मन के - मनके

Sunday, 10 September 2017

आज की पीढ़ी के पास समय नहीं है --

›
आज की पीढ़ी के पास समय नहीं है -- यादों को शेयर करे  हमारे साथ जिन्हें हम संभालते आए हैं सालों साला,काले -सफ़ेद चित्रों में। मुझे आज भी याद...
6 comments:
Friday, 8 September 2017

नमस्कार मित्रों,

›
नमस्कार मित्रों, अर्सा गुजर गया-’मन के-मनके’ से रूबरू हुए. कारण कुछ नहीं था बस,कुछ कहना होता है,और, कह दिया,फ़र्क नहीं पडता कौन सुन र...
2 comments:
Tuesday, 5 September 2017

›
 समस्या यह  नहीं  है ,हम  क्या सोचते हैं - बात वहां  बिगड़ती है ,जब हम  अपनी सोच  को दूसरों पर थोपते हैं और उम्मीद भी करते हैं ,वे हमारे जै...
Saturday, 26 August 2017

›
कल जोरदार  बारिश हो रही थी 
Saturday, 24 June 2017

’जहां मैं हूं— वहां विरोधाभास है— मैं ही तो--- विरोधाभास हूं—’

›
                    शुभप्रभात मित्रों,                    सुबह-सुबह ही लिख पाती हूं,                    कुछ कह पाती हूं- ...
4 comments:
Monday, 17 April 2017

आज का अखबार और दो खबर-

›
सुबह की बेला हो,सूरज आपकी बलकनी ने पहुंच गया हो,चिडियों की चहचहाट सुन पा रहे हों और चाय का मग आपकी उंगलियों में फंसा हो- और,अखबा...
1 comment:
Friday, 17 February 2017

ठगी के तरीके

›
ठगी के तरीके दोस्तों’ठगी’ शब्द से हम सभी भली-भांति परिचित हैं. इतिहास गवाह है-बनारस के ’ठग’. पूरा अंग्रेजी तंत्र परेशान था-इस तं...
‹
›
Home
View web version

About Me

My photo
मन के - मनके
मेरा परिचय तो,अभी अभी ही बना है-’मन के- मनके’के माध्यम से!फिर भी,औपचारिता निभाते हुए-इस ’परिचय’को श्ब्दों में गूंथने की कोशिश कर रही हूं!इंन्सान का’मन’ऎसी गीली मिट्टी की नाई होता है,जंहा’अनुभूतियों’के बीज गिरते रहते है,पल्लवित होने के लिए!इसके लिए’सम्भावनाओं’की बयार बहने की देरी है और’महक’उठती ही है-चारो ओर फैलेगी ही!यह कहना कठिन है-मेरी’अभिव्यक्तियां’किस महक को लेकर हवा मे फैल रही हैं!मै,जीवन को सबसे बडी और अहम पाठशाला मानती हुं सो उसमें मेरा प्रवेश जारी है!औपचारिक डिग्रियां कागजी आवराण में सिमट कर एक फाइल में रखी हुई हैं!ग्रहस्त जीवन की उपलब्धियां पूर्ण हैं कुह नाकामियों के साथ!मै,भाग्यशाली हूं -जब आखें मूंदती हूं तो’नानी जी’’आम्मा जी’के सम्बोधन,की स्वर-लहरी कानों को झंकारित कर देती है हर जीवन मे एक’खालीपन’होता ही है सो वह (खालीपन)रंग भी जीवन के कैनवास पर चढ़ चुका है!अब एक कोशिश मे जुट गई हूं-कुछ नये रंग खोज रही हूं जिन्हे उस कैनवास मे भर सकूं!ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसकी अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला!अब,कुछ अनुभूतियों शेष हैं या यूं कहें कि अभी भी कुछ’अनुभूतियों’ मन की गीली मिट्टी पर फूट रही है- जो अभिव्यक्ती चाहती हैं साथ ही आप सभी की ओर दो शब्द- ’वाह-वाह’ के मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)
View my complete profile
Powered by Blogger.