मन के - मनके

Monday, 31 October 2011

बर्फ़ के फ़र्श पर

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जिस,बर्फ़ के फ़र्श पर हम-तुम,चले थे,चार कदम,साथ-साथ                 वो,अभी पिघली नहीं है--- बेशक: ,छूटे हुए कदमों के निशां,दिखते नहीं हैं पर,उ...
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Friday, 28 October 2011

एक प्रयोग

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बन,विहग,वन-वन,विरहू पीहू-पीहू,पन----पीवूं प्रिय-पनघट पर                           तेरी,तृप्ति-तरण,तट-तक                           अंतरमन,आल्...
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Sunday, 23 October 2011

सुख की खोज

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जहां देखें,मनुष्य भाग रहा है,दौड रहा है,हांफ रहा है,क्यों?किसके लिये? वैसे तो,प्रकृति ने,इस संसार में इतने संसाधन दिये हैं,यदि वह,प्रकृति रू...
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Tuesday, 18 October 2011

Blog News: चिंता करें युवराज और पीएम इन वेटिंग लिस्ट ?

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Blog News: चिंता करें युवराज और पीएम इन वेटिंग लिस्ट ?
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Monday, 17 October 2011

मैने,तुझको देखा है------

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मैने,तुझको ---       देखा है बंद पलकों की चिलमन से यूं,                        नीलों फूलों की ,आभा नीली सी                         पोरों को,...
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Tuesday, 11 October 2011

नुक्ते—ज़िन्दगी के,

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ये,राहों के सिलसिले हैं,दोस्त                          सराहों में ठहरे, राहगीरों की तरह                         कुछ देर का साथ था,          ...
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Wednesday, 5 October 2011

सूरज का-एक कतरा-सपना सा

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शीशे की खिडकी से,सरक निःशब्द कदमों से चल              सूरज का,एक कतरा              मां के आंचल सा, मुझको ढक गया कभी ऐसा लगा कि क्लांत-थका सा...
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मन के - मनके
मेरा परिचय तो,अभी अभी ही बना है-’मन के- मनके’के माध्यम से!फिर भी,औपचारिता निभाते हुए-इस ’परिचय’को श्ब्दों में गूंथने की कोशिश कर रही हूं!इंन्सान का’मन’ऎसी गीली मिट्टी की नाई होता है,जंहा’अनुभूतियों’के बीज गिरते रहते है,पल्लवित होने के लिए!इसके लिए’सम्भावनाओं’की बयार बहने की देरी है और’महक’उठती ही है-चारो ओर फैलेगी ही!यह कहना कठिन है-मेरी’अभिव्यक्तियां’किस महक को लेकर हवा मे फैल रही हैं!मै,जीवन को सबसे बडी और अहम पाठशाला मानती हुं सो उसमें मेरा प्रवेश जारी है!औपचारिक डिग्रियां कागजी आवराण में सिमट कर एक फाइल में रखी हुई हैं!ग्रहस्त जीवन की उपलब्धियां पूर्ण हैं कुह नाकामियों के साथ!मै,भाग्यशाली हूं -जब आखें मूंदती हूं तो’नानी जी’’आम्मा जी’के सम्बोधन,की स्वर-लहरी कानों को झंकारित कर देती है हर जीवन मे एक’खालीपन’होता ही है सो वह (खालीपन)रंग भी जीवन के कैनवास पर चढ़ चुका है!अब एक कोशिश मे जुट गई हूं-कुछ नये रंग खोज रही हूं जिन्हे उस कैनवास मे भर सकूं!ईश्वर को धन्यवाद देती हूं कि उसकी अनुकम्पा से मुझे यह अवसर मिला!अब,कुछ अनुभूतियों शेष हैं या यूं कहें कि अभी भी कुछ’अनुभूतियों’ मन की गीली मिट्टी पर फूट रही है- जो अभिव्यक्ती चाहती हैं साथ ही आप सभी की ओर दो शब्द- ’वाह-वाह’ के मन के - मनके (डा० उर्मिला सिंह)
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