Monday 2 August 2021

                                    संवेदनशीलता बनाम असंवेदनशीलता----

घटना कुछ वर्ष पूर्व की है.

मुझे एक परिवार के साथ रेल के सफ़र से अपने शहर से दूसरे शहर जाना हुआ.,जो कि कुछ सामाजिक कारण से करनी थी.

जिस परिवार के साथ यात्रा पर जाना था उस परिवार से मेरा दूर का रिश्ता भी था,चूंकि मैं उस समय अकेली थी अतः मैंने उनसे कहा कि मेरा रिजरवेशन भी अपने साथ करवा लें ताकि उनके साथ मेरी यात्रा सुविधाजनक वा सुरक्षित रहेगी. दूसरी बात हम सभी एक ही कार्यक्रम में शामिल होने के लिए जा रहे थे.

यात्रा पर हम कुल चार सदस्य थे मेरे अलावा उनके परिवार से तीन सदस्य थे,दो महिलाए  वा एक पुरुष सदस्य. वे तीनों आपस में बहन,भाई थे.

सुनिश्चित समय पर हम सभी स्टेशन पहुंच गए.कुछ देर में ही हम चारों अपने आरक्षित कम्पार्टमेंट के अपनी रिजर्व बर्थ पर सुनिश्चित हो बैठ गए.

परन्तु व्यवस्था में एक बात बड़ी असुविधाजनक थी कि, चार बर्थ में से तीन बर्थ जो हम तीनों महिलाओं की थीं इस कम्पार्टमेट में आरक्षित थीं बाकी एक बर्थ साथ वाले कम्पार्टमेंट में आरक्षित थी जो उन भद्र पुरुष की थी जो हमारे साथ यात्रा कर रहे थे और उन दो बहनों के भाई थे.

रेल विभाग की यह व्यवस्था उस परिवार को असुविधाजनक लग रही थी  अतः वे तीनों ही इसका तोड़ में सोचने लगे.

अचानक उन भद्र पुरुष की नजर सामने वाली नीचे की बर्थ पर टिक गयी जिस पर एक सज्जन पुरुष जो सन्यासी से लग रहे थे,आखें मूंदे भगवत भजन में लींन थे.

उन्हें देख कर तीनों की आखों में चमक फैल गयी.

तुरंत वे भद्र पुरुष और उन सज्जन के पास बैठ गए--आगे की भूमिका बनाने के लिए.

अधिक समय नहीं लिया उन भद्र पुरुष ने उन सज्जन  को अपनी समस्या से अवगत कराने में और साथ ही उन्हें अपने सुझाव से आश्वस्त करने में कि,वे उनकी बर्थ पर चले जाए जो कि बगल वाले कम्पार्टमेंट में  है.

उन भद्र पुरुष का आग्रह था कि चूंकि वे अकेले हैं तो कोइ फर्क नहीं पडेगा कि वे यहां बैठे या बगल वाले डिब्बे में चले जाए.

वे सज्जन सहज तैयार हो गए बगल वाले डिब्बे में जाने के लिए लेकिन एक शर्त के साथ--यदि बर्थ नीचे वाली होगी तो उन्हें कोइ आपत्ति नहीं है.

खैर,यह प्रकरण कुछ देर में ही अपनी समापन पर पहुंचने वाला था  जैसे ही भद्र पुरुष ने सज्जन पुरुष का सामान समेटा और उनकी चप्पलो को अपने हाथ से उठा कर उनके पैरों में पहना भी दी. 

  और आगे,आगे चल दिए उन सज्जन के सामान को लेकर,पीछे,पीछे वे सज्जन पुरुष घिसटते हुए चल दिए उन्हें,लग रहा था ये उनका सामान ना लेकर चल दे कहीं.

करीब १० मिनिट में वे भद्र पुरुष वापस आ गए और अपनी चादर उस खाली हुई बर्थ पर बड़ी सलीके से बिछा दी.

एक लम्बी सांस लेते हुए वे अपनी बहनों के पास आकर बैठ गए और तीनों सर से सर जोड़ कर धीमी आवाज में अपनी कुटिलता का राज फास कर रहे थे, बेहूदी खिलखिलाहट के साथ.

उन सज्जन को भद्रपुरुष अपनी ऊपर वाली सीट पर लगभग फेंक आए थे.जब वे ऊपर लटक गए तो क्या कर सकते थे,वे बेचारे निरीह मनुष्य?

उस समय तक मैं, उनकी तरफ करवट लिए हुए इस पूरे काण्ड की गवाह बनी  लेटी हुई थी .जैसे ही उस काण्ड का आख़िरी पन्ना मेरे सामने खुला,मैंने करवट बदल ली और आंखे मूंद ली.

अक्सर जब ऐसे वाकये हमारे सामने घटते हैं और घटते ही रहते हैं--हम आंखे मूंद लेते हैं.

कुछ प्रश्न खड़े थे मेरी मुंदी आखों के सामने---

१. हम इतने असंवेदनशील क्यों हो जाते हैं?

२, हम जीवन को किस  तराजू में तौलने लगे हैं,जिसके पलड़े ऊपर,नीचे हैं?

३.लाभ,हानि,जब अपनी हो तो इतनी  बड़ी  कैसे हो जाती है?

४. केवल एक बर्थ को पाने के लिए  औरअपनी सुविधा के लिए,अपने मन की आवाज को कितनी बार मारते हैं,हम सभी,क्यों?

५. हमारे साथ भी ऐसा कभी ना कभी घटित हो ही जाता है,तब क्या सोचा होगा हमने,कितना असहाय,तुच्छ पाया होगा अपने आप को?

और भी प्रश्न इंतजार कर रहे थे अपनी बारी की.

रेल चलने लगी थी,उसकेलोहे के पहिये आपस में रगड़ कर खटखटाने लगे थे और इंजन की सीटी तीखी आवाज में चीत्कार कर रही थी,उन तीनों की कुटिल खिलखिलाहट इन सब में गुम होती जा रही थी.








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