मन के - मनके

Tuesday, 3 February 2015

यही धरा के रंग भी हैं.

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ओक्टूबर २०१४,खटीमा उत्तराखंड---अंतराष्ट्रीय साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया.जहां भारत के गणमान्य साहित्यकारों से मिलने का वा उनके साहि...
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Thursday, 29 January 2015

जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये

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जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये और मैं आज---रोते-रोते सो गयी जब मुनीन्द्र आंखे मूंद कर सो गये सीने पर गोलियां कर लीं दफन और...
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Wednesday, 28 January 2015

जोड-घटा तुम्हारी जिंदगी के

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                            कुछ कहना चाहती हूं मगर गटक लेती हूं खामोशियां---कि तुम कहीं बे-स्वाद ना हो जाओ— तुम्हें रोकना ...
Wednesday, 21 January 2015

बस कुछ भी ना होना----कुछ भी असाधारण ना होना,बुद्धत्व है.

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बाहर गली में दो बच्चे गुजर रहे थे---चहकते हुए,पैरों से रास्ते में पडे कंकडों को ठोकर मारते हुए. अमरूद के पेड पर लदे अधपके फलों को चो...
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Tuesday, 13 January 2015

My Gods Are---With Me

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  Millions   of   Gods, If One—has the Vision---wow!!! Tired---with aching steps Scaling the-----Hieghts Of   sufferings--...
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Thursday, 8 January 2015

एक पत्र माननीय समीरजी के नाम

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                     नमस्कार समीरजी, आशा है,आप सपरिवार स्वस्थ व प्रसन्न्चित होंगे. नव-वर्ष की बहुत-बहुत शुभकामनाएं. ...
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मन के - मनके
मेरा परिचय तो,अभी अभी ही बना है-’मन के- मनके’के माध्यम से!फिर भी,औपचारिता निभाते हुए-इस ’परिचय’को श्ब्दों में गूंथने की कोशिश कर रही हूं!इंन्सान का’मन’ऎसी गीली मिट्टी की नाई होता है,जंहा’अनुभूतियों’के बीज गिरते रहते है,पल्लवित होने के लिए!इसके लिए’सम्भावनाओं’की बयार बहने की देरी है और’महक’उठती ही है-चारो ओर फैलेगी ही!यह कहना कठिन है-मेरी’अभिव्यक्तियां’किस महक को लेकर हवा मे फैल रही हैं!मै,जीवन को सबसे बडी और अहम पाठशाला मानती हुं सो उसमें मेरा प्रवेश जारी है!औपचारिक डिग्रियां कागजी आवराण में सिमट कर एक फाइल में रखी हुई हैं!ग्रहस्त जीवन की उपलब्धियां पूर्ण हैं कुह नाकामियों के साथ!मै,भाग्यशाली हूं -जब आखें मूंदती हूं तो’नानी जी’’आम्मा जी’के सम्बोधन,की स्वर-लहरी कानों को झंकारित कर देती है हर जीवन मे एक’खालीपन’होता ही है सो वह (खालीपन)रंग भी जीवन के कैनवास पर चढ़ चुका है!अब एक कोशिश मे जुट गई हूं-कुछ नये रंग खोज रही हूं जिन्हे उस कैनवास मे भर सकूं!ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसकी अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला!अब,कुछ अनुभूतियों शेष हैं या यूं कहें कि अभी भी कुछ’अनुभूतियों’ मन की गीली मिट्टी पर फूट रही है- जो अभिव्यक्ती चाहती हैं साथ ही आप सभी की ओर दो शब्द- ’वाह-वाह’ के मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)
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