मन के - मनके
Saturday, 11 January 2025
हम सभी बेचैन से हैं न
Monday, 12 June 2023
चिट्ठियाँ अब आती नहीं
१. चिट्ठियां अब आती नही
चिट्ठियां अब जाती नहीं
कलम से स्याही छिटक गयी , कहीं
दिलों के लफ्ज भी अब सूख गए हैं.
२. लाल डिब्बे का सुर्ख रंग
धूप में बदरंग हुआ जाता है
हर रोज " अनुमा"
पीले पोस्टकार्ड की अकड़
ढीली पड़ गयी है
नीले लिफ़ाफ़े पर
ख़त लिखने की वजह
बेवजह हो गयीं
वो हिसाबी ,किफायती नजर के पैमाने
अब रुखसत हो गए हैं
जो , कागज़ के मोड़ों पर भी
अपनी फ़िक्र अपनों के लिए लिख कर
कमजोर चश्मों में डबडबाई आँखों को
और कमजोर किये जाते थे .
३. चिट्ठी आई है , क्या
चिट्ठी लिख दी है, क्या
अब इस बात की फ़िक्र
परेशां कहाँ करती है .
बरसों की बिछड़ी
किसी बाप की चिट्ठी,
छप जाती कहीं किसी
अखबार के चौथे पन्ने पर
पर, लिखने वाले का पता,
लिखने वाले के साथ बेवजूद हो गया है.
और, पाने वाले लिखने वाले का नाम भूल गए.
४. एक तार हुआ करता था
हर घर के एक कोने में
जंग लगी कील पर लटका ,
पांच सेर के बोझ को साधे
वो बोझ था तीन, चार पीढ़ियों के प्यार का,मनुहारों का
शिकायतों का ,फटकारों का ,माफीनामों का
शादियों के निमंत्रणों का ,राखियों के भिजवाने का,पाने का
नमस्कारों का,चरन्स्पर्शों का ,आशीर्वादों का
यहाँ सब कुशल है ,आप सभी की कुशलता की कामनाओं का
और क्या लिखूं ,थोड़े को बहुत समझना ,बाकी आप सब समझदार है
और, आग्रह पत्र का उत्तर शीघ्र देना जी,प्रतीक्षा में---
आपका ,आपकी ,तुम्हारा ,तुम्हारी के ढेर सारे नाम ,उपनामों का बोझ
जहां वर्षों पुरानी चिट्ठियों में ये सब चेहरे नजर आते थे,
उनके , जो कभी हमारे बीच थे ,हमारे अपने .
धन्यवाद ,चिट्ठियों वाले तार .
Thursday, 1 June 2023
प्रेम एक सेतु है---
महान सम्राट अकबर ने भारत की एक छोटी सी लेकिन बहुत ख़ूबसूरत राजधानी
बनवाई-फ़तेह पुर सीकरी . लेकिन इस शहर का उपयोग राजधानी के रूप में
कभी नहीं हो सका क्योंकि अकबर की मृत्यु इसके बनाने से पूर्व ही हो
गयी थी .
इस नगर के निर्माण में हर छोटी से छोटी बात का ध्यान रखा गया . उन दिनों के महान वास्तुकारों व महान सदगुरुओं से विचार्विमर्ष लिए गए .
सम्राट अकबर ने उन दिनों के महान शिक्षकों से एक छोटा सा वाक्य देने को कहा जिसे उस नगर के प्रवेश द्वार पर लिखा जा सके .
फ़तेहपुर सीकरी जाने के लिए एक नदी पार करनी होती थी जिस पर बना हुआ पुल वहां ले जाता था और अकबर ने उस पुल के अंत में एक सुन्दर विशाल पुल बनवाया था जिस के प्रवेश द्वार पर सूफी संतों ने उस सुन्दर वाक्य को लिखने का सुझाव दिया .
और वह सुन्दर वाक्य ,वह सुन्दर सूक्ति थी---
जीवन एक सेतु है ,उस पर घर मत बनाओ !
प्रेम भी एक सेतु है ---- उससे होकर गुजर जाओ !
यह ख़ूबसूरत कथा ओशो के प्रवचन से ली गयी है .
धन्यवाद ओशो .
Tuesday, 9 May 2023
आइये एक कहानी कहते हैं----
मल्टीमीडिया के आने के बाद हमारे जीवन से कहानियां कहने व सुनाने का रिवाज ही लुप्त हो गया है
करीब ५,६ दशक पहले के ये किस्से हैं जो सुनाने जा रही हूँ--हममें से आज भी कई होंगे मेरे जैसे जिन्हें याद होगें वो किस्से कहानियां जो,उन्होंने सुने होंगे अपनों से ,जब घर के कामों से फुरसत हुई होगी और गर्मियों में छत पर बिस्तरों की कतारें बिछ गईं होंगी.
जाड़ों की लम्बी,लम्बी रातों में मोटी,मोटी रजाइयों में दुबके सुनते थे हम और ना जाने कब सो जाते थे ,कहानियां सुनाने वाले कहानियों में खो जाते थे.
छोटे थे बड़ों से किस्से सुना करते थे ,अब बड़े हो गए हैं , जो जीवन जिया वो ही कहानियों किस्सों जैसा लगने लगा है.
मन करता है सुनाऊँ उसी लहजे में जिस लहजे में सूना करते थे ,पर अब ना तो छतें रहीं ना ही बिस्तरों की कतारें ना ही मोटी,मोटी रजाइयां और जाड़ों की लम्बी,लम्बी रातें .
किस्से यूं कि---
जैसे किसी सुनहरे द्वीप की कहानी हो---
कि, हमारे जमाने में दो रूपए का एक सेर असली घी आ जाता था--
हमारे जमाने में दो रूपए का गाडी भर अनाज आ जाता था--
और ,इसी सन्दर्भ में कुछ किस्से तो हमने भी जिए हैं--
दस,बारह आने की एक सेर ,चीनी हम भी खरीद कर लाते थेअखबार की रद्दी से बने लिफ़ाफ़े में.
रोज दो,चार मेहमानों की थालियाँ हमने भी परोसी हैं,रसोई समेटने के बाद .
साल में आठ ,दस त्योहारों पर काढाइयां गर्म होती हमने भी देखींहैं . घर के कामगारों के लिए पकवानों के परोसे हमने भी निकाले हैं ,सम्मान के साथ .
आज परिवारों की परिभाषा ही बदल गयी है. बदल ही नहीं गयी है ,बल्कि ,चकनाचूर हो गयी है .
लगता था परिवार नहीं है रिश्तों का एक पिरामिड है--जहां,हरउम्र के रिश्ते अपनी, अपनी महक के साथ जीवंत थे .
जीवन में गति तो चाहिए परन्तु टकराहट नहीं . इससे जीवन का रस रीत जाता है .
प्रस्तुत संस्मरण मेरी पुस्तक---खुशबुएँ सूखे फूलों की से प्रस्तुत किया गया है.
धन्यवाद :
आगे भी--
Monday, 8 May 2023
नमस्कार
Saturday, 3 September 2022
नशे ,नशे में फर्क नहीं
फर्क है तो , असर नहीं
नशे,नशे में फर्क नहीं,फर्क है तो असर नहीं
नशा हो बोतल का या हो पीडाओं से जाम भरा
या ,आंसू की गर्माहट साँसों में आई उतर
या, काँधे ढलक गए ,अपनों की अनदेखी से .
या , अपनों ने हो छला पुनः पुनः
रख हाथ कंधों पर धोकों का
या , तिरिष्कार के तीर बिंधे
लहू शिराओं से रिस भर आया हो जामों में .
या, दरवाजे से विदा हुई अर्थी कोई अपने की
घर,खाली खाली हो ,भर आया हो जामों में .
यह तेरी मधुशाला है,यह मेरी मधुशाला है
कुछ ,कुछ कुछ ,कुछ भरा ,भरा .
हर कोई यहाँ पीता ह हर कोई यहाँ जीता है
कोई भर ,भर जाम झूमता ( सूफी सा)
कोई अधभारा जाम लिए राजा से रंक बना .
बस . एक गुजारिश नौसिखिये की
पी , पी , पी , बस जी भर पी कर जी .
Wednesday, 31 August 2022
नीले ,पीले ,सफेद , गुलाबी फूलों वाली घास और गुब्बारों वाले फूल
अब क्यों नज़र नहीं आते ?
खबरें आने लगीं हैं इस दशक के अंत तक हम चाँद पर बसने लगेंगे .वहां की मिट्टी पर कुछ फसलें भी उगाई जाएँगी शायद लाल पत्ते वाली , टेढ़े , मेढ़े गोभी भी उगाये जाएंगे .
खैर, विज्ञान की ललक भरी दौड़ और पहुँच बेशक कहाँ से कहाँ तक पहुंच गई है तो सोच कर विश्वास नहीं होता है--और देखकर विश्वास भी करना होता है.
मैं ,अभी अपने लिखे संसमरणों के पन्नों को टटोल रही थी और आँखों के सामने नीले ,पीले , सफ़ेद ,गुलाबी ,वाली घास बिछ गयी और स्कूल की बाउंड्री पर नीले ,नीले गुब्बारे नुमा फूल लटकते नजर आने लगे .
कब तक ऐसी हरी घास रंग बिरंगे फूलों वाली बिछ जायेगी ,चाँद की माटी पर --एक प्रश्न हमेशा ही
उग आयेगा कुकुरमुत्ते के फूल जैसा .
चलिए--इंसान अपने आस्तित्व की कोशिकाओं में खोजी जींस लेकर पैदा होता है सो खोज जारी रहेगी उसके आस्तित्व के साथ.
चार ,पांच दशक पहले तक हम प्रकृति को इस तरह आत्मसात करते थे जैसे कि वह हमारे जीने के लिए आक्सीजन हो .
आस ,पास फैली सोंधी माटी पर ना जाने कितने तरह की घास यूं ही बिछ जाती थी और उस घास पर उगे छोटे ,छोटे नीले,,पीले ,सफ़ेद ,गुलाबी फूल हमारे तलुवों को छूते रहते है.
ना जाने कितने फूलों को हम जाने अनजाने कुचलते जाते थे फिर भी ओस में भीगे वो फूल तलुवों को अपने प्यार से सिक्त करने से नहीं चूकते थे .
उन्हें कुचल जाने पर भी कोइ मलाल नहीं होता था--दूसरी सुबह उनकी जगह उतने ही फूल सुबह की कच्ची धुप में मुस्कुरा रहे होते थे .
दीवारों व पेड़ों की मोटे , मोटे तनों से लिपटी बेलों पर लदे ,फदे नीले ,नीले गुब्बारेनुमा फूल जिन्हें हम तोड़ कर गुब्बारों की तरह फुला कर फट,फट कर के फोड़ते रहते थे.
उंगलियाँ हमारी नीली ,नीली हो जाती थीं .
वो फूल अपनी स्मृतियों को हमारी उँगलियों की पोरों पर छाप जाते थे.
और वो स्मृतियाँ अभी भी मेरे पास हैं क्योंकि स्मृतियाँ तभी मरती हैं जब स्मृतियों वाली उँगलियों के वजूद मिट जाते हैं.
आज कितनों के पास होंगी वो स्मृतियाँ नीले ,नीले पोरों वाली ?
रंग ,महक ,स्व्वाद से सरोबार है आस्तिव ,लेकिन हम जीते हैं ,पत्थरों की तरह .