Sunday, 15 July 2012

उन्नयन (UNNAYANA): अक्स दर अक्स

उन्नयन (UNNAYANA): अक्स दर अक्स


’ज़िंदगी चार दिन की

कहावत याद आती ह’

सुंदर.

उन्नयन (UNNAYANA): अक्स दर अक्स

उन्नयन (UNNAYANA): अक्स दर अक्स


’ज़िंदगी चार दिन की

कहावत याद आती ह’

सुंदर.

Saturday, 14 July 2012

डिनर,निमंत्रण और इंकार---


संसार के अन्य देशों की रानैतिक ’आवोहवा’ का तो ग्यान नहीं है क्योंकि वहां की हलचल-हजारों मील के फ़ासलों की वजह से,हलचल नहीं रहती बस ’खबरों’ के पन्नों में,इधर-उधर भटक सी जाती है या यूं कहें,हम जैसे समझदार महानुभाव-केवल अपने आंगनों की मुडेरों पर बैठे कौवों की कांव-कांव ही सुनने की समझ रखते हैं.

   हमारे देश में ’राजनैतिक माहो्ल’ मानसून की बारिश की तरह खुशगुबार चल रहा है—बडी-बडी उठा-पटक चलती रहती है—जैसे बारिश के बाद ट्रेफिक जामों में आज-कल चल रही है,एक जाम से जान छुडा कर जैसे-तैसे निकलो दूसरा जाम जकड्ने के लिये तैयार है—यह ’जा्म’ वह ’ज़ा्म’ नहीं है जो खुमारी दे जाय यह तो खुमारी को उडा कर ले जाता है.

   आज की खबरों में से एक छोटा सा टुकडा , जो कानों में पड गया (चूंकि, खबरों की खबर लेने का मन नहीं करता,एक खबर एक दिन के नाम हो जाती है. हर चैनल उस खबर की रुई सी धुनता रहता है.एक खबर इतनी रट जाती है कि सपनों में भी वही खबर चलती रहती है.)

   कि-सोनिया जी ने डिनर आयोजित किया है,ममता बनर्जी को निमंत्रण भिजवाया गया है और ममता जी ने निमंत्रण ठुकरा दिया.

   समझ नहीं आ रहा यह चलन, हमने तो संस्कारों में यही चलन पाया कि शत्रु के निमंत्रण को भी सिर माथे लेना चाहिये-परंतु ये राजनैतिक चलन जिसके संस्कार,भाग्यवश हमें नहीं दिये गये.

   बडा गूढ रहस्य है—डिनर आयोजन,निमंत्रण और इंकार.

  कुछ प्रबुद्ध सज्जनों से झिझकते हुए पूछा कि—माज़रा क्या है?

  सोचते होंगे पढे-लिखे होकर भी खबरें नहीं देखते-सुनते और मतलब भी नहीं समझते.

उनके द्वारा दिये ग्यान के आधार पर,थोडा-थोडा समझ आया—आज की राजनीति इसी ’सूत्र’ पर

चलती है.

Thursday, 12 July 2012

एक समीक्षा---


’क्षितिजा’ के नाम

                      अनु चौधरी द्वारा परिकल्पित

’क्षितिजा’ का आरम्भ-बिंदु-’असमंजस’ है.

जीवन का हर पडाव ’असमंजस’ की धुंध से घिरा है.हालांकि इस धुंध को काटता एक उजाला भी है जो जीने के नये रास्तों को रोशन भी करता है.

’ज़िंदगी’-मेरे विचार से,उलझा हुआ ऊन का गोला है यदि उसे सुलझाने बैठे तो सुलझ जाता है.

कवियत्री सुश्री अनु जी ने इन्हीं उलझनों में, कुछः बीती यादों को खूबसूरती से उकेरा है—वे यादें जो फुटपाथों पर हमकदम हैं—कहीं-कहीं ज़िंदगी के प्रति,इनका दॄष्टिकोंण नकारात्मक भी दिखा, शायद उस अंधेरे से ही उजाले की किरण की तलाश में.

’प्यार’ के अनेक रंगों को जिया है अनु जी  ने—मिलन का रंग,विछोह का रंग,आंसुओं में ढलकता प्यार,अकेलेपन का अहसास लिये प्यार,इंतजार में प्यार,देहलीज पर बैठा हुआ—

प्यार में भरोसा भी जिया,दिलासा से आंचल भी भरा.

बारिश में,टपकती गरीबी का अहसास,खुद से हट कर औरों के दर्द को भी जिया है,अनु जी ने

मानवता का दर्द उन्हें पीडा देता है,रिश्तों की दरकती दीवारों में से जीवन को देखने की कोशिश और पथरीला अहम जो विभ्रम करता है सहज जीवन को,शब्दों में पूरे अहसास के साथ उकेरा है.

अपनी पहचान—थोडी सी पागल,दीवानी,दिल के करीब—फिर भी मैं खुश हूं.

बचपन की यादों को भी जिया है जो हम सब के साथ हैं शायद सबसे मीठी.

नारी के अंतर्मन के हर अहसास को,उन्होंने बखूबी जिया है शब्दों के माध्यम से.

मैं,अपने छोटे से प्रयास को,अरमानों के पंख देकर,नये सपनों की उडान देना चाहती हूं.

अनु जी,पीडा ना हो तो सुख का अहसास कहां? आंसू ना हो तो मुस्कान बेमानी है—जीवन दो ध्रवो का मिलन है.

आशा है आपके अहसासों से,आमना-सामना होता रहेगा.

शुभकामनाओं के साथ,

                      मन के-मनके

Monday, 9 July 2012

एक अह्सास---दोस्ती का


एक गीत,जो मेरे मन को छूता है,जिसे,आज भी सुनती हूं,गुनगुनाने लगती हूं—

’दोस्त,दोस्त ना रहा,प्यार,प्यार ना रहा,जिंदगी हमें तेरा एतबार ना रहा’.यह गाना,संगम फ़िल्म का है,जिसे मुकेश ने गाया था.

आज,दोस्ती का अह्सास,ठीक उसी तरह हो गया है,’दोस्त,दोस्त ना रहा----’

दोस्तियों का मौसम होता है,मकसद होते हैं,जो मौसम के गुज़र जाने के बाद,गुज़र जाते हैं,और मकसद पूर होने के बाद,बंद किताब की तरह,शेल्फ़ों में सज़ जाते हैं,कभी-कभी,नज़र से गुज़र जाने के लिए.

आये दिन,अखबारों में, टेलीवीजन के सीरिअलों में,आधुनिक दोस्ती के किस्से,देखे व सुने जा सकते हैं,जिनका पटाक्षेप,प्रायः, हत्त्याओं में ही होता है.

कितना मोहक,दिल को छू देने वाला अह्सास है,जिसे,यदि,नैसर्गिक रूप में,निभाया जाय तो,प्रकृति का हर रूप,मुखरित हो उठे,पेड-पौधों पर यदि,दोस्ती का स्पर्श रख दिया जाय,तो वे भी झूमने लगें.यदि,पालतू जानवरों को भी इसी स्पर्श से सहलाया जाय,तो वह,जीवन-भर के लिये आपका हो जाय और,कृतग्यता का पानी उसकी आंखों में तैर जाय.

दोस्ती का एक अह्सास, अपने मूल-भाव में,इतना पवित्र है कि, जिसे जब भी गुना जाय,अंतर्मन,

झंकरित हो उठता है. श्री कृष्ण और सुदामा की मित्रता,यह अह्सास,हजारों दर्शन में,विभिन्न-रूप से वर्णित हुआ और,सदियों बाद भी,हमारे जीवन में,अपनी ईश्वरीय-नैसिर्गिकता के साथ व्याप्त है.

ऊंची-ऊंची,अट्टालिकाओं में,विचरण करने वाले,सोने के सिंघासन पर,विराजमान होने वाले,दास-दासियों से घिरे,श्री कृष्ण को जब द्वापाल यह सूचना देता है कि,द्वार पर एक गरीब ब्राह्मण,जिसके तन पर फटी लंगोटी है,नंगे पैरों से खून बह रहा है,पैर,धूल-धूसिर हैं,बगल में एक छोटी सी पोटली दबाए हुए है,आपको,अपना मित्र बता रहा है और अपना नाम सुदामा.

यह सुनना था कि,श्री कृष्ण,सिंघासन छोड,द्वार की ओर भागे चले जा रहें हैं,उनका पीतांबर,कंधे से

उतर कर धरती पर गिर गया,दौनों हाथ आगे फैलाए हुए---सुदामा,मेरे मित्र,सुदामा मेरे मित्र---

मुंह से निकलता जा रहा है,आंखों से,अश्रुधारा बह रही है-----

यह अह्सास,मित्रता का,जो प्रकृति ने हमें ,हमारे आस्तित्व के साथ दिया,जिसके समक्ष , अट्टालिकाएं,राज-पाट,दास-दासियां,धूल हो गईं---अह्सास,जो सत्य था,रह गया.

इससे आगे,इस कहानी का विस्तार,शब्दों के परे है---कवियों ने,ग्रंथ लिख डाले,समय-समय पर

नाट्यों के माध्यम से,इस अह्सास को पिरोया गया,परन्तु,क्या यह संभव हो पाया होगा,उस अह्सास को दुबारा जी पाएं होगें,इन माध्यमों के द्वारा जो,उन दो मित्रों ने जिया—दौनो बाहों बधें,एक-दूसरे के अश्रुओम से पवित्र होते रहे,क्योंकि,मित्रता की पराकाष्टा यही है.

Wednesday, 4 July 2012

यूं ही,चलते-चलते----


मुझे याद आता है—

गांव की कुए की जगत पर

पैर लटकाये,लूओं की चादर—

ओढ लेना---

                        मंदिर के चबूतरे पर

                        भारी सा बड का पेड—

                        जब छेडता था, अपनी बांहों से

                        धकियाता था,सारी धोपहर—

                                          यादों की गाडी के दो बैल

                                          फेर कर मुंह,क्यों खडे हो गये हैं

                                          हांकती हूं—आगे की ओर—

                                          क्यों लौटते हैं—पीछे की ओर---

                                                  

       

Sunday, 1 July 2012

द एम्टी बोट—च्वांग्त्सु के बोधवचनों व बोधकथाओं पर


१.      शासन करने वाला व शासित होने वाला—दोनों ही सदा दुखी रहते हैं.

२.      कामना—प्रभावित करने की व प्रभावित होने की—सदा दुख देती है.

३.      संसार-रूपी, सरिता को पार करते हुए—अपनी नाव खाली रखो,

अहंकार,क्रोध,विद्वेष, इच्छा, कामना व वेदना से.

४.      कोई भी सफलता प्राप्त करना,असफलता का प्रारंभ है,और प्रसिद्धि,अपयश का.

५.      जो व्यक्ति,प्रसिद्धि और सफलता के नशे से मुक्त हो जाता है—वह व्यक्ति सभी की नजर से दूर—ताओ प्रपात की भांति,कल-कल बहेगा,सहज-सरल.

६.      अपने अंदर से,’मै” को,निकाल बाहर फेंको,तभी,खाली स्थान में कुछ और जा सकेगा.

७.      मनुष्य का स्वभाव—असीम-अनंत, आकाश की भांति अछोर है.

८.      ’कोई नहीं बनना’, सबसे अधिक कठिन और लगभग,असंभव है.

९.      जो,घट रहा है—घट रहा है,यदि फूल से पूछें,वह फूल क्यों है—फूल होना,उसका स्वभाव है.

१०.’अहंकार’ दोनों अतिओं में संतुष्ट होता है.

११.मध्य-बिंदु- ही,शून्यता की पवित्र-भूमि है.

१२.’ताओ’ और अन्य धर्मों में अंतर है—अन्य धर्म,नैतिकता सिखाते हैं,जबकि,’ताओ’

   ’मैं’ रहो ही नहीं सिखाता है.

  १३.च्वांग्त्सु के अनुसार—चरित्र को विकसित करना—सम्पति संचय करने के समान है,जिसके नष्ट होने का भय है.

  १४.जीवन—वर्तुलाकार है,गतिशील होने से हमें पाने का अहसास होता है.

  १५.जहां विशिष्टता है,वहीं अहंकार है.

  १६.किसी को,बेवकूफ सिद्ध करने का प्रयास मत करो—क्योंकि बेवकूफ लोग इसे पसंद नहीं करते.

  १७.एक बुद्ध,स्वंम ही शक्ति है,दिशाहीन,गंतव्यहीन,अतिरेक से प्रभावित हो रही है.

  १८.जब तुम खाली हो जाओगे(अहंकार,विद्वेश्य,इच्छा,कामना से) पूरा आस्तित्व तुम पर बरसने लगेगा.

  १९.’ध्यान’ और कुछ भी नहीं—’अपने’ को खाली करना और ’कोई नहीं’ बनना.

  २०.यही,’ कुछ नहीं होना’, आस्तित्व का आशीर्वाद है.        .