Sunday, 31 May 2015

Love is like-Exhalation;


  
Love is like-Exhalation;
Your energies go out to meet the Other Person.
Meditation is-like Inhalation;
Your energies go to the deepest core of Your Being.

 
कुछ गमलों में,
कुछ पौधे रोपे थे,
कुछ बोगनवेलियां
कांटों से उलझती सी
लटक आईं थीं,
बालकनी में,मेरे
कुछ पौधे,बेनामी से,भी
माली ने रोप दिये थे,
जिन पर कुछ फूल,
बेमानी से,खिल आए थे
अनमने से—
एक गमला,मिे्ट्टी-खाद से भरा
बीज से खाली---
रखा था,एक कोने में,
मेरी बालकनी में—
सूखी गरमी की ताप ने,
दहका दिया था उसे,
मेरी भी अनदेखी ने,
चटका दिया था,उसे
कुछ दिनों बाद,
वक्त की बरसात हुई
सभी गमलों पर बौछार हुई
वह भी,कुछ बूंदों को पाकर
सिक्त हुआ,आभार से
और,
एक दिन,दो पाती में
बीज एक—जो
बोआ ही नहीं था,मैंने
पुरवैया में झूंम रहा था,
अरे!!
तुम कौन हो?
उसे छूने लगी—
उसकी ठंडक को
सांसो में भर—
पीने लगी---
वह हंसा!!!
ठहरो जरा?
अभी तो दो-चार पाती हैं,
कुछ दिनों बाद,
तुम्हारे और गमलों की तरह
मैं भी भर जाऊंगा,पातियों से
डालियों से---
कुछ बंद कलियां भी खुलेगीं
और,फूल बन महका जाएंगे,
तुम्हारे,आज को—
जो,तुम्हारे कल के बीज थे??
और,हर रोज उनकी महक
पी लेना---
बंद आंखो से छू लेना, उन्हें
या फिर---
खुली मुट्ठियों में, बंद कर
रख लेना---
तकिये के नीचे, उन्हें,
जैसा तुम चाहो???





Tuesday, 26 May 2015

गलीचा---एक गलीचा रिश्तों का,मैने भी बुना था?

जब छोटी थी
तब,मां ने सिखाया था
गलीचे के धागों को पिरोना
हजारों गाठों को हजार गाठों से जोड़ना
             एक बार भूल हो गई
             गलीचे की हजार गांठों में
            एक गांठ कहीं छूट गई
            और गलीचे पर उभरे
            मोर-पंखों की पांते
            बिखर गई थीं.....
तब,सोचा कि
उधेड़ कर फिर से
हजार  गांठों से
हजार गाठें जोड़ दूं
             पर फिर वो जुनून न था
             जो पहले जीवन में भरा था
            अब वह रीत गया था
            और गांठों के मोर-पंख
            कही बिखर गये थे......
तब,मां ने कहा था
अब तुम रिश्तों के गालीचे पर
रिश्तों के मोर-पंख बिनोगी
ध्यान रखना कि एक भी गांठ रिश्ते की
कही छूट न जाय
मोर-पंख टूट कर बिखर जाएगें
तब रिश्तों का गलीचा
दरवाजे पर बिछा
एक पैर-दान की तरह बिछ जायगा


                           
(मन के-मनके)

Wednesday, 20 May 2015

खयालों की तितलियां---


पंख फडफडा रही हैं

रात का पहला पहर है

अकेलेपन की सहर है

सामने बे-नूर से चेहरे

अपने बेसुरीले सुरों में

रोज की तरह आज भी

काले पर्दे पर---

बे-वजह के उत्पात मे मशगूल

आदतों से बे-जार से—

गलों को दे रहे हैं,तकलीफें

शायद—दिल की धडकने भी हो जाएंगी

बे-रफ्तार सी---

और,एम्बुलेसों की हूटरों में

अनसुनी सांसे,तीमारदारों की मजबूरियां

किसी अस्पताल में---

खाली जेबों में बंद हो

लौट आएंगी---

अपने-अपने घरों में,

बात शुरू करने के लिये,कभी-कभी नये-नये अंदाज-ए-बयां को ढूंढने के लिये हाथ-पैर मारने पडते हैं---सो मैं भी आज कुछ यही कर रही हूं—

क्षमा करें—बात कहना तो चाह रही थी गद्ध में और पद्ध से शुरू हो गयी.


पन्नों की पुरानी कतरने छांट रही थी,तीन कतरने हाथ लगीं,कभी काट कर रख दी थीं,फुरसत से पढने के लिये,और भूल गयी.

ऐसे ही हम जीवन में भी भूले करते रह्ते हैं--और हीरे छूट जाते हैं—कांच के टुकडे मुट्ठी में जकडे,हथेलियों को घायल किये उम्र जी लेते हैं---और हूटरों के शोर में गुम हो जाते हैं

पहला टुकडा---केल्हो पाउलो के एक उद्धरण से जो उनकी पुस्तक ’लाइक द फ्लोइन्ग रिवर’ से है.

जिसमें वे अपने एक संस्मरण को उद्धरित कर रहे हैं—

वे एक लेखक से मिलना चाहते थे उन लेखक का नाम—हेनरी मिलर था.लेकिन वे उनसे मिल पाए उनकी मृत्यु के बाद, (अक्सर हम देर कर देते हैं)

उनकी पत्नि (दूसरी) जापानी मूल की महिला थीं,जिनसे मिलने के लिये वे गये ताकि उन लेखक के प्रति अपनी भावनाओं व संवेदनाओं को उनकी पत्नि तक ही पहुंचा सकें.

जिस स्थान में उन लेखक की पत्नि रह रही थीं बहुत ही सामान्य जगह थी हालांकि लेखक

का स्थान लेखन-जगत में स्थान रखता था.

उनकी पत्नि ने अपने विख्यात पति की धरोहर को करीने से सजो कर रखा और स्वम एक गुमनाम जिंदगी में केवल अपने पति की उन यादों के साथ उतर गयीं जहां कोई उनकी अपनी पहचान भी नहीं थी.

हां, उनके लेखक पति की किताबों की राइल्टी की कीमत उनकी पहली पत्नि व उनके बच्चों तक पंहुच रही थी.

काल्हो पाउलो ने चलते समय उनसे आग्रह किया कि वे वही गीत सुनाएं जो अपने पति को सुनाया करती थीं---

और, नम आंखो से---वे गाती रहीं,उसी मधुर आवाज में—वही गीत जो वे अपने पति को सुनाया करती थीं---जब वे जीवित थे.

उनकी आंखों में सिर्फ प्यार था---कोई दुख नहीं था,कुछ ना मिलने का.

I think,love really was enough. Paulo Caelho.

Pl.wait for more ----.

Sunday, 17 May 2015

जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक हैं---


जीवन में सभी सौंदर्य अतिरेक है,सभी सौंदर्य ’ओवरफ्लोइंग’ है,ऊपर से बह जाना.

जीवन के सब आनंद भी अतिरेक हैं,जीवन में जो भी श्रेष्ठ है---अतिरेक है.

महावीर और बुद्ध राजाओं के बेटे हैं,कृष्ण और राम भी राजाओं के बेटे हैं,ये ’ओवर्फ्लोइंग’ है.

ये जो फूल खिले हैं,गरीब के घर नहीं खिल सकते थे.कोई महावीर गरीब के घर पैदा नहीं होगा,कोई बुद्ध भी,कोई राम भी,कोई कृष्ण भी गरीब के घर पैदा नहीं होंगे.

ताजमहल भी वैसा ही एक फूल है.वह सब अतिरेक से निकले हुए फूल हैं.

गरीब के घर फूल कैसे खिल सकते हैं?

गरीब सिर्फ जी सकता है---उससे फूल खिलने का कोई उपाय भी नहीं है.

(ओशो—संभोग से समाधि की ओर )

Monday, 11 May 2015

एक धरती और उत्पाती मनुष्य--आएं खोजे उसको,जो है कण-कण में!!!


निह्संदेह दो शीर्षक कौतुहूल पैदा कर रहे होगें,परंतु कभी-कभी एक से बात बनती नहीं है,सो दो को ही लेना श्रेयकर लगा---विरोधाभास ही पूर्ण का आधार है.गुनी कह गये हैं और ऐसा हमें भी जान पडता है.

ओशो के एक उद्धरण से जिसको मैने पढा है उनकी बहुचर्चित मासिक ’यस ओशो’ में और उसी को आधार  बना कर मैं कुछ कहने का प्रयास कर रही हूं,एक स्वम-सोची विधा के साथ.

आशा है,पठनीय होगी---.कुछ तथ्यों को मै सुविधानुसार काट-छांट कर रही हूं लेकिन तथ्यों को बगैर छेडे हुए. (जो कि ओशो द्वारा उद्धरित किये गये हैं,उनकी पुस्तक ’द डिसीप्लिन आफ़ ट्रांसेडेंस’ में.)

इस धरती का प्रत्येक प्राणी एक आंतरिक्ष यात्री है,जिसके लिये किसी ने भी कभी कोई प्रशिक्षण नहीं लिया.(अन्यथा इसके लिये हमें वर्षों की तैयारी करनी होती किसी खास योग्यता के साथ.)

हम इस यान में ६६६०० मील प्रति घंटे की रफ्तार से आंतरिक्ष में तैर रहे हैं,इसके साथ ही हमारी धरती अपनी धुरी पर भी १००० मील प्रति घंटे की रफ्तार से घूम रही है.

हम हर वर्ष इस यान पर सवार होकर सूर्य का एक संपूर्ण चक्कर लगाते हुए ५०० लाख मील की यात्रा पूर्ण कर लेते हैं.

यदि हम एक औसत आयु जीते हैं तब हम अपने जीवन में ७५ बार सूर्य के चक्कर लगा लेते हैं जो ३७५ करोड मील के बराबर होंगे.

ये आकडें धरती की अविश्वनीय गति के हैं.

आइये इसकी केमिस्ट्री व भौतकी के बारे में भी जान लें—और उस कलाकार,उस महावैग्यानिक,महापंडित एंव महास्वप्नकार को जानने की द्द्ष्टता कर पाएंगे कि नहीं जिसने अपना स्वप्न साकार किया और नित-नये रंगों से इसे सजा रहा है---पूरा करने की उसे जल्दी नहीं---निरंतर---और बस निरंतर---ऐसी अनूठी निरंतरता को देख कवि कुछ गाये बिना रह नहीं सकता.चित्रकार कूची उठाए बिना जी नहीं सकता---कथाकार कथनी के बिना सो नहीं सकता.

पृथ्वि नाम का यह महायान कोई जड यंत्र नहीं है,इसकी वयुमंडल की ४३० मील मोटी परत हमको सूरज से उठे जानलेवा तूफानों व आंतरिक्षीय किरणों से बचाती है.

इस परत में उपलब्ध आक्सीजन,कार्बनडाई आक्साइड और नैत्रोजन प्रत्येक जीव व वनस्पति के जीवन का आधार हैं.

पृथ्वि-यान का कोई पायलट नहीं है लेकिन इसको नियंत्रण करने के लिये हजारों अदृश्य  डायल हैं जो तापमान,आक्सीजन की मात्रा,अद्रता का स्तर आदि को नियंत्रित करते हैं और अविश्ष्ट पदार्थों का निष्कासन भी करते रहते हैं.

हमारी धरती के नीचे टेक्टोनिक प्लेट्स हमारे पर्वतों और महाद्वीपों का निर्माण और नियंत्रण  भी करती रहती हैं.

हमारी वायु में २१% आक्सीजन जिसके कारण सभी प्राणी जीवित रह पाते हैं.यदि यही आक्सीजन २४% हो जाय तो सभी कुछ भस्म हो जाय.

हमारे वायुमंडल में ७८% नाइट्रोजन जो आक्सीजन को घुलनशील बनाता है और वनस्पति के लिये खाद का काम करता है.

हमारे ग्रह के चारों ओर हजारों बिजलियों की कडक नाइट्रोजन और आक्सीजन को मिश्रित करती है और इसे धरती पर बहा देती है जिससे सम्पूर्ण वनस्पति को जीवन मिलता है.

इस अद्भुत गति से हमारा पृथ्वि-यान यात्रा कर रहा और हमें आभास तक नहीं होता!!!

हम जिस छोटे से ग्रह पर रह रहे हैं वहां जीवन है,मौसम बदलते हैं,फूल खिलते हैं,सुगंध है,संगीत है---यह पृथ्वि अनूठी है,हम भाग्यशाली हैं!!!

हमें पता भी नहीं हमें क्या मिला???

हम किसी निर्जन ग्रह पर एक पत्थर के टुकडे की नायीं पडे भी हो सकते थे??

हमें पता नहीं हमें क्या-क्या नहीं मिला??

हम इस एक जीवित ग्रह पर एक चमत्कार हैं!!!

और कितने ही चमत्कार खुलने के लिये आतुर हैं!!!

इस चमत्कार से भी बडे चमत्कार हमारी प्रतीक्षा कर रहे हैं----.

लेकिन वे तभी खुलेंगे जब हम इस चमत्कार के उत्सव में शामिल हो जायं---.

इस जीवन से भी बडा और कोई चमत्कार हो सकता है???

हम चमत्कार में ही जी रहे हैं!!!

और मेरी एक कोशिश उसको खोजने की---और मैं कवि हो गुनगुनाने लगी!!!

तू मौन सा,तू व्योम सा

तू निराकार-आकार सा

तू यहां सत्य,तू वहां व्याप्त

तू,दूर---क्षितिज तक,सागर की लहरों में

नील-शांत-अशांत,विकराल हुआ

हिम आच्छादित,शिखरों पर

इंद्रधनुष सा,व्याप्त हुआ

पिघले हिम-शिखरों पर भी

बन भागीरथ,जटा-मुक्त हुआ

जब-जब सृष्टि,क्लांत हुई

और अश्रुपूर्ण-नम-आंख हुई

तब बन किलकारी गोदी में

सपनों सा साकार हुआ

जब-जब धरती चटकी है

पेटों में भूखें पनपी हैं

तब मेघों में घिर आया तू

धरती की प्यास बुझाई है

दफन हुए,बीजों में भी

बन,नव-जीवन,फूटा है,तू

बागों में,बन बसंत,तू

रंगीन हुआ रंगोली सा,तू

भोर हुई जब-तब,गूंजा तू

सृष्टि-स्वरों में,गीतों सा तू

काल बन आया तू

बांधी जीवन की मर्यादाएं भी

बीज सरीखा बन,निर्जन जीवन का

कोख-कोख में पनपा है,तू

तू व्योम सा,तू मौन सा
 
तू निराकार-आकार सा.
 
 

 

 

 

Thursday, 7 May 2015

टोटेलिटी बनाम--सम्रगता



टोटेलिटी बनाम--सम्रगता
आइये बात शुरू यूं करते हैं---
लाओत्से (चीनी दार्शनिकऔर ओशो की मीमांसामेरी नजर में) ने पूरी  की पूरी सुराही पी ली----और नाचने लगा---अदभुत था जीवन-रस.
और यहीं से बात निकलती है---टो्टेलिटी की,सम्रगता की.
अगर किसी कविता का एक छोटा सा टुकडा किसी को दिया जाय---दो पंक्तियों का,तो उससे पूरी कविता के संबन्ध में कुछ भी पता नहीं चलेगा.
एक उपन्यास का पन्ना फाड कर पढने को दे दिया जाय तो उससे पूरे उपन्यास के विषय में कुछ भी पता नहीं चलेगा.
कोई वीणा पर संगीत बजाता हो,उसका एक स्वर किसी को सुनने को मिल जाय तो उससे उस को वीणाकार ने क्या बजाया,कुछ भी पता नहीं चलेगा.
एक बडे चित्र का टुकडा फाड कर किसी को दे दिया जाय तो उस चित्र के विषय में कुछ भी पता नहीं चलेगा.
कुछ चीजें है,जिनके थोडे स्वाद से कुछ पता नहीं चलता,जिन्हें उनकी सम्रगता,टोटेलिटी में ही
पीना पडता है----और जीवन-रस भी एक सम्रगता है—एक टोटेलिटी है.(ओशो )
परंतु आज चारों ओर जीवन की सडांध फैली हुई है---यदि हम अपनी नजर को सभी पूर्वाग्रहों से मुक्त कर लें और अपनी नासापुटों से ओढी हुई अपनी समझदारी का रूमाल हटा लें तो
हम निःसंदेह घुटन महसूस करेगें ही.
मैं एक छोटे अनुभव को कहना चाहूंगी---पिछले कुछ दिनों मै एक बहुत पुरा्ने मुहल्ले में दो-तीन रोज के लियी,अपनी बडी बहन के पास ठहरी हुई थी---
एक चित्र—यूं खिचता है जिंदगी के केनवास पर---कि पास से गुजरती हुई रेलगाडी की आवाज की आताताई स्वरलहरियों में---कभी खट-खट तो कभी छुक-छुक तो कभी शटिंग की धडधडाहट, जो अक्सर रात भर चलती है---इन्हीं चिर-परिचित आवाजों की पृष्ठभूमि में जिंदगियां बीतती रहती हैं—नवजातों के जन्म के साथ,गलिेयों में बेहिसाब बच्चों के निर्बाध शोर-गुल, पुरुषों की आवाजाही-- वही दो जून रोटी की जुगाड,महिलाओं के अधखुले पल्लुओं से झांकती कुचली आशाएं,अश्रु-सिक्त स्वप्न.कोखों में अनचाहे जीवन--- जो निःसम्देह इस जीवन के अतिरिक्त बोझ ही होंगे, बुढापे जो पति-विहीन हो गये---्गाहे-बगाहे पडोस में अपनी कहानियां कहने को झांकते हैं दूसरों की खिडकि्यों में कुछ कहने के लिये और कुछ वे बुढापे जो पत्नि-विहीन हैं—औरों के चबूतरों पर दोपहरियां गुजारने को मजबूर हैं क्योंकि घरों में दीवारें हर रोज सुकुड रहीं हैं—अनचाहों के जन्मों से,अपनों के बेगानेपनों से---और कुछ स्वम की नपुंसुकता के कारण कि उन्होंने खुद ही अपने को रीता हुआ मान लिया.
और कुछ और गहरे-बोझिल-बोझ जो ता-दोपहर औरों की चबूतरियों पर मजबूर हैं—आंखो के पानी को चिथडे हुए पल्लुओं से पोंछने के लिए,मुंह पर भिनभिनाती मक्खियों को बार-बार उडाने की नाकाम कोशिश में---
यही दिन-रात है,जीवन की--- अक्सर इस पृथ्वि की बहुत बडी आबादी ऐसे ही जीती है,और ऐसे ही मरती है.
आइये इस सम्दर्भ में कुछ खूबसूरत लाइनों में उतरे जो ओशो ने उद्घोषित कीं---एक गीता कृष्ण ने कही अर्जुन को झझकोरने के लिये---और समय-समय पर हमारे बीच ऐसे ही अवतरण होते रहे हैं---ऊंघती हुई मानवता को झझकोरने के लिये.
----और ना ऐसा लगता है कि उनके जीवन में,उनके प्राणों में उन शिखरों को छूने की कोई आकांक्षा है,जो जीवन के शिखर हैं.
----हमारी जडें ही जीवन के रस को नहीं खींचती हैं और ना हमारी शाखाएं जीवन के आकाश में फैलती हैं और ना हमारी शाखाओं में जीवन के पक्षी बसेरा करते हैं----सूखी शाखाएं खडी हैं---.
----एक-एक क्षण जिंदगी भागी जा रही है,उसे मुट्ठी में पकड लेना पडेगा----.और जी केवल वे ही सकते हैं जो उसमें रस का दर्शन करते हैं.
(साभार—संभोग से समाधि की ओर. ओशो)