Wednesday, 1 April 2015

धर्म के दो रूप हैं---



धर्म के दो रूप हैं---
जैसे कि सभी चीजों के होते हैं.एक स्वस्थ और दूसरा अस्वस्थ.
स्वस्थ धर्म तो जीवन को स्वीकार करता है,अस्वस्थ धर्म जीवन को अस्वीकार करता है.
जहां भी अस्वीकार है वहीं अस्वास्थय भी है.अस्वस्थ धर्म जीवन को अस्वीकार करता है.
तो जिन धर्मों,शास्त्रों में कहा गया है,स्त्री-पुरुष दूर रहें,स्पर्श ना करें,मैं उन्हें रुग्ण
मानता हूं.
परमात्मा जगत की ही गहनतम अनुभूति है,और मोक्ष कोई संसार के विपरीत नहीं,बल्कि संसार में ही जाग जाने का नाम है.
मैं पूरे जीवन को स्वीकार करता हूं---उसके समस्त रूपों के साथ.
स्त्री-पुरुष के बीच जो आकर्षण है,वह अगर हम ठीक समझें तो जीवन का ही आकर्षण है.
प्रेम का मतलब ही यह है कि मैं अपने से ज्यादा किसी दूसरे को मान रहा हूं.इसका मतलब है यह है कि मेरा सुख गौंण है,अब किसी का सुख ज्यादा महत्वपूर्ण है.
तो प्रेम से सबसे ज्यादा पीडा उनको होती है,जिनको अहंकार की कठनाई है—तो अहंकारी व्यक्ति प्रेम नहीं कर सकता.
जिनका प्रेम का द्वार बंद है,उनके जीवन का द्वार भी बंद है.
आदर तभी पैदा होता है,जब हमसे विपरीत कोई कुछ कर रहा हो,जो हम ना कर पा रहे हों.
हम प्रेम भी कर रहे  होते हैं---गहरे में कहीं लग रहा होता है,कुछ गलत कर रहे हैं----और अपराध-बोध से सुख मिलना बंद हो जाता है.
तो विशियस सर्किल है---जितना गहरा पाप मानते हैं,उतना गहरा दुखः मिलने लगता है.
सारे सन्यासियों को स्त्रियां सताती हैं----इसमें उनका कोई कुसूर नहीं है---इसमें उन्हीं की भाव-दशा है.
मेरा तो मानना है कि जीवन में मुक्ति का एक ही उपाय है कि जीवन का गहन अनुभव हो----
अगर निषेध से रस पैदा होता है तो अनुभव से वैराग्य पैदा होता है.
जितना गहरा अनुभव होता है,उतना हम जाग जाते हैं.
भागना क्यों है,डरना क्यों है,जीवन जैसा है उसके तथ्यों से जागरूक होना है---और इस आकर्षण को मैं कैसे सृजानात्मक करूं कि इससे मेरा जीवन खिले औ्रर विकसित हो.यह मेरा ध्वंस ना बन जाय.
तो इस आकर्षण का प्रयोग ध्यान के लिये हो सकता है.
परमात्मा मेरे लिये प्रकृति में ही गहरे अनुभव का नाम है.
मेरा मानना है यह है कि जो भी प्रकृति से उपलब्ध है उसका समग्र,सर्वागींण स्वीकार.
और----प्रेम से ज्यादा गहरा कुछ भी नहीं जाता.
ओशो---संकलित संभोग से समाधि से.
पुनःश्चय----
ओशो—की बहुचर्चित एंव सर्वाधिक आलोचित पुस्तक—जिसे मैं स्वीकार करती हूं,आज के परिक्षेप में सर्वाधिक पढने वा जानने योग्य पुस्तक के रूप में—जिसे जब तक ना पढा था—तब तक मैंने अपने झूठ को भी नहीं जाना था.
मेरा विनम्र निवेदन है कि मेरे विचारों को किसी भी रूप में आरोपित ना माना जाय.
मैं समझती हूं कि एक लेखक के रूप में जो भी कहूं वह स्वम पर जांचा हुआ हो---क्यों कि सत्य ही कसोटी है एक कवि की,एक लेखक की और एक सच्चे इंसान की.
यदि मेरे शब्दों के द्वारा कोई किसी भी रूप में आहत हो तो मैं विनम्रता से क्षमा मांगती हूं.
(मैं अपने-आप को ओशो के प्रचारक के रूप में भी नहीं देखना चाहती हूं.बस जो—सत्य लगा कह दिया.)
                                   मन के-मनके

Friday, 27 March 2015

२८ फरवरी—२०१५—



२८ फरवरी—२०१५—

दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी
करीब-करीब एक माह होने को है—मेरी पोस्ट को ब्लोग पर प्रकाशित होने के लिये.
क्या हुआ---कैसे हुआ---क्यूं हुआ---सब कुछ यूं लग रहा है जैसे मैं-- मेरी संवेदनाएं किसी सुरंग के स्याह अंधेरे में भटक रही थीं---या कि मुझे जरूरत थी उस अथाह में डुबकी लगाने की---जहां मेरी सम्वेदनाएं शब्दों के मोतियों को तट पर ला सकें---मित्र—मैं कहीं खो गयी थी---दुबारा अपने को पाने के लिये.
आपसे थोडा भी विछोह पीडा देता ही है---और यह भी सत्य है---पीडा के बिना---नवनिर्माण भी तो असम्भव है---ये संवेदनाएं भी एक कोख की तलाश में निरंतर हैं---ठीक हर उस आत्मा की तरह जो जन्म लेने के लिये स्वम ही पीडा को पीती है.
और यह निरंतर है---शाश्वत है---नैसर्गिक है---ईश्वरीय है.
दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी---
कई दशक पीछे देखना होगा---सो कोशिश कर रही हूं---पीछे मुड कर देखने में गर्दन में कुछ पीडा होना स्वाभाविक है---हर एक याद कुछ सुखद होती हैं---लेकिन पी्डाओं से ही वे जन्मती हैं.
यदि संवेदनाएं हैं तो जीवन के अटूट सत्य अवश्यंभावी हैं---अब इसको हम निजत्व की परिधि में बांधे या कि सत्य से रूबरू हों--- यह कहने वाले के ऊपर निर्भर है.
जीजी---उत्तर भारत में बडी बहन को ऐसे ही सम्बोधित करते हैं—मेरे जीवन वह बिंदु थीं कि जहां—मां विलीन हो गयीं---मेरे स्मृति-पटल पर मां ्की छवि में वे ही थीं—और जब सत्य से सामना हुआ तो एक टूटन के साथ---एक पीडा का सैलाब—एक अस्वीकारीय मनःस्थित---स्वीकारना तो था ही---सो स्वीकार ही लिया.
कभी-कभी ऐसा नहीं लगता है कि—यदि पीडा ही मिले तो उस इंजेक्शन की तरह मिल जाय---जो बिना बताए हाथ में ठोक दिया जाय---बता कर लगने पर---पीडा तो उतनी ही होती है लेकिन लगती ज्यादा है---अहा---
जीजी---ऐसे चली भी गयीं कि—शिकायतों के अम्बार रह गये---वितषणाओं के गरम रेतों में एडियां ढसी रह गयीं---और निरुत्तरित क्रोधों के गर्म टीले---और बीच में---मैं ढंसी सी—ढगी सी---पूछती रही अपने-आप से---वो कौन थी---मां---बहन---या प्रतिस्फर्धी---या कि मेरा संबल???
कभी-कभी ऐसा भी होता है---हम खुद ही नहीं समझ पाते हैं अपने-आप को.
कुछ ऐसा हुआ कि मिलना मैं भी चाहती थी और पास आने के वजाय दूर चली गयी---
वे बुलाती रहीं---संदेशों के द्वारा---पत्रों के मार्फत---और मैं सबको छिटकती---अपने अहम—में खोती चली गयी---एक दिन वे नहीं रहीं---ये शब्द मेरे कानों में पिघले मोम की तरह गिर रहे थे---मैं केवल चीख रही थी-----
वे चिट्ठियां अभी भी मेरे साथ हैं---अधजली---और मैं उन्हें पूरी तरह जला नहीं पा रही हूं---शायद कभी भी जला नहीं पाऊंगी---जब तक मैं हूं?
उस दिन वे दो हाथ फैले हुए---उनकी बेटी के थे---जिनसे मेरा संपर्क सालों-साल नहीं रहा एक शहर में रहते हुए भी---
और मैं उन बांहो में सिमटती चली गयी---जैसे जीजी मुझे बांहों में भर कर कह रही हैं---
उमा---मुझे मांफ कर दो.

Saturday, 28 February 2015

दो हाथ फैले हुए---और मैं बंधती चली गयी


बहती चली गयी, वक्त की धारा की धार में

वर्षों की मिठास-खटास-कडुवाहटों की लहरें

और स्मृतियों की तलहटी में पडे—

अपनत्व के पाषाड-सीपियां

परिछाइयां उन चेहरों की—

जिन्हें हम लिये-- जीते चले जाते हैं

ता-उम्र---भूलने के-- बहानों को साथ लिये.

पर---होता नहीं है,ऐसा कभी

काशः---ऐसा हो जाता ???

आइये कल हुई एक घटना के साथ शुरू करती हूं—जीवन का फलसफा,जिंदगी की फिलोसफी और सिमटता हुआ आसमान,समाती हुई धरा---- मुटठी में---अपनी सारी-समूची तस्वीर को लिये कि,यहां पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की और अथाह – सागर  मुहब्बतों के---जाने कहां विलीन से हो जाते हैं कि वक्त की रेत फिसल गयी रेत सी—मुट्ठी से.

आगरा शहर—कल ताज-महोत्सव का आखिरी दिन और मैं अपनी दो परिचिताओं के साथ कुछ सस्ता सा समेटने के लिये,धूल भरी वीथियों में,बे-फिक्र, चहलकदमी करते हुए—खरीदना एक बहाना था---देखना एक शगूफा---और फैले हुए दो हाथ मेरी ओर बढते चले आ रहे थे---मैं देखकर भी देख नहीं पा रही थी—और मैं उन हाथों में समा गयी---तब देखा तो—उन हाथों के बीच कितनी यादों के सैलाब थे---जहां निरुत्तरित थे---पहाड वितृष्णाओं के,घाटियां स्वार्थों की—

अथाह सागर की हिलोरों में घुल रही थी अपने सारे नमक की साथ.

पुनःश्चय:

बहुत-बहुत कुछ ऐसा होता है—हर जीवन में---शब्तातीत सा---इन शब्दों में भी बहुत कुछ कह दिया गया है---इससे अधिक शब्द नहीं हैं—मेरे पास जिन्हें लिख सकूं---हां संवेदनाएं हैं जो बह सकती हैं---!!!

आइये कुछ खूबसूरती से रू-बरू हों—जीवन को देखें स्वम के दर्पण को पोंछ कर.

प्रेम—

    फ्योदोर दोस्तोवस्की का एक पात्र कहीं कहता है: “ मैं विश्वास दिलाना चाहता हूं कि मनुष्यता के प्रति मेरा प्रेम रोज बढता जाता है,लेकिन जिन मनुष्यों के साथ मैं रहता हूं उनके प्रति वह दिन-प्रति-दिन कम होता जाता है’. आह.

-----मनुषयता के प्रेम के नाम पर मनुष्यों की हत्या अतयंत निर्दोष  मन से जो की जा सकती है----मित्रों,मैं मनुष्यता से प्रेम करने जैसी थोथी और पोच और हवाई बातें आपसे नहीं करना चाहता हूं.

    यदि मैं अकेला प्रेम-पूर्ण ना हो सकूं,यदि मैं उसी एक व्यक्ति के साथ प्रेम-पूर्ण हो सकूं जिसे प्रेम करता हूं,तो मैं अभी परिपक्व नहीं हुआ.तब प्रेम-पूर्ण होने के लिये मैं किसी पर आश्रित हूं. (सुंदर-अदभुत-अतुलनीय )

मौन-दर्पण-मैं और तुम----

               तुम तो वह हो जो इन सबका साक्षी है----चाहे वह शून्य हो,कि आनंद हो,कि मौन हो----कुछ नहीं बचता—ना शून्य,कि ना आनंद,कि ना मौन.

दर्पण---रिक्त हो गया.

अनुग्रह---

             क्यों? क्योंकि हो तब तो अनुग्रह समझ में आता है कि मुझे कुछ हुआ है,तो मैं धन्यवाद दूं----अन्यथा वह भी अहंकार है.

यात्रा-आनंद----

              

        यात्रा का आनंद लो और मार्ग में वृक्षों,पर्वतों,सरिताओं,सूर्य,चांद और तारों के जो दृश्य आएं उनका भी आनंद लो----जब दृष्टा ही दृश्य बन जाता है,जब ग्याता ही ग्यात हो जाता है----तो घर पहुंचा.

साधक-मंदिर-भगवान----

          साहसी साधक को सभी अनुभव पीछे छोड देने होंगे,----और वह अपने ही एकाकीपन में बच जाता है---तो कोई आनंद इससे बडा नहीं है—कोई सत्य इससे सत्यतर नहीं है---तुम उसमें प्रवेश कर गये-----तुम एक भगवान हो गये.

(साभार संकलित ध्यानयोग से---ओशो )

       

Wednesday, 25 February 2015

सुख का सूरज---


आइये जीवन की शुरूआत करें---नित-नये सूरज से.

परंपरागत शुभ-आरम्भ ईश-वंदना से ही होनी चाहिये सो लेखक-कवि श्री शास्त्री जी इस परम्परा का निर्भाय बखूबी करते ही हैं---तुम बिन सूना मेरा आंगन,बाट जोहता द्वार---मेरी वंदन स्वीकार करो—एक नम्र निवेदन---लेखन या कोई भी रचनात्मक कार्य सरस्वती की कृपा के पूरा नहीं होता.

मेरी एक छोटी सी कोशिश—कि ’सुख का सूरज’ काव्य-संग्रह को जिसे श्री शास्त्री जी ने अपनी बहुमुखी भावनाओं एंव वृहद संवेदनशीलता से सजाया है---उसे-- विषय-अनुरूप बांध सकूं.

ऐसा करने में मेरी आंकाक्षा यह कतयी नहीं है कि उनकी इस काव्य-प्रतिभा का आंकलन करूं वरन—उनके वृहद अनुभव व काव्य-प्रतिभा से कुछ सीख सकूं---और लेखन के जगत में कुछ और बेहतर कर सकूं—उनके मार्गदर्शन का अनुसरण कर सकूं.

सरस्वती वंदना के साथ-साथ जीवन के बेहतरीन मूल्यों को कवि ने अपने काव्य-संग्रह में भर- पूर उकेरा है---हमें संस्कार प्यारे हैं---कहते हैं संस्कार-विहीन मनुष्य पशुवत होता है.

सो—तुम अपने पास रखो यह नंगी सभ्यता—यह कह कर उन्होंने अपनी संसकृति को सम्मानित किया है.

प्यार के बिना यह जीवन अधूरा ही रहता है—यह अटूट सत्य है.

प्यार एक ऐसा इंद्र धनुष—जिसकी सतरंगी छटा ना हो तो जीवन रूपी-फूल कुम्हला जाय--.

ंमोक्ष साधने के लिये—सच्चा प्रेमी वही जिसको लागी-लगन,प्रीति की पोथियों को बांचने के लिये---ढायी आखर ही चाहिये---प्यार को सजाने के लिये ऊंचा चरित्र भी जरूरी है---प्यार एक धरोहर है---जिसे सजाना भी जरूरी है और सभांलना भी---यह कांच का दर्पण है---???

सच्चा-सच्चा प्यार कीजिये---सीमायें मत पार कीजिये---हर सम्बन्ध की एक मर्यादा होनी ही चाहिये---बम्धन और मर्यादा में केवल एक सांस का अंतर हैं जिसे समझने के लिये संवेदन्शीलता ही सटीक पैमाना है.

संबन्ध आज सारे,व्यापार हो गये---अक्सर ऐसा ही हो रहा आज—तभी तो जीवन में इतना भटकाव है.

याद किसी की आती है—्प्रेम-विछोभ  एक ही फूल के दो रंग हैं जहां प्रीति होती, वहां विछोभ की पी्डा भी होगी---तभी तो मीरा, मीरा हो सकीं ---राधा की एक परम्परा भी कायम हो सकी.

प्यार की बानगी देखिये---अपना माना है जब तुमको----यदि साथ निभाओ तो,मैं अमृत भी पी सकता हूं---साथ जो हो तेरा विष भी अमृत हो जाय---वाह!

जब साथ ना हो तेरा---सब कुछ वीराना लगता है---अमृत-पान भी विष-पान हो जाता है.

एक ऐसा साथ जरूरी है जीने के लिये---कि खुद का जीना हो जाय.

गीत गाते रहो,गुनगुनाते रहो,एक दिन मीत संसार हो जायेगा---प्यार से छूलो तो कायनात भी हमारी हो जाती है.

जिंदगी के जख्म सारे भर गये,प्यार करने का जमाना आ गया---हसरतें छूने लगी आकाश को,पत्थरों को गीत गाना आ गया---खबसूरत भावों को खूबसूरत शब्दों में पिरोया गया है.

देश ना हो तो---प्यार-व्यार की बातें निर्थक हो जाती हैं.

सो कवि-हृदय देश के प्रति भी पूरी तरह सजग हैं---ऐसा देश चाहिये,जहां ग्यान की गंगा बहती हो,खेतों में खुशहाली हो,मजदूर के हाथों में ताकत हो,घर-घर में खुशियों की दीपशिखाएं जलती हों,इंसानियत की हवाएं बहती हों.

कौन राक्षस चाट रहा---कभी-कभी देश में फैली अव्यवस्थाओं से भी कवि-हृदय द्रवित हो उठता है.

देश में व्याप्त हिंसा के प्रति भी कवि जागरूक एंव चिंतित हैं.

देश में फैली स्वार्थ की राजनीति के प्रति भी कवि का मन चिंतित है.

कभी-कभी कवि-हृदय शंकालू भी हो जाता देश के हित के प्रति.

इतना सब होते हुए भी कवि-हृदय ने आशा को नहीं त्यागा है---निराशाएं आती-जाती रहती हैं---विनाश के साथ-साथ विकास का सूरज भी उदित होता ही है—सो प्रकृति की छांव तले उनका भावों का संसार विश्रांति पाता है---बसंत का आगमन नव-जीवन का संदेश लेकर आ रहा है---मधुमास आने को है—आशाओं के बीज फिर पल्लवित होगें ही---कुहरे के उस पार से सूरज निकलेगा ही---प्रकृति का नियम यही है---दे रहा मधुमास दस्तक.

कभी-कभी उम्र के पडाव भी भयभीत कर जाते हैं---स्वाभाविक है,परम्तु जीवन भी नित-नव-निर्माण का ही नाम है---सो कवि-हृदय जीवन-रूपी नाव लिये---आशा-निराशाओं की लहरों पर—अपने भावों की यात्रा करते आगे बहते चले जाते हैं---भावों की लय को शब्दों के तारों पर छेडते हुए---नव-गीत गुनगुनाते हुए.

आइये हम भी उनके साथ जीव-गीत गुनगुना लें

छोटे मुंह बडी बात—मेरी यह कोशिश हो सकती है.क्षमा प्रार्थी हूं.


(प्रस्तुतीकरण—श्री माननीय रूपचन्द्र शास्त्री ’मयंक’ के द्वारा रचित काव्य-संग्रह ’सुख का सूरज’ पर आधारित है.)


Friday, 20 February 2015

जो भी व्यक्ति----


जो भी व्यक्ति----

१.जो भी व्यक्ति प्रसिद्धि और सफलता के नशे से मुक्त होकर साधारण लोगों की भीड में खो जाता है वही व्यक्ति सभी की दृष्टि से दूर ’ताओ’ प्रपात की भांति कल-कल करता हुआ बहेगा.

२.ताओ को जानने वाला व्यक्ति जहां कहीं भी रहता है---वह परम शांति और सहजता से रहता है.

३.केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति नर्क को स्वर्ग में बदल सकता है.

आइये-- -कुछ सरल-सीधी-सच्ची सी बात करें---कुछ देर ठहर जायं--- कुछ देर कुछ ना करें???

मन की चाल को अपनी ही चालबाजी से परास्त करें???

आएं ’ताओ’ को पुनर्जीवित करें.

ओशो—पूरा संसार ही अनावश्यक कार्यों में जुटा हुआ है-----५०% कारखाने वस्तुतः स्त्रियों शरीर के लिये नये-नये परिधान बनाने में जुटे हुए हैं---और प्रसाधन सामग्री बनाने में व्यस्त हैं.

५०% कारखाने व्यर्थ की चीजें बनाने में लगे हुए हैं जबकि मनुष्यता भोजन के आभाव में मर रही है.

चंद्रमा पर पहुंचना पूरी तरह गैरजरूरी है.(मैं पूरी तरह सहमत हूं )

पूरी तरह से बेवकूफी है----युद्ध पूरी तरह से अनावश्यक हैं----लेकिन मनुष्यता पागल है.

केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति नर्क को स्वर्ग में बदल सकता है---

इस सत्य को कहते हैं एक कहानी के माध्यम से---जो ओशो ने इस तरह कही---

(कहानी तो ओशो ने कही—लेकिन मैं उसे कुछ कांट-छांट कर कहने का दुःसाहसन कर रही हूं-क्षमाप्रार्थी हूं)

एक चर्च का एक पादरी मरने के बाद जब स्वर्ग पहुंचा तो वहां के राजसी ठाठ-बाट देख कर वह मंत्रमुग्ध हो गया.

किसी भी चीज की इच्छा मात्र से उसकी वह इच्छा पूरी हो जाती.

एक-दो दिन तो सब कुछ ठीक रहा.अगले दिन से उसे कुछ असुविधा होने लगी.

वह धर्म पुरोहित बैचेन होने लगा.मरने के पहले वह बहुत सक्रिय था.आराम भी कितना किया जा सकता है.देर-अबेर छुट्टी का अंत होना ही था.

अचानक एक सेवक हाजिर हुआ---उसने पादरी को बहुत बैचैन देखा.

पूछा कि आखिर आप चाहते क्या हैं?

पादरी ने कहा—मैं हमेशा-हमेशा खाली तो नहीं रह सकता मुझे कुछ करने के लिये चाहिये.

सेवक ने उत्तर दिया---यह तो ना-मुमकिन है.

पादरी क्रोधित हो कर बोला--- यह किस प्रकार का स्वर्ग है?

सेवक ने उत्तर दिया—कौन कहता है यह स्वर्ग है यह तो नर्क है.

ओशो—तुम्हें व्यस्त रखने के लिये तुम्हारे पागलपन के लिये तुम्हें अनावश्यक चीजों की जरूरत होती है इसलिये चंद्रमा भी पर्याप्त नहीं है----हम मंगल ग्रह को खोदने जा ही रहे हैं.

ताओ को जानने वाला व्यक्ति---अपने -आप में आंनदित होता है,उसकी सक्रियता भी निष्क्रियता जैसी ही होती है.

केवल ताओ को जानने वाला व्यक्ति ही नर्क को स्वर्ग बना सकता है.

पुनःश्चय:

इस कहानी को कहने का मेरा आशय यह कतई नहीं है—कि हम कर्म-योग को त्याग दें---और चार्वाकीय प्रवृति में लिप्त हो जांय?

वरन---कभी-कभी कुछ करने में से कुछ ना करने को भी खोजें ताकि खुद को खोज सकें

(साभार संकलित—संसार और मार्ग—ताओ-पथ—क्षण-क्षण भरपूर जीवन—उद्धरित ओशो के प्रवचनों से)