Sunday, 10 September 2017

आज की पीढ़ी के पास समय नहीं है --

आज की पीढ़ी के पास समय नहीं है --
यादों को शेयर करे  हमारे साथ जिन्हें हम संभालते आए हैं सालों साला,काले -सफ़ेद चित्रों में।
मुझे आज भी याद है ,जबा मेरा सबसे बड़ा बेटा अभी पैदा ही  हुआ था कि मेरे पति उधार के कैमरे से उसकी हर गतिविधियों को कैमरे में कैद करते रहते थे ,सब कुछ भूल कर।

आज सैकड़ों  की संख्या में वे क्लिक्स मेरे पास हैं जिन्हें मैं संभालती रहती हूँ ,उनके जाने के बाद।
इन खूबसूरत धरोहर का कोई सानी नहीं है बा-शर्ते इन्हें देखा जाय और यादों की  इंद्रधनुषीय दुनियां का
सफर किया जाय अपनों के साथ।
अफसोस आजा हमारे पास समाया नहीं है इन इंद्रधनुषों को छूने के लिए जो हमारे आँगन में उतरा
आए हैं।

आज की पीढ़ी वंचित है जीवन के सतरंगी तिलिस्म से ,जिन्हें रचाने-गढ़ने के लिए गुज़री पीढ़ियों ने अपने
सीमित संसाधनों मे से वक्त भी निकाला और अपने सपनों को रूपांतरित किया उनके सपनों
में।
एक छोटी सी बात है--
छोटी-छोटी बातों में स्वर्ग बिखर जाते हैं --हमारे आसा-पास।
स्वर्ग एक नहीं --
स्वर्ग हमारी -आपकी नजरों में हैं उन्हें देखने-पाने के लिए हमारी संवेदनाओ के मुरझाए फूलों को खिलाना होगा और उन्हें भावों से सींच कर अपने अपनों के आसा-पास बिखेरना होगा।
खुशबुएँ बिखरेंगी जरूर।


उन
खूबसूरत 

Friday, 8 September 2017

नमस्कार मित्रों,

नमस्कार मित्रों,
अर्सा गुजर गया-’मन के-मनके’ से रूबरू हुए.
कारण कुछ नहीं था बस,कुछ कहना होता है,और,
कह दिया,फ़र्क नहीं पडता कौन सुन रहा है?
कल ही कुछ कहा था-
“जब पाना शेष हो जाय,तो जो शेष रह जाय,उसे सहजिये.”
आइये इसी को कहती हूं इस अंदाज से—
देखिये,उम्र के साथ-साथ हमारी यादास्त भी बढती रहनी चाहिये,
वर्ना, खाली-खाली सा लगने लगता है.
एक बात और जरूरी है—
यादों को खूबसूरत बनाने की समझ भी बढती रहनी चाहिये,अन्यथा
यही यादें जीना हराम भी कर देती हैं.
दो यादों को याद कर रही हूं और आप के साथ शेअर भी कर रही हूं.
बस,वक्त बहुत है-यही वक्त कम हो जाता था-वक्त, वक्त की बात है.
पहली याद—
चुनावों की-
क्योंकि चुनाव का मौसम आ गया है,सो चुनाव के मौसम में चुनावों की यादों को याद कर लिया जाय.
बात उन दिनों की जब देश नया-नया आजाद हुआ था और नयी नयी मिली थी आजादी अपनी सरकार बनाने की.
अंग्रेज अभी भी देश मे मौजूद थी-सही है २०० साल की रिहाइश के बाद कम से कम ५-१० साल तो लगते ही हैं-बोरिया-बिस्तर समेटने में.
प्रत्याशी घर-घर जाते थे,हाथों को जोडे-और घर-घर रिश्तों को भी निभाते थे-पैर छू कर,गले लगा कर,छोटे बच्चों को गोदी में उठा कर.
उस समय लगता था-हम कर्णधार हैं-हम नैया पार लगा सकते हैं-
बडे-बडे धुंरंधरों की.
ना कोई झंडा ना कोई डंडा,बस पीछे-पीछे भीड बच्चों की,कुछ अपनों की-बाकी तो तमाशबीन ही होते थे-ऐसा तमाशा जो सदियों के बाद देखने को मिला था.
वोट डालने वाली दिन की तो छटा निराली थी.
भोर सुबह से घर-घर तैयारियां होती थीं—औरतेम ऐसे सजती थीं कि बस कहा ही नही जा सकता शब्दों में.
बच्चों की चिल्ल्पों,बुजुर्गों की डांट-फटकार-जवानों का जोश देखने के लायक होता था—
कितनी पढाई होती थी कई दिनों तक चलती रहती थी-कि,पर्ची कैसे मोडी जाय,कि पर्ची कैसे डाली जाय,कि पर्ची किस डिब्बे में डाली जाय-
और कितनी पर्चियां विरोधी के डिब्बे में डल ही जाती थीं,और घर आकर कितनी फटकारों का सामना करना होता था.
क्या किया जा सकता था-मुआ घूंघट कुछ देखने दे तब ना?
और,कितने गीतों की रचना हो जाती थी-प्रचलित गीतों की तर्ज पर कि,
वोट वाले भैया,बडे सुघड
वोट वाले चाचा कितने चतुर
वोट वाले बेटा बुढापे की डोर—
अब क्या है भैया--?
वोट वाले बडे ढोल की पोल??
बात वही है ,वक्त बदल गया है ,





Tuesday, 5 September 2017

 समस्या यह  नहीं  है ,हम  क्या सोचते हैं -
बात वहां  बिगड़ती है ,जब हम  अपनी सोच  को दूसरों पर थोपते हैं और उम्मीद भी करते हैं ,वे हमारे जैसे हो जाऐं ,बात बतंगड़ हो जाती है।