चूमा था तुमने,वादों से भरी आंखो से—
अभी,कल ही की तो बात है—
कमर में,समेटा था गुच्छा चाबियों वाला
और,आशाओं से पुलकित थी,कोख मेरी
जैसे,हर दिन आई हो,सपनों की बारात,दरवाज़े पर मेरे
और,एक दिन, हाथ तुम्हारा थाम कर—
आहिस्ता-आहिस्ता,कदमों से चढ गई थी
सपनों के राजमहल की सीढियों पर,
तुम्हारे हाथ में था, नन्हे से मोजों का बंडल
और,गोद में थी,टोकरी किलकारियों की
और,तुम्हारा हाथ थामें,आंचल को संभाले
लौट आई थी,और कितने सपनों के साथ
अभी,कल ही की तो बात है---
जब,एक लट,सफेदी लिये हुए-
माथे पर आई थी झूम—
और,फिर,नये सपनों ने बढा दी पेंगे नई
आंखो में,तैरते थे सपने,नित-नये
अभी,कल की ही तो बात है-
अब,चाबी का गुच्छा,भारी-भारी सा हो रहा था,दिन-ब-दिन
और,सेहरे की ओट से,कल के सपने को देखा था,झांक कर
आंखो में थे,आंसू,होठों पर थी,मुस्कान नई—
अभी,कल ही की तो बात है—
एक बार,वर्षों बाद,फिर वही,चिर-परिचित सी
किलकारियों से भर गया था,आंगन मेरा
कहानी,जो वर्षों पहले,कह रही थी मैं,
आज,दुहराने लगी फिर से,एक बार
अभी,कल ही की तो बात है—
ना,जाने वो सपनों की लहरें तूफानी हो गईं
तुम्हारे कांधे पर रख,हाथ अपना—
कितने झंझावतों से,यूं गुज़र गई—
कि,जैसे एक तिनका आंख की कोर में
पड गया,और,फूंक से उदा दिया, तुमने उसे
अभी,कल ही की तो बात है—
पर,वही कांधे अब झुकने लगे
वही हाथ की पकड,कब ढीली पड गई
और,एक दिन,जो चाबी का गुच्छा
होने लगा था,और-और भारी सा
अब,अपने ही कदमों पर आकर गिर गया
अभी,कल की ही तो बात है—
और,एक दिन,जिस नीड के तिनके-तिनके
समेटे थे,मैने व तुमने,एक साथ मिलकर
जिस नीड में,सजाई थी चहचहाहटों की टोकरी
ना जाने कौन, उन किलकारियों को उडा कर ले गया,जाने कहां—
अभी,कल की ही तो बात है—
अब,उस नीड के बिखरे तिनकों को
बीनती रहती हूं,रात-दिन---
एक तिनका,चुन नहीं पाती हूं, कि
दूसरा जाता है------बिखर
अभी,कल की ही तो बात है—
तुम भी,अब ना जाने,इतनी दूर चले गये हो--
कोशिश करती हूं पुकारूं तुम्हें—
पर,गले में,दफ़न हो जाती है,आवाज़ मेरी—
ज़िंदगी,यूं,सिमट जाती है----एक रोज़—
समय का पहिय्या,घूमे रे भैय्या---कभी-कभी वक्त,मुठ्ठी में
बंधे रेत की तरह,यूं फिसल जाता है,कि, कोई आवाज़ भी नहीं होती,हां वही रेत,अंधड
बन,आंख में किरकिरी बन, आंखो की कोरों को घायल भी कर देता है.
दस,बीस,चालीस वर्ष,ये काल के पैमाने हैं,जो हमने ही बनाएं
हैं—
अन्यथा,वक्त,रेत भरी मुठ्ठी है, और कुछ नहीं,एक भ्रम,एक
विभ्रम एक इल्ल्यूजन है.
जीवन के सत्य का दूसरा अक्श—
खुद मत गुज़रिये—वक्त को गुज़रने दीजिए.
शान्त बैठ हम देख रहे हैं,
ReplyDeleteव्यस्त समय का आना जाना।
खुद मत गुज़रिये—वक्त को गुज़रने दीजिए ...
ReplyDeleteघूमती हुयी चीज के साथ दरअसल हम घुमते भी नहीं .. वो तो एक माया होती है जो मन में बैठ जाती है की हम चल रहे हैं ... चलचित्र की भाँती जीवन के विभिन्न आयामों कों उतार दिया है जैसे आँखों के सामने से ...
aapadhapi jeevan ki khan se chale the khan ke liye .sarthak rachna .mere blog par svagat hae .
ReplyDelete