Wednesday 30 September 2020

 प्रारब्ध :

गंतव्य से आगे---

इतिहास के उपरोक्त विवरण  को पढ़ कर,अनायास ही मन में कई प्रश्न उठने लगते हैं--

कि, सम्राट अशोक के पास इतना विशाल सम्राज होते हुए भी उन्होंने कलिंगा परआक्रमण क्यों किया?

कि,वे मानव जीवन के भयंकर नरसंहार के कारण क्यों बने ?

इन प्रश्नों को यदि गहनता से विचारा जाए,तो--

एक उत्तर सामने खडा हो जाता है--

कि, मनुष्य को कर्मयोगी होना ही होता है,अपने बोये हुए बीजों को फलित करने के लिए.

उसके संचित कर्म वा उनके परिणाम अनेक जन्मों की प्रक्रिया से होकर गुजरते हैं जब तक कि,संचिता कर्म उसे परम मुक्ति की  ना ले जाऍऔर वह परम में विलीन हो मुक्त हो सके. 

प्रश्न दूसरा---

यदि मुक्त  होना ही  परम से परमात्मा तक की यात्रा है तो नरसंहार  क्यों---?

नरसंहार का कारण बनाने के बजाय,वे मानव उत्थान की ओर अग्रसर क्यों नहीं हुए?

प्रश्नऔर भी कुरेदे जा सकते हैं और उनके अनेक उत्तर भी गढ़े जा सकते हैं.

जीवन की विवेचना वा जीवन के   प्रयोजन को समझने के लिये,हम वर्तमान को देखकर ही जीवन की

संपूर्णता को नहीं समझ सकते.

जीवनधारा केवल उतनी ही नहीं है ,जितनी हमें दिखाई देती है.

किसी भी नदी के तट पर खड़े होकर हम उसकी धारा को उतना ही देख पाते हैं,जितनी हमारी नजार उसे देख पाने में सक्षम है.

लेकिन,

 इसका अर्थ यह तो नहीं हुआ कि, नदी का विस्तार भी उतना है, जितना हम उसे देख पा रहे हैं.

कहां जीवन रूपी नदी का उद्गम है, कहां ,किस अगत्य महासागर में उसे विलीन होना है,और क्यों---

इन अगत्य प्रश्नों के उत्तर हमारे पास कभी नहीं होंगे---

क्योंकि, हमारी ऐन्द्रिअक क्षमता को एक सीमित परिधि में सीमित किया गया है---

ताकि, जीव ,जीवन कीअनंत धाराओं से होते हुए अपने कार्मिक चक्रव्यूह से निकल


सके और जीवन के उद्गम में विलीन हो जाए,पुनः एक और धारा का प्रवाह होने के लिए.

आगे की कड़ी को अगली पोस्ट में जोड़ने का प्रयत्न करूंगी.




 







Monday 28 September 2020

 प्रारब्ध:

गंतव्य से आगे--

कलिंगा पर आक्रमण मानव संहार की पराकाष्ठा की  परिणिति में हुई.

निःसंदेह कोई भी होता वह विचिलित हुए ना रहता,सो ,चक्रवर्ती सम्राट अशोक भी एक मानव के रूप में इस धरती पर जन्में थे,सो वे भी विचलित हुए.

और, पराकाष्ठा हुई ,उनके मोहभंग में.

जीवन के प्रति नहीं वरन जीवन के मोहजाल के प्रति!

और, वे भगवान बुद्ध की शरण में चले गए.

जाना ही था!

औरअशोक को ही जाना था.

क्योंकि,

प्रारब्ध ने अशोक को ही चुनना था.

अशोक का प्रारब्ध,अशोक को लेकर उस पथ पर चल पडा था,जहां से बुद्धत्व की शाखाए इस धरती पर फैलनी थीं ताकि,क्लात,थके मानव को ठंडी छांव मिल सके.

बुद्ध की शरण में जाकर अशोक ने भगवान के संदेशों को संसार के सुदूर पूर्व,पश्चिम व दक्षिण  के देशों तक पहुंचाया.

अशोक के इस कार्य को आगे उनके पुत्र महेंद्र वा पुत्री संघमित्रा ने अपने जीवन को बुद्धतत्व के वट वृक्ष की जड़ों कोसिंचित करने में लगा दिया.

इतिहास की पुस्तकों मेंअशोक के जीवन के  अंतिम दिनों के विषय में कुछ विशेष विवरण नहीं मिलता है,निःसंदेह

अशोक बोद्ध विक्षु हो गए होंगे!

बुद्धा की शरण में जाने के पश्चात जब,जब सम्राट अशोक का उल्लेख किया गया ,मैंने उनके नाम के आगे उल्लेखित

सभी विशेषणों को हटा दिया है.जब मानव मुक्त होता है तो सर्वप्रथम उसे सभी अलंकारों से मुक्त होना होता है,चाहे वे स्वर्ण के हों,पद के हों या प्रतिष्ठा के.

अभी मेरी बात


जारी है,अगली पोस्ट में पूरी करने का प्रयत्न करूंगी.




 





Thursday 24 September 2020

 प्रारब्ध :

आगे---

ये जीवन यात्राएं एक गंतव्य से प्रारम्भ होकर पहुंच कहां जाती हैं,यही जीवन का रहस्य है,जीवन का सत्य है,जीवन का दर्शन भी.

कभी,कभी लगता है,हम इस अपराध के दोषी हैं ,लेकिन कभी, कभी परिस्थियां हमसे वो करवा लेती हैं जिसे कभी विचारा भी नहीं जा सकता.

मैं, जीवन  धाराओं को 'प्रारब्ध' की परिकल्पना की अवधारणा में बांध कर देखती  हू.

जब कभी इतिहास के झरोके में झांका जाय तो अक्सर इस प्रारब्ध परिछाई स्पष्ट दिखाई देती है.

एक उधाहरण लेकर इसा बात को आगे बढाया जा सकता है---

चक्रवर्ती सम्राट अशोक का साम्राज्य भारत के सुदूर उत्तर से लेकर,मध्यभारत तक फैला हुआ था.

सम्पूर्ण राज्य समृध व उन्नति की औरअग्रसर था, जैसा की इतिहास की पुस्तकों में पढ़ा करते थे.

ऐसा क्या कारण था---

सम्राट अशोक को कलिंग प्रदेश पर आक्रमण करना पडा ?

भयंकर नरसंहार के वे कारण बने?

प्रारब्ध--

उन्हें उस दिशा की और लेकर चल निकला था जहां से बुध्तत्व की यात्रा प्रारम्भ होनी थी!

गंतव्य सेआगे, अगली पोस्ट में---











Friday 18 September 2020

 प्रारब्ध---

कल अचानक सोने से पहले एक विचार मास्तिष्क में बहने लगा ---

एक शक्ति, एक प्रोग्राम है, हम सब की जीवन दिशा निर्धारित करने के लिए.

आस-पास बहती जीवन धाराएं किस बहाव की ओर बह रही हैं,हर धारा पूर्व नियोजित कार्यक्रम में बंधी सी लगती है.

प्रयत्न किस दिशा में किये जाते हैं ,परिणाम क्या मिलता है---

किसी यात्रा पर जाते हुए कोइ मिल गयाऔरउसने आपकी यात्रा का प्रयोजन ही बदल दिया--एक प्रश्न को जन्म दे देता है,जो सदैव निरुत्तरित है.

यही कारण है ,हर कोइ बुद्ध नहीं हो पाया और हर कोइ अम्गुलिमाल.

आगे ---अगली पोस्ट पर--





Sunday 13 September 2020

 प्रेम-----

बहुत आसानी से कहा जाने वाला शब्द है.

और, बहुत कम समझने वाला शब्द है.

हम सभी एक दूसरे से जुड़ना चाहते हैं और

सभी जुड़ाव हमारे अहम् पर टिके हुए हैं.

और ,इन जुडावोम का अंतिम सत्य बिखराव है.

स्वम से जुड़ना सम्रगता से  जुड़ना है.

' शब्दों' के घेरे में हम जीते हैं.

'शब्द' स्वजनित होते हैं.

जैसे एक मकडी अपने बुने जाल में जीती है.

जब शब्दों की दीवारें करीने से चिनी जाती हैं----

तभी उन दीवारों पर अनुभूतियों के फूल खिलते हैं.

'शब्दों' के बगैर अनुभूतियां अधूरी हैं ,

अनुभूतियों के बगैर अभिव्यक्तियां.

अनुभूतियों के बगैर ,अभिव्यक्तियां सुवासित नहीं होतीं.
















 


अभी मेरे जाने का ज़िक्र ना कर

ऐ मेरे दोस्त

परवाजो की टोली

अभी अभी गुजरी है यहाँ से मनुहार ....

कुछ बाते होनी है वाकी

 

गीत गाए जेगए

कुछ नये कुछ पुराने भी

कुछ एक गजल के मुखड़े भी

गुन गुनाए जाएगे

अभी मेरे जाने का ज़िक्र ना कर