मन के - मनके

Thursday, 25 December 2014

ओशो---एक कहानी यूं कहते है

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ओशो---एक कहानी यूं कहते है मैंने सुना है कि एक बहुत पुराना वृक्ष था.आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे---फल आते थे ---फूल ...
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Friday, 19 December 2014

Drop This God---Start your Journey with the search for bliss.

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     ओशो—एक धारा बह रही निरंतर—किनारे बैठ कर स्नान का आनंद कैसे लिया जाय---सोचने की बात है??? लाखों करोंडों जीते हुए मर जाते रहें ह...
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Wednesday, 17 December 2014

कराह रहा है-----अपनी ही पौध पर

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                                                           मुस्कुराहटों की घाटियों में--- सरहदों की बाडें कटीली उम्मीदों की चोटि...
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Monday, 15 December 2014

एक बार एक नगर में ऐसा हुआ----

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वहां दो दार्शनिक रहा करते थे----उनमें से एक आस्तिक दूसरा नास्तिक. उन दोनों के साथ-साथ रहते हुए पूरा नगर परेशान था क्योंकि वे दोनों नग...
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Tuesday, 4 November 2014

महान मनुष्यता मैं चाहता हूं,महात्माओं की कोई जरूरत नहीं----ओशो

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ओशो यूं कहते हैं--- मैंने सु्ना है कि अमेरिका में एक लेख लिखा हुआ था------मजाक का कोई लेख था,उसमें लिखा था कि हर आदमी और हर जाति का ...
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Friday, 31 October 2014

ओशो----एक कहानी यूं कहते हैं,

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एक सुबह अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पंहुच गया था.उसका पैर किसी चीज से टकरा गया.झुक कर देखा तो पत्थरों से भरा ए...
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मन के - मनके
मेरा परिचय तो,अभी अभी ही बना है-’मन के- मनके’के माध्यम से!फिर भी,औपचारिता निभाते हुए-इस ’परिचय’को श्ब्दों में गूंथने की कोशिश कर रही हूं!इंन्सान का’मन’ऎसी गीली मिट्टी की नाई होता है,जंहा’अनुभूतियों’के बीज गिरते रहते है,पल्लवित होने के लिए!इसके लिए’सम्भावनाओं’की बयार बहने की देरी है और’महक’उठती ही है-चारो ओर फैलेगी ही!यह कहना कठिन है-मेरी’अभिव्यक्तियां’किस महक को लेकर हवा मे फैल रही हैं!मै,जीवन को सबसे बडी और अहम पाठशाला मानती हुं सो उसमें मेरा प्रवेश जारी है!औपचारिक डिग्रियां कागजी आवराण में सिमट कर एक फाइल में रखी हुई हैं!ग्रहस्त जीवन की उपलब्धियां पूर्ण हैं कुह नाकामियों के साथ!मै,भाग्यशाली हूं -जब आखें मूंदती हूं तो’नानी जी’’आम्मा जी’के सम्बोधन,की स्वर-लहरी कानों को झंकारित कर देती है हर जीवन मे एक’खालीपन’होता ही है सो वह (खालीपन)रंग भी जीवन के कैनवास पर चढ़ चुका है!अब एक कोशिश मे जुट गई हूं-कुछ नये रंग खोज रही हूं जिन्हे उस कैनवास मे भर सकूं!ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसकी अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला!अब,कुछ अनुभूतियों शेष हैं या यूं कहें कि अभी भी कुछ’अनुभूतियों’ मन की गीली मिट्टी पर फूट रही है- जो अभिव्यक्ती चाहती हैं साथ ही आप सभी की ओर दो शब्द- ’वाह-वाह’ के मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)
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