Saturday, 3 September 2022

       नशे  ,नशे  में  फर्क  नहीं

       फर्क  है तो ,  असर  नहीं


                                      नशे,नशे  में  फर्क  नहीं,फर्क  है  तो असर  नहीं

                                      नशा हो  बोतल  का या  हो पीडाओं  से  जाम भरा

                                       या ,आंसू  की  गर्माहट  साँसों  में  आई  उतर

                                       या, काँधे  ढलक  गए ,अपनों  की  अनदेखी  से  .

                                                      या , अपनों ने हो  छला  पुनः पुनः

                                                       रख  हाथ  कंधों  पर  धोकों  का  

                                                        या , तिरिष्कार  के  तीर बिंधे

                                                        लहू  शिराओं  से रिस  भर  आया  हो  जामों  में .

                               या,  दरवाजे  से  विदा  हुई  अर्थी  कोई  अपने  की

                               घर,खाली  खाली हो ,भर  आया  हो  जामों  में .

                               यह  तेरी  मधुशाला  है,यह  मेरी  मधुशाला  है

                               कुछ  ,कुछ  कुछ  ,कुछ  भरा  ,भरा  .

                                                    हर  कोई  यहाँ  पीता  ह हर  कोई  यहाँ  जीता  है   

                                                    कोई  भर ,भर  जाम  झूमता  ( सूफी  सा)

                                                    कोई  अधभारा  जाम लिए राजा  से  रंक बना .

                                                      बस .  एक  गुजारिश  नौसिखिये  की

                                                       पी ,  पी  , पी  ,  बस  जी  भर  पी  कर  जी  .

 



                                               





Wednesday, 31 August 2022


                                         नीले ,पीले  ,सफेद , गुलाबी  फूलों वाली  घास और  गुब्बारों  वाले  फूल 

  अब क्यों  नज़र  नहीं  आते  ? 

   खबरें  आने  लगीं  हैं इस  दशक  के अंत  तक  हम  चाँद  पर बसने  लगेंगे  .वहां  की  मिट्टी पर  कुछ  फसलें भी उगाई  जाएँगी  शायद  लाल  पत्ते  वाली ,  टेढ़े ,  मेढ़े गोभी भी उगाये  जाएंगे .

खैर, विज्ञान  की  ललक भरी  दौड़  और  पहुँच बेशक कहाँ  से  कहाँ  तक पहुंच  गई  है तो सोच  कर विश्वास नहीं  होता  है--और देखकर  विश्वास  भी  करना  होता  है.

मैं  ,अभी  अपने लिखे  संसमरणों के  पन्नों को  टटोल  रही  थी  और  आँखों  के  सामने  नीले ,पीले  , सफ़ेद ,गुलाबी  ,वाली  घास  बिछ  गयी  और  स्कूल  की  बाउंड्री  पर  नीले ,नीले गुब्बारे नुमा  फूल  लटकते नजर  आने  लगे .

कब  तक  ऐसी  हरी  घास रंग बिरंगे  फूलों  वाली बिछ  जायेगी ,चाँद  की  माटी पर --एक प्रश्न  हमेशा  ही 

उग   आयेगा  कुकुरमुत्ते के फूल  जैसा .

चलिए--इंसान  अपने  आस्तित्व  की  कोशिकाओं  में  खोजी  जींस  लेकर  पैदा होता  है सो  खोज जारी  रहेगी  उसके  आस्तित्व  के  साथ.

चार ,पांच  दशक  पहले  तक हम  प्रकृति  को  इस तरह  आत्मसात  करते  थे  जैसे कि वह  हमारे जीने  के  लिए  आक्सीजन  हो .

आस ,पास  फैली  सोंधी  माटी  पर  ना  जाने  कितने  तरह  की  घास  यूं  ही  बिछ जाती  थी  और  उस  घास  पर  उगे  छोटे ,छोटे  नीले,,पीले ,सफ़ेद  ,गुलाबी  फूल  हमारे तलुवों  को  छूते रहते  है.

ना  जाने  कितने  फूलों  को  हम  जाने  अनजाने  कुचलते  जाते  थे  फिर  भी ओस  में  भीगे वो फूल  तलुवों  को  अपने  प्यार  से सिक्त  करने  से  नहीं  चूकते  थे .

उन्हें  कुचल  जाने  पर  भी  कोइ मलाल  नहीं होता था--दूसरी  सुबह  उनकी  जगह उतने  ही  फूल  सुबह  की  कच्ची  धुप  में  मुस्कुरा  रहे  होते  थे .

दीवारों  व पेड़ों  की  मोटे , मोटे  तनों  से लिपटी बेलों  पर  लदे ,फदे  नीले ,नीले  गुब्बारेनुमा  फूल जिन्हें  हम  तोड़  कर गुब्बारों  की  तरह  फुला  कर फट,फट कर  के फोड़ते  रहते  थे.

उंगलियाँ हमारी  नीली ,नीली  हो  जाती  थीं .

वो फूल  अपनी स्मृतियों  को  हमारी  उँगलियों  की  पोरों  पर  छाप  जाते  थे.

और वो  स्मृतियाँ  अभी  भी  मेरे  पास  हैं क्योंकि स्मृतियाँ तभी  मरती  हैं जब स्मृतियों वाली  उँगलियों के वजूद  मिट  जाते  हैं.

आज  कितनों  के  पास होंगी  वो स्मृतियाँ  नीले ,नीले पोरों वाली ?

रंग ,महक ,स्व्वाद  से सरोबार  है  आस्तिव ,लेकिन  हम  जीते  हैं  ,पत्थरों  की  तरह  .




Wednesday, 17 August 2022


                                             साधारण   होने   का  चमत्कार 

          झेन  गुरुओं की  एक  अनूठी परंपरा रही है बुद्ध के समाकालीन जो मुख्यत  जापान में 

         विकसित हुई.
          झेंन  गुरू अद्भुत होते थे  सभी परंपराओं से परे,सभी विश्वासों को  खंडित कर  साधारण होने विश्वास रखते थे .
        उनकी  पूरी कि पूरी आस्था साधारण होने में होती हुई   सभी  अहंकारों  के  बांध  को  तोड़ती  हुई नदी के सहज,सुगम प्रवाह  में परिवर्तित हो जाती  है.
     यही गूढ़  रहस्य सभी  अध्यात्मिक  आधारों का  है लेकिन अहंकार से मंडित  होने  की  शाश्वत आकांक्षा  के कारण  कितने अंधविश्वासों के कुकुरमुत्ते उग  आए  हैं जो हमें  साधारण रहने  नहीं देती  और  मानव  जाति सदियों से  अपने  ही  बनाए  अहंकारों  की  जंजीरों में  जन्मा से मृत्यु तक जकड़ा रहता है .
    

आइये  एक  छोटी  सी  कथा के  माध्यम  से  उनकी  धारणाओं को साधारण होने  की  कला के  चित्र  को निहारें,कुछ  पल------

एक  दिन  झेंन  गुरू  बांके  अपने  कुछ शिष्यों के  साथ  नदी किनारे  बैठ  कर  कुछ चर्चा,परिचर्चा कर रहे 

थे,उसी  समय  दूसरे  पंथ  के एक  गुरू  वहां  आए  और  शेखी   बघारने  लगे---हमारे  गुरू  नदी  के  इस पार हाथ  में  ब्रश  लेकर  नदी  के  उस  पार खड़े आदमी  के  हाथ  में लिए केनवास पर  चित्र  बना  सकते  हैं,

आप  क्या  कर  सकते  हैं  क्या कोई  ऐसा चमत्कार  कर सकते  हैं  ?

झेंन  गुरू  बांके ने सहजता  से  उत्तर  दिया----

मैं तो  केवल  एक  चमत्कार  जानता  हूँ , जब  भूख  लगती  है  खाना  खा  लेता  हूँ  ,जब प्यास  लगती  है पानी  पी  लेता  हूँ,  जब  नींद  आने  लगती  है, सो  जाता  हूँ.

 कोइ  साधारण होना  नहीं  चाहता  . उसका अहंकार  उसे  साधारण होने नहीं  देता.


ओशो  से  उद्धारित  एक  झेन  कथा.



Monday, 15 August 2022

                      

                             खुद को निश्चिन्त रखिये-----

       आदतन नींद सुबह जल्दी  खुल  जाती  है  यदि रात को  अपने  नियत  समाय  पर सोना  हो  जाए  और नींद  क्रम  सुचारू  रूप  से  करीब  तीन  घंटे, दो  घंटे, एक  घंटे के क्रम से  पूरा  हो  जाए.

रोजमर्रा केवल  श्रम  वाले  कार्य नहीं  होते  हैं  कुछ  काम  मानसिक  स्तर  पर  भी  करने  होते  हैं.

जैसे जरूरी  कागजातों  को  क्रमबंध करके  सही स्थान  पर रखना ताकि, समय पर  सही  स्थान  पर मिल जाएं.

साथ  ही  उन  कागजातों  को  पुनः उसी  क्रम  में,उसी  स्थान पर उसी  योजनाबद्ध तरीके  से  रखने की स्वतः कृत  आदत  बनी  रहे .

यदि  कभी  किसी  कारणवश इस  क्रम  को,इस  योजना  को  बदलना  पड़े  तो  आवश्यक  है  इसे  क्रमवार  मस्तिष्क के  डेस्टोप में  ,स्मृतियों  की  फाइलों में  क्रमबद्ध तरीके  से स्टोर कर दिए  जांए.

और,  उनकी कोडिंग करके , शांत  मन  से,स्थिर शरीर  से   दोहरा  लिया  जाए.

शारीरिक  श्रम  के  कामों को तो हम प्रतिदिन  करते  ही  रहते  हैं और  आदतन  उसी  क्रम  में  करते  चले  जाते  हैं  .

और,

 कभी  कोइ  काम  आगे,पीछे हो जाए या कम हो  जाए,या  कि, बिगड़ जाए तो  ज्यादा से  ज्यादा कुछ समय  का  नुकसान  हो  जाता  है  या  कि,सामान  का.

समय  तो  हमारे  पास  वैसे  ही पडा रहता  है और रही  सामान  की  बात तो हमारा  दार्शनिक भाव इन  सबको को---दुनिया  आनी जानी,सब कुछ भ्रम है,के सत्य की पुडिया बना कर  फांक  लेता  है.

लेकिन  जरूरी दस्तावेजों,चाबियों,  A T M card  आदि  के  मामलों  में  स्थिति भिन्न  हो  जाती  है यदि वे  समय पर  और उसी  जगह  पर  ना  मिलें.

ऐसी  स्थिति में  केवल मानसिक  दवाब  ही  नहीं  बढ़ता है शारिक व्यवस्था  भी  चरमराने  लगती  है.

भूख  कम  हो  जाना, नींद का  ना  आना , क्रोध जो कि खुद पर  कम दूसरों पर  अधिक आने  लगता है,  और व्ववहार का बेतुका  हो  जाना. और  भी  सईड  एफेक्ट  हो सकते  हैं निर्भर  करता  है व्यक्ति पर और  उसके  हालातों  पर.

इसी  सन्दर्भ में ,मैं  एक घटना  का  जिक्र  करना  चाहूंगी.

कुछ  कारणों से अधिकतर  समय मैं  अकेले  ही रहती हूँ. अधिक सूरक्षा की  हीनभावना  के  कारण सभी  कमरों  में  ताले  लगा  लेती  हूँ जब  सोने  जाती  हूँ.

एक रोज सुबह जब उठी तो  अन्य  कमरों  की  चाबियाँ उस  स्थान पर नहीं  मिली  जहां उन्हें  रखती  थी.

नींद  पूरी  तरह  खुल  भी  ना  पाई  थी,शारीर भी चैतन्य ना  हो  पाया  था  मगर  दिमाग तेज रफ़्तार  काम  करने  लगा-----

ताले  तुड़वाने  पड़ेंगे

ताले  बेकार  हो  जाएंगे.

नए  तालों  का  खर्चा  कितना  होगा.

अभी  Lock Down में  कौन  आएगा.

अगर कमरे बंद पड़े रहे  तो  घर कैसा  लगेगा.

वगैरह,वगैरह---

ऐसी  स्थितियां सभी  के साथ,कभी  ना  कभी  आ  ही  जाती  हैं अब और ऐसी  स्थिति  से  कैसे  निबटते  हैं---

मैंने  उन  दिनों  कुछ नया  सीखा जो कभी  किताबों नहीं पढ़ा  था  ना  ही  किसी  ने पढ़ाया .

अब  पता  नहीं  कागजों  की  डिग्रियां  कागज़  के शेरों  के  समान  किसी  फाइल  में लिपटी  पीली पड़  गयीं  होंगी.

इस  कुचक्र  से  निकालने  के  लिए---

सबसे  पहले  खुद को  लताड़ा--बेवकूफ,  इसा घर में तुम्हारे  अलावा कोइ और रहता  है  क्या?

भूत  प्रेत  भी  आ  गए  हों  तो वो  क्या  करेंगे  इस  कचरे  का ?

चोर अगर  आ  जाते  तो  ताले  तो वैसे  ही खुले  मिला  जाते.

सिलसिलेवार  १---

१.  स्वमं  से वार्तालाप

२.  खुद को लताड़ना

३. खुद  को  भरोसा  देना--मैं  हूँ  तो जहां है.

४. इससे पहले  कितनी  बार  ताले  तुदवाए ?

५. Lock Down कभी  तो  खुलेगा . 

सिलसिलेवार  २----

१. एक  गिलास गुनगुने  पानी  में  जोली  तुलसी  की  १०,१२ बूंदे  डाल कर आँखों को मूंदे सिप,सिप कर आनंद  लेने  लगी.

२.  गैस  पर  उबलती  चाय  को बड़े  से  मग में छान कर गहरे  सोफे में समा कर  अखबार के कुछ पन्ने पलटे तब तक  चाय  पीने  लायक ठंडी हो गयी.

३. टोस्ट के डिब्बे में  से एक टोस्ट निकाल कर कुतरने  लगी .

४.आनंद में डूबी ,अचानक हाथ बालों तक  चला  गया और  आदतन खुजाने लगी.

५.सोचा ज़रा कंघी से बालों को ठीक  कर लूं--

६. तुरंत चाबियों का गुच्छा  मेरी नज़रों के  सामने पडा  था.

७. क्योंकि, एक कंघी  बाथरूम के सिंक पर रखलेती  हूँ,सुविधा के लिए.

८.  मैं सिंक तक पहुँची भी ना  थी और मुझे  मेरी  चाबियाँ मिल  गयीं.

  यह मस्तिष्क सब कुछ स्टोर किये रहता  है बस हमें सही कोडिंग  करनी  होती  है .

     


    

                                               
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Friday, 12 August 2022


                         आदमी एक बीमारी है अपने आप में क्योंकि,                                             वह अधूरा  पैदा होता है-----

             

आदमी  पूरा  पैदा  नहीं  होता  है . आदमी  जन्म  का  अधूरा  है .

सब  जानवर  पूरे  पैदा  होते  हैं. आदमी  अधूरा पैदा  होता  है. वह जो  उसकी  पूरा  होने  की  स्थिति है इसलिए यह उसकी डिसीज है. वह  इज में  नहीं  है इसलिए वह  चौबीस घंटे  परेशान रहता है.

ऐसा  नहीं है,  आमतौर  से  हम  सोचते हैं  कि,  एक  गरीब  आदमी  परेशान  है,क्योंकि,

 गरीबी है.

लेकिन हमें  पता  नहीं है,कि आमीर  होते  ही से  परेशानी  का तल बदलता  है, परेशानी  नहीं  बदलती  है.

सच  तो यह  है कि, गरीब  इतना  परेशान  होता  ही नहीं  है जितना  अमीर  परेशान  होता  है.

क्योंकि, गरीब  के  पास  एक  जस्टीफिकेशन  है कि उसकी  परेशानी  का  कारण उसकी गरीबी  है,अमीर  के  पास ऐसा कोइ  जस्टीफिकेशन  नहीं इसलिए उसे  समझ  ही  नहीं  आता कि वह परेशान क्यों है.

और जब परेशानी  अकारण  होती  है  तो परेशानी  भयंकर  होती  है.

जैसे किसी  बीमारी  का  स्पष्ट कारण पता  चल  जाता है उसका  इलाज  भी  समझ में  आ  जाता है,और इलाज  किया  जा  सकता  है.

हालांकि,मैं पसंद  करूंगा  गरीब के दुःख  की  बजाय अमीर  का सुख  ही  चुनने योग्य है.

जब दुःख  ही  चुनना है तो अमीर का  दुःख  ही  चुनना  चाहिए,  लेकिन  बैचेनी  की  तीव्रता बढ़  जाएगी.

                                     ओशो के  विचार,सादर के साथ.





Sunday, 7 August 2022

                                                  हम तो सुकड़  रहे हैं ,हमारे  मन  के  आँगन  कहाँ  खो  गए -----प्रभु

                         



वैसे तो बदलाव जीवन की रीत है. दुनिया घूम रही है अपनी धुरी पर सूर्य भगवान को छोड़ सभी ग्रह घूम रहे हैं.पूरी कि पूरी कायनात घूम रही है फैल रही है,सुकड रही है?

हम हथियार बना रहे हैं,खरीद रहे हैं,बेच रहे हैं,लड़ रहे हैं, लडवा रहे हैं.

  दो बरस  पहले एक  त्रासदी से गुजर कर जो लोग बच गए वे सामाजिक त्रादसी में फँस चुके हैं.

शायद  हम ऐसे समय के मोड़ पर आ गए  हैं जहां कोइ ना  कोइ  त्रासदी हमें घेरे रहेगी,ना जाने कब  और कैसे कौन  सी  त्रासदी  बिना  आहट  हमें सामूल निगल जाय,जिसे  कहने  और सुनाने को कोइ आसा,पास भी ना हो.

कोरोना के बाद तुरंत ही हम  सामाजिक त्रादसी में घिर  चुके  हैं.स्वम पर विश्वास नहीं रहा,औरों पर विश्वास टूट गया और भगवान भी विश्वास के काबिल नहीं बचा.

जब भगवान ह्रदय के मंदिर से निकल कर बाजारों में भटकने लगे,जब वो इतना कमजोर हो जाएं कि वो अपनी  साख को भी  ना  बचा पाए ,लोग उसके नाम  पर अमानुष हो जाएं तो भगवान की  धारणा भी खोखली है.

ऐसे ही जैसे भगवान कमजोर हुए वैसे  ही मनुष्य भी रीढ़ की हड्डी के बगैर हो गया.

रिश्ते तो ऐसे धुल  धूसिर हुए  कि, उन्हें  नाली में गिरी  चवन्नी की  तरह ढूँढने के सामान हालात हो गए.

अब अगर नाली  में गिरी  चवन्नी अगर ढूंढ भी ले तो नाली की बदबू तो बनी रहेगी. उस चवन्नी को ना तो मुट्ठी में रख  पाएँगे  ना ही जेब में.

रिश्ते नाते  ना हुए गोया कैंची हो गयी कतरते रहो  एक, दूसरे को.

मंहगाई तो  सत्तर सालों से देख रहे हैं शायद ही कभी  ऐसा हुआ हो जब हमने मंहगाई का रोना ना रोया हो,आज भी रो ही रहे हैं.

लेकिन मंहगाई,मंहगाई में फर्क जरूर है .दस,बीस बरस पहले की  मंहगाई के दौर में जब कभी मेहमान या नाते,रिश्ते वाले आ  जाते थे थाली में एक दो कटोरी का इजाफा हो ही जाता था. रोटियाँ गिन,चुन कर नहीं बनती  थीं वरन गाय  वा कुत्ते की  रोटी  भी  याद से बनती  थी.

धीरे,धीरे हमारे मन सुकडने लगे कटोरियों का इजाफा कम हो गया रोटियों की गिनती होने  लगी घर की गृहणी के ललाट पर लाइनें दिखने लगीं.

बड़ी जल्दी वह दौर भी आ  गया माथे की लकीरों ने होठों की मुस्कराहट भी समेट ली.

और,अब तो साहब अगर बुलाना बहुत  ही सामाजिक हो जाए तो पहले तो बामुश्किल बुलावा  आ जाता है मोबाइल से लेकिन दो  घंटे बाद ही मोबाइल की  घंटी बज उठती है---सोरी,  बूआ जी ऐसा है हमारे पड़ोस वाले घर  में मरम्मत का  काम चल रहा है हमारी बालकनी  घिरी पडी है,अब आप १०,१५ दिन का प्लान बना  लीजिये.

 पड़ोस के घर  की  मरम्मत से मेरे आने का मेलजोल,समझ के परे है.

दूसरी  बात राखी का  त्यौहार ४ दिन बाद है १०,१५ दिन बाद जाने का क्या प्रयोजन ?

खैर,आज की मंहगाई ने लोगों के दिलों को इतना सिकोड़ दिया है कि,हम आत्मविश्वास से रीत गए गए हैं.

यहाँ तो  एक प्रकरण हैं ऐसे  ही कई रूपरेखाएँ देखने को मिलती  रहती  हैं.

मुझे लगता  है पहले लोगों के घरों के बजट में मेहमान और त्यौहार दौनों ही शामिल हुआ  करते थे.

दूसरी  बात पहले की  गृहणियां ज्यादा समर्थ थीं घर,रसोई,और नाते रिश्तों को सहेजने में.

अब की मंहगाई में सोशल मीडिया का जहरीला स्वाद मिल रहा है और इस तड़के ने रिश्तों के स्वाद बिगाड़ दिए,.

अब रसोई पकती नहीं है,अब जोमोटो वाले दरवाजों की घंटियाँ बजाते है.

हमारे घरों के  आँगन तो ना जाने कहाँ चले गए--

मनों के आँगन भी खो गए. 


 

    

    

Thursday, 4 August 2022

     

                              बचुवा  ---पहले  अपना घर   बुहालीजो

      हम  सामाजिक  प्राणी   होने के नाते खुद से ज्यादा औरों की फ़िक्र अधिक करने लगते हैं  और इस आपाधापी में  खुद  के घर  की  सफाई  करना  भूल  जाते   हैं .
       
सांत   कहते आये  हैं--- बचुआ, अपनी झुपदिया  बुहार   लेवो,पहले.
  हम संतों  की  वाणी  चार  कान  लगा  कर  सुनते जरूर  हैं  लेकिन ,उन  कानो  के  आर, पार  छेद इतने  साफ़ सुथरे होते  हैं  इधर गए संत  वचन  उधर  से निकल गए.

मित्रो,  इतनी  बड़ी  भूमिका मैंने इसलिए बांधी है  एक सरल,सटीक,बात को कहने   के  लिए   कि, हम सभी, कभी  ना  कभी ऐसे सामाजिक सफाई  रिश्ते,नातेदारों  की  औरों के घरों  को  बुहारने  की  आदत के भुक्तभोगी  रहे होंगे  .

 मैं  भी  भुगतती रहती  हूँ   और  कुछ  ज्यादा ही.
इसा कृपा के  कई  कारण हो  सकते  हैं--पहला  सबसे  बड़ा  कारण है कि,
मैं  , कुछ  अपने  तौर तरीके वाली हूँ,दूसरा कारण हो सकता कि, अकेले स्वतंत्र जीवन को  जी रही हूँ.
 इन सामाजिक कर्ताओं को  मेरे  घर के  आगे कचरा   चाहे  जब दिखने लगता है और मेरी  गैरहाजिरी  में भी मेरे  घर  की  देहरी तो झाड जाते हैं,चूंकि  घर  बंद  मिलता है तो  घर के  अन्दर  झाडू नहीं लगा  पाते हैं यह सूचित  करते  हुए----आपका  घर   कई रोज से बंद है,आप कहाँ घूम रहे  हैं  .

मैं उन्हें  धन्यवाद के साथ एक संत नसीहत देना  चाहती हूँ---बचुआ, पहले 
अपनी झुपदिया   भुहारालीजो ,तब जैबो औरों के दरवाजे.

                                                                    एक  महाभुकभोगी
       

                                                              धन्यवाद  जी.