मन के - मनके

Friday, 1 May 2015

बहुत सुंदर समीर जी.

›
हर शब्द में---एक प्रश्न,हर प्रश्न में एक छटपटाहट,  हर छटपटाहट में---एक-एक सांस की चाहत---कि,बस जी लूं---जी लूं---बस. इसी संदर्भ ...
4 comments:
Friday, 24 April 2015

जीवन और सार

›
मैने सुना है—स्वर्ग के एक रेस्त्रां में एक छोटी सी घटना घट गई. उस रेस्त्रां में तीन अदभुत लोग एक टेबल के चारों ओर बैठे हुए थे—गोतम ब...
1 comment:
Tuesday, 21 April 2015

यह जीवन बार-बार महाभारत का क्षेत्र सा,

›
यह जीवन बार-बार महाभारत का क्षेत्र सा, यह प्रश्न-- शास्वत-निरंतर ढो रहा,मानव निरंतर निरीह-सर्वहारा-अर्जुन—हथेलियों पर थामे—प्रारब...
2 comments:
Wednesday, 8 April 2015

मैंने तुम्हें--- अब,पत्र लिखना छोड दिया है.

›
              बहुत भाव थे,मन में मन में बडी चाह थी                 कि, कुछ अपनी सी लिख पाती में,जीवन की             मैं...
6 comments:
‹
›
Home
View web version

About Me

My photo
मन के - मनके
मेरा परिचय तो,अभी अभी ही बना है-’मन के- मनके’के माध्यम से!फिर भी,औपचारिता निभाते हुए-इस ’परिचय’को श्ब्दों में गूंथने की कोशिश कर रही हूं!इंन्सान का’मन’ऎसी गीली मिट्टी की नाई होता है,जंहा’अनुभूतियों’के बीज गिरते रहते है,पल्लवित होने के लिए!इसके लिए’सम्भावनाओं’की बयार बहने की देरी है और’महक’उठती ही है-चारो ओर फैलेगी ही!यह कहना कठिन है-मेरी’अभिव्यक्तियां’किस महक को लेकर हवा मे फैल रही हैं!मै,जीवन को सबसे बडी और अहम पाठशाला मानती हुं सो उसमें मेरा प्रवेश जारी है!औपचारिक डिग्रियां कागजी आवराण में सिमट कर एक फाइल में रखी हुई हैं!ग्रहस्त जीवन की उपलब्धियां पूर्ण हैं कुह नाकामियों के साथ!मै,भाग्यशाली हूं -जब आखें मूंदती हूं तो’नानी जी’’आम्मा जी’के सम्बोधन,की स्वर-लहरी कानों को झंकारित कर देती है हर जीवन मे एक’खालीपन’होता ही है सो वह (खालीपन)रंग भी जीवन के कैनवास पर चढ़ चुका है!अब एक कोशिश मे जुट गई हूं-कुछ नये रंग खोज रही हूं जिन्हे उस कैनवास मे भर सकूं!ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसकी अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला!अब,कुछ अनुभूतियों शेष हैं या यूं कहें कि अभी भी कुछ’अनुभूतियों’ मन की गीली मिट्टी पर फूट रही है- जो अभिव्यक्ती चाहती हैं साथ ही आप सभी की ओर दो शब्द- ’वाह-वाह’ के मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)
View my complete profile
Powered by Blogger.