Sunday, 20 May 2012

कुछ नुक्ते--- जीवन के गलियारों में से


१.सांझ की लहरों पर---
 उम्मीदों की कंदीलें हैं
जीवन की सुबह ढलकती
कुछ,साथ उजाला चलता है,
                कंदीलों की परिछांई में—
२. वैसे तो, किताबे-ए-ज़िंदगी
  खुली किताब है मेरी---
  हर्ज़ नहीं, पलटले वर्क इसके कोई,कभी-कभी
  फ़कत,एक पन्ना,मोड कर रखा है,मैंने
                       सिर्फ़ मेरे लिये---
३. एक खुशबू की-----राहे-गुज़र
  हम थे--------अकेले
  गुज़रे तो,हवाओं से मुलाकात हो गई
  हमें लगा कि------तुम ही गुज़र गए
                                      मन के--मनके
     



Monday, 7 May 2012

स्वप्न मेरे................: सजीव कविता ...

बहुत सीधे-सादे रूप में जीवन का सार—बस ’इस पल का मोती मेरा है—ना भूत ना भविष्य,यही पल जीवन की सच्ची कविता है.

Sunday, 6 May 2012

जिंदगियां—यूं सिमटती हैं,एक रोज़


जैसे,मेहराबों पर,लटके बंदनवार
सिमट जाते हैं, बारात गुज़र जाने के बाद
                        शहनाई की उत्सवी गूंज में----यकायक
                        फूट पडते हैं ,मातम के बोल----
दरवाज़ों पर बिंछी,मनुहारी आंखे, सपनों के गलीचों पर
यकायक, हो जाती हैं—आंसुओं से लबालब---
                         जिंदगियां यूं सिमटती हैं,एक रोज़
                         अभी,कल ही की तो बात है—
                         धान से भरे कलश को,उढकाया था,मैंने
                         महावरी पैर के अंगूठे से----
                         अभी,कल ही की तो बात है—
                         मेंहदी से रची हथेलियों को—
                         चूमा था तुमने,वादों से भरी आंखो से—
अभी,कल ही की तो बात है—
कमर में,समेटा था गुच्छा चाबियों वाला
और,आशाओं से पुलकित थी,कोख मेरी
जैसे,हर दिन आई हो,सपनों की बारात,दरवाज़े पर मेरे
और,एक दिन, हाथ तुम्हारा थाम कर—
आहिस्ता-आहिस्ता,कदमों से चढ गई थी
सपनों के राजमहल की सीढियों पर,
तुम्हारे हाथ में था, नन्हे से मोजों का बंडल
                         और,गोद में थी,टोकरी किलकारियों की
                         और,तुम्हारा हाथ थामें,आंचल को संभाले
                         लौट आई थी,और कितने सपनों के साथ
                         अभी,कल ही की तो बात है---
जब,एक लट,सफेदी लिये हुए-
माथे पर आई थी झूम—
और,फिर,नये सपनों ने बढा दी पेंगे नई
आंखो में,तैरते थे सपने,नित-नये
अभी,कल की ही तो बात है-
                        अब,चाबी का गुच्छा,भारी-भारी सा हो रहा था,दिन-ब-दिन
                        और,सेहरे की ओट से,कल के सपने को देखा था,झांक कर
                        आंखो में थे,आंसू,होठों पर थी,मुस्कान नई—
                        अभी,कल ही की तो बात है—
एक बार,वर्षों बाद,फिर वही,चिर-परिचित सी
किलकारियों से भर गया था,आंगन मेरा
कहानी,जो वर्षों पहले,कह रही थी मैं,
आज,दुहराने लगी फिर से,एक बार
अभी,कल ही की तो बात है—
                           ना,जाने वो सपनों की लहरें तूफानी हो गईं
                           तुम्हारे कांधे पर रख,हाथ अपना—
                           कितने झंझावतों से,यूं गुज़र गई—
                           कि,जैसे एक तिनका आंख की कोर में
                           पड गया,और,फूंक से उदा दिया, तुमने उसे
                           अभी,कल ही की तो बात है—
पर,वही कांधे अब झुकने लगे
वही हाथ की पकड,कब ढीली पड गई
और,एक दिन,जो चाबी का गुच्छा
होने लगा था,और-और भारी सा
अब,अपने ही कदमों पर आकर गिर गया
अभी,कल की ही तो बात है—
                         और,एक दिन,जिस नीड के तिनके-तिनके
                         समेटे थे,मैने व तुमने,एक साथ मिलकर
                         जिस नीड में,सजाई थी चहचहाहटों की टोकरी
                         ना जाने कौन, उन किलकारियों को उडा कर ले गया,जाने कहां—
                         अभी,कल की ही तो बात है—
अब,उस नीड के बिखरे तिनकों को
बीनती रहती हूं,रात-दिन---
एक तिनका,चुन नहीं पाती हूं, कि
दूसरा जाता है------बिखर
अभी,कल की ही तो बात है—
                           तुम भी,अब ना जाने,इतनी दूर चले गये हो--
                           कोशिश करती हूं पुकारूं तुम्हें—
                           पर,गले में,दफ़न हो जाती है,आवाज़ मेरी—
                           ज़िंदगी,यूं,सिमट जाती है----एक रोज़—

समय का पहिय्या,घूमे रे भैय्या---कभी-कभी वक्त,मुठ्ठी में बंधे रेत की तरह,यूं फिसल जाता है,कि, कोई आवाज़ भी नहीं होती,हां वही रेत,अंधड बन,आंख में किरकिरी बन, आंखो की कोरों को घायल भी कर देता है.
दस,बीस,चालीस वर्ष,ये काल के पैमाने हैं,जो हमने ही बनाएं हैं—
अन्यथा,वक्त,रेत भरी मुठ्ठी है, और कुछ नहीं,एक भ्रम,एक विभ्रम एक इल्ल्यूजन है.
जीवन के सत्य का दूसरा अक्श—
खुद मत गुज़रिये—वक्त को गुज़रने दीजिए.           
                             
                                                              


Thursday, 26 April 2012

कुछ सुखद यादें—दैनिक समाचार पत्रों की


कुछ दशक पूर्व तक ,समाचार पत्र,हर घर की जरूरत थी,जैसे कि,भोजन-पानी-नींद की जरूरत हर जीने वाले की जीवन-ऊर्जा होती है.
आवश्यक नहीं होता था ,घर का हर सदस्य,पढा-लिखा हो,यदि,एक या दो ही अखबार पढ पाते थे काफ़ी था (अब मैं,समाचार-पत्र से अखबार पर आ रही हूं,क्योंकि, ’अखबार’ वह शब्द है और था,जो जन-मानस के शब्द्कोष में,ऐसे समाहित हो गया था,जैसे कि,उसे ढूंढने की जरूरत ही ना हो) अखबार यानि कि,
नवभारत टाइम्स,दैनिक जागरण,अमर उजाला,पंजाब केसरी---आदि-आदि.
अंग्रेजी भाषा के अखबारों के नामों को ढूंढने के लिये शब्द्कोष में जाने की जरूरत नहीं थी.
घर में एक या दो ही काफ़ी हुआ करते थे,अखबार वांचने के लिये और घर के अन्य सदस्य,खास-खास खबरों से वाकिफ हो जाते थे,अखबार पढा जाता था,अखबार सुना जाता था,अखबार सुनाया जाता था.
सुबह की दिनचर्या का,यह कार्यक्रम,अहम हिस्सा था.हर घर में आंगन हुआ करते थे,मूढे-मुढियों का भी जमाना था,शनेः,शनेः पालिश वाली कुर्सियों का भी,उच्च स्तर वाले घरों में आगवन हो गया था.
चाय की प्यालियों पर प्यालियों के साथ,अखबार के पन्ने भी बंटते रहते थे.जाडों की धूप के टुकडे के साथ,घर खिसकता रहता था,चाय की प्यालियां हाथों में और अखबार के पन्ने बंटते रहते थे,सौगात के रूप में.
कभी-कभी,छीना-झपटी भी हो जाती थी.
कुछ पडोसी,पडोसी के अखबार से काम चला लेते थे,बेशकः खबर बासी ही मिलती थी,परंतु,सुबह का खाना शाम को बासी नहीं होता.ऐसा भी अक्सर हो जाया करता था कि पडोस के घर से,शाम को अखबार सही सलामत भी ना आ पाये,पर क्या करें पडोस-धर्म भी निभाना जरूरी था.
राजनीति का ग्यान वृहद था,घर की अम्मा,चाची,ताई भी जानती थीं-किस पार्टी की सरकार,दिल्ली की गद्दी पर,विराजमान है और उनके प्रदेश में मुख्यमंत्री,क्या-क्या,जूठे वादों का प्रसाद बांट रहा है.
मोरारजी देसाई,स्वंजल पी कर,८० वर्ष की उम्र में भी,चुस्त-दुरुस्त हैं,चन्द्रशेखर जी क्या-क्या जोड-तोड कर रहें हैं.
आजादी के बाद,नेहरू जी का जमाना,उम्मीदों से भरा था,सपने ही सपने बिखरे पडे थे.
जब इंद्रा जी का जमाना आया,तब अखबार कुछ ज्यादा ही रंगीन व गरम हो गये थे.कांग्रेस,कांग्रेस ही नहीं रह गई थी,इंद्रा कांग्रेस हो गई थी.पारलियामेंट में,उनका दखल ही,देश के घर-घर में दखल हो जाता था. क्या-क्या उपाधियों से उन्हें ना नवाजा गया था----मां काली, मां दुर्गा,संसार की सबसे शक्तिशाली महिला—पाकिस्तान को धूल चटाने की सार्मथ रखने वाली महिला—अमेरिका के राष्ट्रपति
निक्सन के साथ वे ही सिर ऊंचा करके साथ खडे होने का साहस रखती थीं.
ये चर्चाएं, सुबह के अखबारों से सरक कर,घरों से निकल कर—चौराहों तक आ जाती थीं.
पान से भरे,गालों में,गुलगुलों की तरह,गुलगुलाती रहती थीं.
शनैः,शैनेः,
छापेखानों से निकल कर,अखबारी वज़ूद—ईडियट-बाक्सों में घुस गया और पहले तो,दस घरों में एक ब्लेकबाक्स (वह भी ब्लेक एंड व्ह्वाइट) का आस्तित्व हुआ करता था,जहां से खबरें निकल कर,आफ़िसों तक पंहुचती थीं,और,शाम को,ब्रीफकेसों में,भरकर,घर-घर,पहुंच जाती थीं. खबरें,कुछ बासी ज़रूर हो जाती थीं,लेकिन इतनी भी नहीं,जैसे कि,सुबह का खाना,शाम को बासी नहीं माना जाता है.
पति-पत्नि को,बांधे रखने का ( कह नहीं सकते किस रूप में) यह एक कारगर शगुल था,सुबह की खट-पट, ईडियट्बाक्स से निकली खबरों पर आकर तिरोहित हो जाती थीं,पति-पत्नि, चाय की प्यालियों के साथ-साथ,खबरी समोसों के चटकारों के साथ,अपने मौनवृतों को तोड ही देते थे.
अखबारी जमाने में,मुख्पृष्ठ इतना कीमती होता था कि,कभी-कभी,छीना-झपटी में उसकी धज्जियां उड जाती थीं.
अधिकतर खबरें, पोजेटिव होती थीं---
जैसे कि,किसान परिवार के बेटे ने गांव की पाथशाला से प्राथमिक शिक्षा पाकर,खेतों में,गुडाई-निडाई कर के,पिता के द्वारा कुछ बीघा जमीन बेच कर,अपने होनहार बेटे को ,उच्च शिक्षा के लिये शहर भेज दिया,और उसने भी अपने माता-पिता की आंक्षाओं को पर लगा दिये—प्रशासनिक सेवा में, प्रथम स्थान पाकर.
घर के,अन्य पढने वाले बच्चों के लिये,ऐसी खबरें उम्मीद की किरण होती थीं.वे बिना कहे ही समझ जाते थे—अपने माता-पिता की आक्षाओं को.
उन्हें भी,असम्भावित मंजिल,संभावनाओं के फूलों से महकती हुई जान पडती थी.
ऐसे ही,देश पर कुर्बान होने वालों की शहीदी महक से,अखबार महकते रहते थे.
बुजुर्ग माता-पिता को,एक कम संसाधन वाला पुत्र,उनकी जीवन भर की मनोकामना पूरी करने में लगा है.अपने बलबूते पर,उनको तीर्थयात्रा पर ले जा रहा है.
घर-घर, श्रवण्कुमारों का आर्भिवाव होने लगता था. कारण बहुत होते थे, समाजिक मर्यादा को बचाये रखना,छुपी हुई आंक्षाएं---
ऐसे ही, भाई ने कच्चे धागों की कीमत,अपना सब कुछ देकर,बहन का घर बसा दिया.
संभावनाएं चारों तरफ थीं,आशाओं के जन्म, नित-नई सुबह होते थे—आभाव,भावों से भर जाते थे.
परंतु,आज स्थिति,इतनी भायाभव हो गई है,कि,बालकनी से अखबार उठाने की इच्छा ही नहीं होती है,एक भय लगा रहता है, कि अखबार खोलते ही,खबरें बलत्कारों की होंगी,हत्याओं की होंगी,घोटालों की होंगी,नेताओं के झूठे वादे होगें,हाइवे पर मौतों के,नंगे नाच होंगे,खून से लथपथ देहों के दर्शन होंगे,और बाकी बचा तो,पेट्रोल की कीमत बढ गई होगी,गैस इतनी महंगी हो गई होगी कि,दो वक्त का खाना बनाना भी मुश्किल हो जाएगा.
मेहमानों की प्रतीक्षा कौन करे,घर के दरवाजे बंद रखने में ही भलाई है.


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