क्या फर्क पड़ता है---
एक शब्द जिसने बहुत 'फर्क' डाले हैं--सीधी,सादी जिन्दगी में.
सही है--फर्क पड़ता है ,लेकिन फर्क को इतना ही वजन मिले कि, जिन्दगी की रफ़्तार जिन्दगी से आगे ना निकल जाए , बाकी तो सफरनामे हैं ---चलें,
क्या फर्क पड़ता है
तुम पहुंचे वहां,और
हम यहाँ रह गए
कुछ देर बाद,
हम भी होंगे वहां
तुम, पहुंचे हो जहां.
कोइ बात नहीं,गर
किताबे-जिन्दगी के हर्फ़
पढ़े हैं,तुमने कई
हम तो बस-
कुछ लाइनों से ही
काम चला लेंगे.
कभी,कभी हमसफ़र
शुरू करते हैं ,साथ सफ़र
कोई ज़रा ठिठक कर
रह गया बीच में--
कोई लिख रहा ---
सफरनामा सफ़र का.
जिंदगियों के--
फर्क, फर्क हलफनामें हैं
कोइ लिख रहा--
इबारत-ए-जिन्दगी
किसी के नसीब में आईं हैं
दो लाइनें--फ़क्त,पढ़ने के लिए.
क्या, फर्क पड़ता है.
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आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" सोमवार 18 अक्टूबर 2021 को साझा की गयी है....
ReplyDeleteपाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
धन्यवाद
ReplyDeleteवाह!बेहतरीन!
ReplyDeleteएहसासों का सुंदर चित्रण ।
ReplyDeleteशुभ प्रभात.धन्यवाद.
ReplyDeleteअप्रतिम रचना...👌👌
ReplyDeleteसुंदर सृजन
ReplyDeleteधन्यवाद
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