Saturday 28 February 2015

दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी


बहती चली गयी, वक्त की धारा की धार में

वर्षों की मिठास-खटास-कडुवाहटों की लहरें

और स्मृतियों की तलहटी में पडे—

अपनत्व के पाषाड-सीपियां

परिछाइयां उन चेहरों की—

जिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं

ता-उम्र---भूलने के-- बहानों को साथ लिये.

पर---होता नहीं है,ऐसा कभी

काशः---ऐसा हो जाता ???

आइये कल हुई एक घटना के साथ शुरू करती हूं—जीवन का फलसफा,जिंदगी की फिलोसफी और सिमटता हुआ आसमान,समाती हुई धरा---- मुटठी में---अपनी सारी-समूची तस्वीर को लिये कि,यहां पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की और अथाह – सागर  मुहब्बतों के---जाने कहां विलीन से हो जाते हैं कि वक्त की रेत फिसल गयी रेत सी—मुट्ठी से.

आगरा शहर—कल ताज-महोत्सव का आखिरी दिन और मैं अपनी दो परिचिताओं के साथ कुछ सस्ता सा समेटने के लिये,धूल भरी वीथियों में,बे-फिक्र, चहलकदमी करते हुए—खरीदना एक बहाना था---देखना एक शगूफा---और फैले हुए दो हाथ मेरी ओर बढते चले आ रहे थे---मैं देखकर भी देख नहीं पा रही थी—और मैं उन हाथों में समा गयी---तब देखा तो—उन हाथों के बीच कितनी यादों के सैलाब थे---जहां निरुत्तरित थे---पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की—

अथाह सागर की हिलोरों में घुल रही थी अपने सारे नमक की साथ.

पुनःश्चय:

बहुत-बहुत कुछ ऐसा होता है—हर जीवन में---शब्तातीत सा---इन शब्दों में भी बहुत कुछ कह दिया गया है---इससे अधिक शब्द नहीं हैं—मेरे पास जिन्हें लिख सकूं---हां संवेदनाएं हैं जो बह सकती हैं---!!!

आइये कुछ खूबसूरती से रू-बरू हों—जीवन को देखें स्वम के दर्पण को पोंछ कर.

प्रेम—

    फ्योदोर दोस्तोवस्की का एक पात्र कहीं कहता है: “ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मनुष्यता के प्रति मेरा प्रेम रोज बढता जाता है,लेकिन जिन मनुष्यों के साथ मैं रहता हूं उनके प्रति वह दिन-प्रति-दिन कम होता जाता है’. आह.

-----मनुषयता के प्रेम के नाम पर मनुष्यों की हत्या अतयंत निर्दोष  मन से जो की जा सकती है----मित्रों,मैं मनुष्यता से प्रेम करने जैसी थोथी और पोच और हवाई बातें आपसे नहीं करना चाहता हूं.

    यदि मैं अकेला प्रेम-पूर्ण ना हो सकूं,यदि मैं उसी एक व्यक्ति के साथ प्रेम-पूर्ण हो सकूं जिसे प्रेम करता हूं,तो मैं अभी परिपक्व नहीं हुआ.तब प्रेम-पूर्ण होने के लिये मैं किसी पर आश्रित हूं. (सुंदर-अदभुत-अतुलनीय )

मौन-दर्पण-मैं और तुम----

               तुम तो वह हो जो इन सबका साक्षी है----चाहे वह शून्य हो,कि आनंद हो,कि मौन हो----कुछ नहीं बचता—ना शून्य,कि ना आनंद,कि ना मौन.

दर्पण---रिक्त हो गया.

अनुग्रह---

             क्यों? क्योंकि हो तब तो अनुग्रह समझ में आता है कि मुझे कुछ हुआ है,तो मैं धन्यवाद दूं----अन्यथा वह भी अहंकार है.

यात्रा-आनंद----

              

        यात्रा का आनंद लो और मार्ग में वृक्षों,पर्वतों,सरिताओं,सूर्य,चांद और तारों के जो दृश्य आएं उनका भी आनंद लो----जब दृष्टा ही दृश्य बन जाता है,जब ग्याता ही ग्यात हो जाता है----तो घर पहुंचा.

साधक-मंदिर-भगवान----

          साहसी साधक को सभी अनुभव पीछे छोड देने होंगे,----और वह अपने ही एकाकीपन में बच जाता है---तो कोई आनंद इससे बडा नहीं है—कोई सत्य इससे सत्यतर नहीं है---तुम उसमें प्रवेश कर गये-----तुम एक भगवान हो गये.

(साभार संकलित ध्यानयोग से---ओशो )

       

Wednesday 25 February 2015

सुख का सूरज---


आइये जीवन की शुरूआत करें---नित-नये सूरज से.

परंपरागत शुभ-आरम्भ ईश-वंदना से ही होनी चाहिये सो लेखक-कवि श्री शास्त्री जी इस परम्परा का निर्भाय बखूबी करते ही हैं---तुम बिन सूना मेरा आंगन,बाट जोहता द्वार---मेरी वंदन स्वीकार करो—एक नम्र निवेदन---लेखन या कोई भी रचनात्मक कार्य सरस्वती की कृपा के पूरा नहीं होता.

मेरी एक छोटी सी कोशिश—कि ’सुख का सूरज’ काव्य-संग्रह को जिसे श्री शास्त्री जी ने अपनी बहुमुखी भावनाओं एंव वृहद संवेदनशीलता से सजाया है---उसे-- विषय-अनुरूप बांध सकूं.

ऐसा करने में मेरी आंकाक्षा यह कतयी नहीं है कि उनकी इस काव्य-प्रतिभा का आंकलन करूं वरन—उनके वृहद अनुभव व काव्य-प्रतिभा से कुछ सीख सकूं---और लेखन के जगत में कुछ और बेहतर कर सकूं—उनके मार्गदर्शन का अनुसरण कर सकूं.

सरस्वती वंदना के साथ-साथ जीवन के बेहतरीन मूल्यों को कवि ने अपने काव्य-संग्रह में भर- पूर उकेरा है---हमें संस्कार प्यारे हैं---कहते हैं संस्कार-विहीन मनुष्य पशुवत होता है.

सो—तुम अपने पास रखो यह नंगी सभ्यता—यह कह कर उन्होंने अपनी संसकृति को सम्मानित किया है.

प्यार के बिना यह जीवन अधूरा ही रहता है—यह अटूट सत्य है.

प्यार एक ऐसा इंद्र धनुष—जिसकी सतरंगी छटा ना हो तो जीवन रूपी-फूल कुम्हला जाय--.

ंमोक्ष साधने के लिये—सच्चा प्रेमी वही जिसको लागी-लगन,प्रीति की पोथियों को बांचने के लिये---ढायी आखर ही चाहिये---प्यार को सजाने के लिये ऊंचा चरित्र भी जरूरी है---प्यार एक धरोहर है---जिसे सजाना भी जरूरी है और सभांलना भी---यह कांच का दर्पण है---???

सच्चा-सच्चा प्यार कीजिये---सीमायें मत पार कीजिये---हर सम्बन्ध की एक मर्यादा होनी ही चाहिये---बम्धन और मर्यादा में केवल एक सांस का अंतर हैं जिसे समझने के लिये संवेदन्शीलता ही सटीक पैमाना है.

संबन्ध आज सारे,व्यापार हो गये---अक्सर ऐसा ही हो रहा आज—तभी तो जीवन में इतना भटकाव है.

याद किसी की आती है—्प्रेम-विछोभ  एक ही फूल के दो रंग हैं जहां प्रीति होती, वहां विछोभ की पी्डा भी होगी---तभी तो मीरा, मीरा हो सकीं ---राधा की एक परम्परा भी कायम हो सकी.

प्यार की बानगी देखिये---अपना माना है जब तुमको----यदि साथ निभाओ तो,मैं अमृत भी पी सकता हूं---साथ जो हो तेरा विष भी अमृत हो जाय---वाह!

जब साथ ना हो तेरा---सब कुछ वीराना लगता है---अमृत-पान भी विष-पान हो जाता है.

एक ऐसा साथ जरूरी है जीने के लिये---कि खुद का जीना हो जाय.

गीत गाते रहो,गुनगुनाते रहो,एक दिन मीत संसार हो जायेगा---प्यार से छूलो तो कायनात भी हमारी हो जाती है.

जिंदगी के जख्म सारे भर गये,प्यार करने का जमाना आ गया---हसरतें छूने लगी आकाश को,पत्थरों को गीत गाना आ गया---खबसूरत भावों को खूबसूरत शब्दों में पिरोया गया है.

देश ना हो तो---प्यार-व्यार की बातें निर्थक हो जाती हैं.

सो कवि-हृदय देश के प्रति भी पूरी तरह सजग हैं---ऐसा देश चाहिये,जहां ग्यान की गंगा बहती हो,खेतों में खुशहाली हो,मजदूर के हाथों में ताकत हो,घर-घर में खुशियों की दीपशिखाएं जलती हों,इंसानियत की हवाएं बहती हों.

कौन राक्षस चाट रहा---कभी-कभी देश में फैली अव्यवस्थाओं से भी कवि-हृदय द्रवित हो उठता है.

देश में व्याप्त हिंसा के प्रति भी कवि जागरूक एंव चिंतित हैं.

देश में फैली स्वार्थ की राजनीति के प्रति भी कवि का मन चिंतित है.

कभी-कभी कवि-हृदय शंकालू भी हो जाता देश के हित के प्रति.

इतना सब होते हुए भी कवि-हृदय ने आशा को नहीं त्यागा है---निराशाएं आती-जाती रहती हैं---विनाश के साथ-साथ विकास का सूरज भी उदित होता ही है—सो प्रकृति की छांव तले उनका भावों का संसार विश्रांति पाता है---बसंत का आगमन नव-जीवन का संदेश लेकर आ रहा है---मधुमास आने को है—आशाओं के बीज फिर पल्लवित होगें ही---कुहरे के उस पार से सूरज निकलेगा ही---प्रकृति का नियम यही है---दे रहा मधुमास दस्तक.

कभी-कभी उम्र के पडाव भी भयभीत कर जाते हैं---स्वाभाविक है,परम्तु जीवन भी नित-नव-निर्माण का ही नाम है---सो कवि-हृदय जीवन-रूपी नाव लिये---आशा-निराशाओं की लहरों पर—अपने भावों की यात्रा करते आगे बहते चले जाते हैं---भावों की लय को शब्दों के तारों पर छेडते हुए---नव-गीत गुनगुनाते हुए.

आइये हम भी उनके साथ जीव-गीत गुनगुना लें

छोटे मुंह बडी बात—मेरी यह कोशिश हो सकती है.क्षमा प्रार्थी हूं.


(प्रस्तुतीकरण—श्री माननीय रूपचन्द्र शास्त्री ’मयंक’ के द्वारा रचित काव्य-संग्रह ’सुख का सूरज’ पर आधारित है.)


Friday 20 February 2015

जो भी व्यक्ति----


जो भी व्यक्ति----

१.जो भी व्यक्ति प्रसिद्धि और सफलता के नशे से मुक्त होकर साधारण लोगों की भीड में खो जाता है वही व्यक्ति सभी की दृष्टि से दूर ’ताओ’ प्रपात की भांति कल-कल करता हुआ बहेगा.

२.ताओ को जानने वाला व्यक्ति जहां कहीं भी रहता है---वह परम शांति और सहजता से रहता है.

३.केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति नर्क को स्वर्ग में बदल सकता है.

आइये-- -कुछ सरल-सीधी-सच्ची सी बात करें---कुछ देर ठहर जायं--- कुछ देर कुछ ना करें???

मन की चाल को अपनी ही चालबाजी से परास्त करें???

आएं ’ताओ’ को पुनर्जीवित करें.

ओशो—पूरा संसार ही अनावश्यक कार्यों में जुटा हुआ है-----५०% कारखाने वस्तुतः स्त्रियों शरीर के लिये नये-नये परिधान बनाने में जुटे हुए हैं---और प्रसाधन सामग्री बनाने में व्यस्त हैं.

५०% कारखाने व्यर्थ की चीजें बनाने में लगे हुए हैं जबकि मनुष्यता भोजन के आभाव में मर रही है.

चंद्रमा पर पहुंचना पूरी तरह गैरजरूरी है.(मैं पूरी तरह सहमत हूं )

पूरी तरह से बेवकूफी है----युद्ध पूरी तरह से अनावश्यक हैं----लेकिन मनुष्यता पागल है.

केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति नर्क को स्वर्ग में बदल सकता है---

इस सत्य को कहते हैं एक कहानी के माध्यम से---जो ओशो ने इस तरह कही---

(कहानी तो ओशो ने कही—लेकिन मैं उसे कुछ कांट-छांट कर कहने का दुःसाहसन कर रही हूं-क्षमाप्रार्थी हूं)

एक चर्च का एक पादरी मरने के बाद जब स्वर्ग पहुंचा तो वहां के राजसी ठाठ-बाट देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया.

किसी भी चीज की इच्छा मात्र से उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती.

एक-दो दिन तो सब कुछ ठीक रहा.अगले दिन से उसे कुछ असुविधा होने लगी.

वह धर्म पुरोहित बैचेन होने लगा.मरने के पहले वह बहुत सक्रिय था.आराम भी कितना किया जा सकता है.देर-अबेर छुट्टी का अंत होना ही था.

अचानक एक सेवक हाजिर हुआ---उसने पादरी को बहुत बैचैन देखा.

पूछा कि आखिर आप चाहते क्या हैं?

पादरी ने कहा—मैं हमेशा-हमेशा खाली तो नहीं रह सकता मुझे कुछ करने के लिये चाहिये.

सेवक ने उत्तर दिया---यह तो ना-मुमकिन है.

पादरी क्रोधित हो कर बोला--- यह किस प्रकार का स्वर्ग है?

सेवक ने उत्तर दिया—कौन कहता है यह स्वर्ग है यह तो नर्क है.

ओशो—तुम्हें व्यस्त रखने के लिये तुम्हारे पागलपन के लिये तुम्हें अनावश्यक चीजों की जरूरत होती है इसलिये चंद्रमा भी पर्याप्त नहीं है----हम मंगल ग्रह को खोदने जा ही रहे हैं.

ताओ को जानने वाला व्यक्ति---अपने -आप में आंनदित होता है,उसकी सक्रियता भी निष्क्रियता जैसी ही होती है.

केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति ही नर्क को स्वर्ग बना सकता है.

पुनःश्चय:

इस कहानी को कहने का मेरा आशय यह कतई नहीं है—कि हम कर्म-योग को त्याग दें---और चार्वाकीय प्रवृति में लिप्त हो जांय?

वरन---कभी-कभी कुछ करने में से कुछ ना करने को भी खोजें ताकि खुद को खोज सकें

(साभार संकलित—संसार और मार्ग—ताओ-पथ—क्षण-क्षण भरपूर जीवन—उद्धरित ओशो के प्रवचनों से)

                                          

 

 

Thursday 12 February 2015

मनुष्य के प्राण आतुर हैं---


अमेरिका के मनोवैग्यानिकों ने हिसाब लगाया है कि न्यूयार्क जैसे नगर में केवल १८% लोग स्वस्थ कहे जा सकते हैं ( यह आंकडा उस समय का जब ओशो द्वारा दिये गये प्रवचनों में यह बात कही गयी थी जो अब मौलिक रूप से यह संकलित है उनकी सर्वाधिक चर्चित पुस्तक ’संभोग से समाधि’ में )

यह सम्भावना है कि आने वाले सौ वर्षों में पूरी मनवता ही विक्षिप्त हो जाय और फिर हमें पागलखानों की जरूरत ही ना रहेगी क्योंकि कौन पागल है—यह पहचान कैसे होगी कि कौन पागल है?

अशांत आदमी इसलिये अशांत है क्योंकि वह अशांति में जन्मता है---इसलिये बुद्ध हार गये,महावीर हार गये क्राइस्ट हार गये---भले ही हम शिष्ट्टतापूर्ण यह ना कह पाएं.

पिछले महायुद्ध में तीन करोड लोगों की हत्या की गयी—उसके बाद प्रेम और शांति की बात करने के बाद दूसरे महायुद्ध में हमने सात करोड लोगों की हत्या की----शांति चाहिये---शांति चाहिये  और अब हम तीसरे महायुद्ध की तैयारी में जुटे हुएं हैं.

आइंस्टाइन से एक बार किसी ने पूछा कि तीसरे महयुद्ध में क्या होगा?

उनका जवाब था---तीसरे महायुद्ध के बारे में तो मैं कुछ नहीं कह सकता परंतु चौथा युद्ध कभी होगा ही नहीं.

करण यह ही है—मनुष्य के जन्म की प्रक्रिया बेहूदी है,एब्सर्ड है. (ओशो)

आइये---कुछ पंक्तियों को मैने चुना है या कोशिश की है कि ’प्रेम’ को कह सकूं—ओशो के माध्यम से---क्योंकि आज इस शब्द को लेकर हमारे मनों जो उथल-पुथल और भ्रांतियां भूचाल पैदा किये ही रहती हैं और हम प्रेम में हो कर भी प्रेममय नहीं हो पाते हैं और कुछ होना चहिये और कुछ हो जाता रहा है---विशे्ष रूप से आज की युवा पीढी इसी नासमझी के कारण भटक रही है,शोषित हो रही है और शनेः शनेः गर्त में जा रही है---जो एक मानवीय त्रासदी है.

ओशो अपनी इस बात को---एक महान सत्य को एक बहुत ही साधारण कहानी से यूं शुरू करते हैं---यह कहानी बहुचर्चित कहानी है---कि यह धनुष किसने तोडा?

एक किसी पाठशाला में महानिरीक्षक आये और एक कक्षा में निरीक्षण के लिये प्रवेष किया और बच्चों से एक सीधा-सादा प्रश्न पूछा—शिव का धनुष किसने तोडा?

एक बच्चे ने हाथ उ्ठाया—मैंने नहीं तोडा क्योंकि मै तो १५ दिन से अवकाश पर था.

निरीक्षक ने शिक्षक की तरफ देखा---शिक्षक ने बेंत उठाते हुए कहा कि श्रीमान इसी ने ही तोडा होगा—पाठशाला में टूटी हुई १०० वस्तुओं में से ९९ यही तोडता है.

निरीक्षक बडा हैरान सो वह प्रधानापध्याक के पास गये---और घटना वयान की.

परंतु उनके आश्चर्य की सीमा नहीं रही जब उन्होंने भी इस मामले को यूं कह रफा-दफा करने की कोशिश की कि बात आगे बढाने से कोई फायदा नहीं है---हम एक नया धनुष रखवा देंगे.

बात यहां ही समाप्त नहीं हो जाती.

निरीक्षक किस मुगालते में थे और बात कहां तक आकर रुकी???

मनुष्य की सामान्य कमजोरी इसी कहानी में प्रगट होती है---कि वह अपने अग्यान को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकता.हम कुछ जाने ना जाने लेकिन जानने की घोषणा अवश्य करते हैं.

यही बात ’प्रेम’ के बाबत भी लागू होती है.

हम एक कार को ब-खूबी चला लेते हैं परम्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके इंजन के बारे में भी ब-खूबी जानते हों.

और हम जीवन जीते तो हैं---लेकिन उसके विषय में कुछ भी नहीं जानते.

अनुभव से ्गुजर जाना पर्याप्त नहीं जानने के लिये.

ओशो—और मैं आपसे कहना चाहता हूं कि जीवन में और जगत में प्रेम (काम—ऊर्धगामी हो कर प्रेम में पर्वर्तित होता है) से बडा ना कोई रहस्य है और ना ही कोई और अंतिम सत्य.

इसलिे जीवन के इन दो महान सत्य (क्षमा करें सत्य तो केवल एक ही है???) के प्रति दुर्भाव को त्यागें.

ओशो—समझने के लिये,बोधपूर्ण जीने के लिये,मेरी अपनी यह धारणा है कि महावीर या बुद्ध या क्राइस्ट आक्स्मिक रूप से पैदा नहीम हो जाते यह उन दो व्यक्तियों के परिपूर्ण ्व्यक्तियों के पूर्ण मिलन का परिणाम है.

मनुष्य के प्राण आतुर हैं ऊंचाइयों को छूने के लिये,आकाश में उठ जाने के लिये,-----आदमी की आत्मा रोती है और प्यासी है---और आदमी कोल्हू के बैल की तरह उस चक्कर में घूमता है--- उसी में समाप्त हो जाता है----क्या कारण है?

अंत में मैं कह देता हूं—सत्य से आंख चुराने वाले मनुष्य के शत्रु हैं.  (ओशो)

( आज की नई पीढी ही नहीं वरन प्रो्ढ पीढी भी भ्रमित है---इस सत्य के प्रति कि इस जीवन का आाधार-बिंदु एक ऊर्जा है जिसे हम ’काम’ ऊर्जा के नाम से जानते तो हैं लेकिन ठीक उसी तरह जैसे एक कार का चलाना---लेकिन कार चलाना स्वीकार तो कर लेते हैं इसे हम स्वीकार भी नहीं करते---और इससे मुंह छुपाने की प्रवर्ति ने मानवीय जीवन को नार्कीय बना ही दिया है. आज के संदर्भ में इस विषय पर ओशो की विचार-प्रपंचा जानने योग्य ही नहीं है वरन मानने योग्य भी है ताकि समाज में व्याप्त नार्कीय विस्फोटों को हम शांत कर सकें और इस नकारात्मक ऊर्जा को सही दिशा दे सकें---  ताकि आज की युवा-ऊर्जा सकारात्मक हो मानवता को सुंदर,सुगंधित व जीने योग्य बना सके और स्वम भी परिपूर्ण हो सके.

उपरोक्त शब्द,विचार व सत्य को छूती हुईं पंक्तियां उद्धरित की गयीं---संभोग से समाधि—से.)

पुनःश्चय:

१४ फरवरी वेंलनटाइन-दिवस के रूप में मनाने का प्रचलन जोरों पर है---और यह हमारे ग्रामींण क्षेत्रों में भी पैर पसार रहा है---बुरा नहीं है समय के साथ अपने-आप को व्यक्त करने के तरीके भी बदलते ही हैं—प्रेम का इजहार हमेशा ही होता रहा है---एक सत्य जो साश्वत है---परम्तु इस सत्य की खूबसूरती को विकृत ना किया जाय---ऐसा मेरा मानना है—इसे जाने,समझे और इसकी गरिमा को अपने प्रेम से सींचे जरूर ताकि अपने को पूर्ण कर सकें---इसे स्वीकारें इसकी पीडा के साथ भी---गुलाब के फूल कांटों के साथ ही होते हैं---देसी गुलाब—सत्य भी देसी ही होता है---उसको बगैर कांटों के जाना नहीं जा सकता.

मेरी सभी युवा-पीढी को शुभकामनाएं---वेंलनटाइन-दिवस की.

मन के-मनके

 

 


                                          






Thursday 5 February 2015

नव-निर्माण अब होने को है.


पथ के शूल-फूल               

मौसम बदल रहा है---गर्मी की तपस धीरे-धीरे शांत होने लगी है,जैसे तपती आंच---ताप से ठंडी पडने  लगती है---हर दिन---दिन चढता है और शाम की चादर ओढ कभी तारों की छांव तले तो कभी यूं ही कालिमा लपेटे अपनी बांहों पर सिर टिका लेता है---कोई हल-चल नहीं कोई करवट नहीं---और कब आंखे खोल---हवाओं की अंगडाई ले उठ चल देता है---बीता दिन कांधों पर से उतार कर---वही नारंगियत,वही कलरव,वही जीवन, नव-जीवन---पुराना शब्दकोष कहीं खो सा गया है---

होली गयी,दीवाली आगयी---दीवाली आ गयी,होली गयी जैसे कोई गज़ल हो----और वो गुनगुना रहा है---

बस,अभी-अभी कागजों को समेट रही थी---कुछ कतरनों को तरीके से लगाने की कोशिश में—

कुछ कांटे,कुछ फूल हाथ लग गये---सोचा कि,डस्ट्बिन में फेंक दूं?

कभी-कभी कचरे में बहुत ही सुंदर चीजें मिल जाती हैं और दुबारा घर में लौट आती हैं.

इतना ही नहीं पहले से अधिक खूबसूरत भी हो जाती हैं.

कभी हम भी अपने को शीशे में निहारते हैं तो---लगता है—कुछ बदला-बदला सा है,कुछ खूबसूरत हो रहा है.

जिंदगी---खूबसूरती के अलावा कुछ भी नहीं है.

बद्सूरती—मौत है.

इसी संदर्भ में---

शायद---जीवन में होने वाली हर स्थिति की तरह मौन और संवाद की सीमा भी जरूरी है.

जिंदगी बर्फ़ नहीं होती कि पिघली और खत्म,खुद ही बाहर आना होता है.

याद आ रहीं हैं बेहद खूबसूरत लाइनें---बेहद खूबसूरत गज़ल और बेहद खूबसूरत आवाज में—

जगजीत सिंह साहिब ने गज़ल को नहीं गाया है---जिंदगी को गाया है---

ये दु्निया---मिल जाय तो,मिट्टी है

खो जाय तो सोना है???

गर्मी के दिन आ गये हैं----होली गुजरते-गुजरते सृष्टि कृति में रमने लगती है.

पतझड की ओट में---कल विदा होने लगते हैं---धीरे-धीरे.

कुछ हवा के झोंकों में इधर-उधर चले जाते हैं.

कुछ  स्वीकार-भाव में समर्पित हो,धरा की गोद में सिमट जाते हैं---जहां से वे विदा हुए थे वहां से सृजन की कोपलें फूटने लगती हैं.

धीरे-धीरे,सुबह हर दिन एक नये सूरज के साथ इंद्रधनुषी स्नान में लीन हो जाती है और बारिशों की फुहारें रिक्त को सिक्त कर हवा में झूमने लगती हैं---यहां भी कोई चुन्नी की ओट में मुस्कुराहटें भीगने लगती हैं---कहीं राहों के बेजुबान गढ्ढे लबालब हो राह चलते को बे-राह करने लगते हैं---कहीं नाले-नलियां राह ही रोक देती हैं—कहीं छातों से धूले झडने लगती हैं---तो कहीं कागज की नावें----अब नहीं दिखते ये नजारे,जब मास्टरजी की हिदायतें नावों में रख---पनारों में बह जाती थीं---कोई फिक्र नहीं---किसी खास मुकाम की चाहत भी नहीं---बस अगली साल नया बस्ता और नई किताबों पर नाम और नई कक्षा की लिखावट ही खाफी थी.

यूं भी अब कोई-कहां पहुंचता है?

हां,बरसाती छते अब कहां---जो हर-बरस टपकती थी---हर-बरस मरम्मत के बावजूद.

चुल्हों की आग---नहीं---आंच(खुद कह कर सुनिये---दोनों शब्दों के कहने में फर्क है---जैसे मां का थप्पड या मां का प्यार.शब्दों की ध्वनियां अपने अर्थों को बोलती हैं.)

किसानों की आस तो कभी बे-आस.

चलिये धीरे-धीरे मौसम भी सरक जाता है---और---हर दिन कभी कोई जयंतियां कभी कोई पुन्यतिथी---और मेरे घर के पिछवाडे स्कूल की खिडकियों से झांकती मासूम,शरारती---उम्र पहले प्रोढ हुई आंखों में व अक्सर क्लासों मे गैहाजिर शिक्षकों के कारण---विक्षिप्तीय आवाजों से जान लेती हूं---कि—

और---दशहरा-दीवाली आते तो हैं---लेकिन कागजी महक लिये---पैसों की आग की जलन के साथ---एक होढ लिये---पैसों को फूंकने की.

खैर वख्त बदलता ही है.

वख्त वही है---हम और हमारी फितरत बदलती है---क्या किया जा सकता है???

कभी जगजीत सिंह जी को गुनगुना कर देखिये---

ये दुनिया क्या है—

मिल जाय तो मिट्टी है

खो जाय तो सोना है.

(क्षमा करें यदि गजल के बोल बे-डोल हो गये हों)

कल ही अपनी एक मित्र या यूं कहें कि---क्या कहें?

कुछ रिश्ते इतने उनकहे-अनछुए होते हैं कि उन्हें नाम नहीं दिया जा सकता----हां औपचारिक नामों से आवश्य पहचाना जा सकता है---के यहां ठहरी हुई थी---दिन अब मां की गोद की नाईं भरकने लगे हैं---अलसाई से,खुशनुमा भी---सुबह की खुशनुमा गरम-गरम भपयाती चाय और अमरूद के पेड की कच्चे अमरूदों वाली सुबह-सुबह की बयार---

स्वर्ग किसे कहें---नर्क की जमीन कैसी होती है----मेरे ख्याल से जानने की जरूरत नहीं है--- क्योंकि विडंबना यही है कि वहां जीते-जी जाया नहीं जा सकता और क्या गारंटी है कि हम वहां पहुंचंते भी हैं???

सो, मेरा स्वर्ग मेरे साथ ही रहता है—मेरे पर्स की किसी एक जेब में----जब चाहा निकाल लिया और सूंघ लिया और वापस पर्स की जेब में सहेज कर रख लिया.

बिखरे हैं स्वर्ग---चारों तरफ----इसी सिलसिले में कुछ पंक्तियां पेश हैं,मुलाहिज़ा फरमाइये---

                   नव-बसंत आने को है---

(जो) अभी-अभी विदा हुए कोहरे

कोहरों के हिमपात बने

(सब) राहों के छोर बने

सरसों के खेत---

नव-बसंत आने को है

(जो) भीगे पंख लिये

कतारें विहगों की

ओढे चादर ’अनिश्चताओं’ की

बिजली के घाती-तारों पर

उतर आईं हैं—नीचे

नव-बसंत आने को है

(जो) सूरज रूठे से आते थे

ड्यो्ढी पर कम ही लाते थे

सौगातें जीवन की,पर

(जो) कंबल, प्रेमी थे रातों के

अब चुभते-चुभते से लगते हैं

अब मटमैले से हुए—

शाल-दुशाले भी

नव-बसंत आने को है

गोदी से चिपकी---

नवजात लहू की धारें भी

हो रहीं अन-मनी

व्याकुल हैं दूर छिटकने को

नव-बसंत आने को है

धीरे-धीरे कोंपलें फूटेंगी

डाली भी फिर—

झूमरों सी झूमेंगी

परवाजें भी-----

बिजली के तारों को छोड   

परवाजी हो जाएंगी

नव-बसंत आने को है

पेडों की खो में दुबकी

चंचला, धारी वाली

निकल आईं हैं बाहर

नन्हें हाथों को जोड

करने सूर्य-नमस्कार

नव-बसंत आने को है

तोते भी और हरे हो गये

मधुर हो गई गुटरगूं

मधुर हो गई

तैयारी पूरी-पूरी है

नव-जीवन की पहल हो रही

डालियां भी रीत रहीं

नये पात के स्वागत में

वीत-राग अब थमने को है

नव-बसंत अब आने को है

नव-निर्माण अब होने को है.