एक पोस्ट—पापा मुझे
स्टेशन छोडने आया ना करो—
और, पापा का चेहरा—एक किताब
बन गया—
जिसे पढ पायी एक बेटी—नजर
बडी तीखी थी—
समझ बडी पैनी थी—
और—दिल में थी-वो
यादें,जिन्हें हम चाह कर भी
याद नहीं करते—क्योंकि हमारा
’आज’ बडा हो गया—और
वह जो ’कल’ था— बूढा हो
चला है—
मजबूर हो गया है— अपने ’आज’
के खंडरहों पर—
खडा रह गया—नितांत,क्योंकि
उसे अपने कल के ’सपनों’ की फिक्र है—
अपने ’क” के सपनों के
लिये ’सपनो” को सहेज रहा है
पापा—तुम इन आंसुओं को
लेकर—स्टेशन मत आया करो.
जिन्हें—तुम छुपा नहीं
पाते हो—
बांध नहीं पाते हो—उस बाढ
को,जिसे
रात भर बांधने की कोशिश
करते रहे हो—शायद.
ये आंसू मेरे—दिल की
किताब है.
उनको प्यार—जो इन किताबों
के पन्नों पर
लिखी इबारतें पढ पाते हैं—प्यार
उन्हें, जो याद कर पाते हैं—
उन फिक्रों को—जिनके बोझ
तले मां-बाप ता-उम्र जीते रहे—और
उफ़ भी ना की—कि कहीं
बेटियां फ़िक्रमंद ना हो जांय कि-बेटे अपनी मंजिलों से
दूर ना रह जांय.
अक्सर ही आंसू अक्श होते
हैं—दिल के.
जो कह नहीं पाते—वे कह ही
देते हैं.
लेकिन—उन्हें पढने के
लिये उस बेटी की आंखें चाहिये—जो
कह रही हो—पापा आप मुझे
छोडने स्टेशन ना आया करो.
पुनःश्चय:’ आज’ तो जीना
ही चाहिये—बीते हुए ’कल’ की दीवारें पर कल
के सपनों की इबारतें नहीं लिखीं जातीं—लेकिन,
कभी वो दीवारे ही—थामे हुए
थीं—आने वाले ’कल’ के सपनों के महलों की दीवारों को.
जरूरी है—कम-से कम—उन ढहती
हुई दीवारों पर होली-दीवाली मिट्टी का लेप करते रहें-
जिनसे—सोंधी-सोंधी महकें उठती
रहेंगी—जब-जब ’आज’ पर से बयार,प्यार=स्नेह-सम्मान की गुजरेंगी.
सत्य हमेशा सुंदर है—और जो
सुंदर है—वही शिव है.
बहुत सुंदर—बे-शक आंसुओं
के सैलाब भी सुंदर होते हैं—अक्सर.
मक के-मनके.