Friday, 25 September 2015

अक्सर-हम चोटी पर पहुंच जाते हैं.पगडंडियों को अनदेखा करते हुए—और यह हो नहीं सकता.

 
अक्सर-हम चोटी पर पहुंच जाते अक्सरहैं.पगडंडियों को अनदेखा करते हुए—और यह हो नहीं सकता.

कुछ दिनों से छोटी सी एक किताब पढ रही हूं—जीने की कला.वैसे जो मैं पढ रही हूं वह इम्गलिश में बोली गई है ओशो के द्वारा,उनके अमूल्य प्रवचनों से उद्धरित की हुई—जिसमें उन्होंने प्रश्नों के उत्तरों के माध्यम से जीवन की बंद पम्खुडियों को अपनी अनूठी देशना-सहजता-व चिरपरिचित मुस्कुराहटों के झिलमिल पर्दों से धीरे-धीरे सरकाया है.

ये मुस्कुराहटें—कितनी छटाएं समेटें हुए—होती हैं—जहाम से कभी बुद्ध जम्कने लगते हैं तो कभी कृष्ण तो कभी मीरा तो कभी कबीर,कभी नानक---और---बस!!!

एक कहानी—एक सौ परों मकसौ पडा जो कि अर्थराइटिस के रोग से पीडित था—बिचारा,एक उल्लो पास जा पहुम्चा सलाह लेने—क्या करता पीडा से परेशान?

उस उल्लू ने कहा—भाइ मकडे,तुम्हारे सौ पैर हैम और सारे-कि-सारे सूजे पडे हैं—ऐसा क्यॊं नहीं करते कि केवल दो पैर छोड कर जिनसे तुम्हारा काम चल जायेगा,बाकी ९८ पैरों को काट क्यों नहीं देते,इस तरह तुम्हारी ९८% पीडा का अंत हो जायेगा.

बिचारे नासमझ मकदे ने उस एक और ना-समझ उल्लू से पूछा—लेकिन यह तो बताओ इस काम को मैं कैसे करूं?

“ओह,” मैं इस बारे में तुम्हारी कोई मदद नहीम कर सकता.मैं तो वही तुम्हें कह रहा था जो मैने औरों से सुन रखा था.ऐसे ही बात सुनी और तुम्हें भी बता दी,शायद कुछ भला हो ही जाय.

जीवन ऐसे ही बहा जा रहा है—सुनी-सुनाई बातों की नावों पर बैठ कर औरों की सलाह-मशविरों की पतवार को चलाते हुए---और हम किस किनारे से चले हैं—यह भी अक्सर नहीं जान पाते हैं.

बुद्ध—इन सहारों के काबिज नहीं है.

जीवन—दूसरों की पाठशाला नहीं पठशाला नहीं हो सकता.यहां स्वमं अपनी पाठशाला की छतों को पाटना होता है.

बुद्ध की देशना से—स्वर्णमंडित कम्गूरेदार खम्भे जिन पर टिकीं हैं—जीवन की पाठशाला की मेंराबदार छतें.

1.Buddism—not interested in general policy.

It is interested in the details of life,it’s sufferings and their causes.

It looks face to face into life.

It is very earthly;earthbound,factual.

It is an encounter with life.

2.Buddhism—not a theology,philosophy or a general policy.

Buddhism is not—escaping from life.

Buddhism is not—hide and seek from life.

Buddhism is not—gutsless.

Buddhism  not—an illusion of god,heaven and hell.

Buddhism is not—the airy castle of priests and philosophers. Buddhism says—your life is enough  to go into—that is the real Vedas.The only book that has to be read is the book of life,and only wisdome that is possible is through reading the book of life.

Become intelligent.

Buddhism is the religion of Intelligence.

And the ultimate scripture is—Everything is dying every moment,All is disappearing into the death.

Every man is born as a Buddhaa,be the light of oneself.

According to Buddhism—Relision is not obidience—relision is rebellion.

Buddha—wants to change your very roots.It is a way of living on another plane of conscsiousnes.

These sutras of Ikku(zen Guru) is the glimpes of Buddhism.

Since the journey of life

Is little,but griefe and pain

Why be we so raluctant

To return to the sky of our native plane.

दूर क्षितिज के नीचे,जहां

अभी-अभी एक कूची,नारंगी रंग से सनी

पोंछ कर---

अपने लबादे को भी नारंगी किये हुए

वो देखो,नीचे जो उतर रहा है,नीचे घाटियों में

जहां घर है मेरा—उसे भी तो देखना है उसे

सो उसे जाना भी जरूरी है.

 



  

Thursday, 10 September 2015

ये खुशबुएं गज़ब की होती हैं!!!


 

ये खुशबुएं गज़ब की होती हैं

ये खुशबुएं—गज़ब की होती हैं—जी हां.

आइये चलते हैं इन खुश्बुओं की गलियों में.

पिछले दिनों करीब एक देढ माह पूर्व आमों का मौसम चल रहा था,हमारे देश यानि कि भारत में—क्योंकि इन दिनों मैं आ्स्ट्रेलिया के सिडनी शहर में हूं—अतः बात को यूं कहना पड रहा है.

सौभाग्य से वह भी लखनऊ शहर में—जो दशहरी आमों का गढ कहा जाता है.उस समय आम ही आम नजर आ रहे थे.नजर ना भी आ रहे थे तो भी दिलों को छूती हुई उनकी महक हवाओं में घुल रही थी—जरूरी नहीं होता आप आम खाएं ही—उनकी खुश्बुओं से भी तृप्ति का आनंद लिया जा सकता है—ब-शर्ते आनंद लेने की कला आती हो,जरा जोर लगा कर सूंघना होता है—अच्छा व्यायाम है—योग—अनुलोम-विलोम—एक पंथ दो काज वाली कहावत चरितार्थ हो जाती है.

खुशबुओं की बात चली है—चलते हैं एक और गली में—खाने की थाली की महक—उनमें रखी हुईं विभिन्न पकवानों की कटोरियां—.—हरएक के पास एक धरोहर इन खुश्बुओं की अवश्य होती है—कि मां के हाथ की पकाई हुई कोई दाल.कोई सब्जी या कि खीर—या कि एक महक कि, दाल का छौक.

करीब साठ दसक बाद भी मैं आज भी सूंघ पाती हूं उस छौंक की महक को जो हमारी मामी लगाया करती थीं—मूंग की छिलके वाली दाल में.

एक कहावत है—किसी के दिल में पहुंचना हो तो खाने की थाली के जरिये पहुंचना बहुत ही नैसर्गिक व सहज होता है.बात सौ प्रतिशत सही है,तभी तो शादी के कई वर्षों बाद तक बेटे मां के हाथ के खाने के स्वाद व महक को भुला नहीं पाते—और पत्नियों के सामने आंखें झुकानी पडती हैं—क्योंकि पत्निओं की ्टेढी नजरों जो होती हैं?

बात आती है फूलों की महक की—उनकी भी गलियां हैं—गुजरिये उन गलियों में से और आप पाएंगे कि दसियों महको के झोंको में से एक झोंका आपको विस्मृत करता हुआ गुजर जाएगा—मुझे मोंगरा बहुत भाता है.जब भी मौका मिलता है—जब भी कहीं उसकी चांदनी में नहाई सी चार-छः पांखुरी वाली कली मि्ल जाती हैं—मुट्ठी में बांध लेती हूं—और सूंघती रहती हूं.

यह तो रही, कुछ खुशबुओं की गलियों की बात—आइये चलते उन गलियों में—उन खुशबुओं में जो नितांत आलौकिक हैं—बिलकुल अपने आस्तिव की जडें हैं-उन जडों से फूटती हैं—हमारे आस्तित्व की शाखाएं—उन पर फूटती हैं –जीवन की धूप में सरसराती हुई पांते—पांतों की बीच में से झांकती हुई—बंद कलियां जो आतुर सी खुलने के लिये—और फूल बन कर महकने के लिये—परंतु वो खुशबुएं वहां होती ही हैं—जिन से फूट कर वे भी फूटी हैं.

मां के मैले आंचल की महक—एक महक मैली होती हुई भी अपनत्व की शाखों से-मातृत्व के फूलों सी फूटती हुई!!!

कमल-कीचड की तरह ही उस आंचल के साथ वह महक जो अपनी सारी कीचड के साथ भी बस एक ही— बस एक ही!!!

सौभाग्यशाली हैं—जिनके पास है—और जो सहेजे हुए हैं?

कभी आपने भी देखा होगा—एक शिशु अपनी मां के आंचल को पकडे हुए अपने-आप को सुरक्षित महसूस करता है---आप उसे मखमल पकडवाइये—छोड देगा—मां के मलिन-आंचल के सामने.

बहुत गहराइयां हैं ये—जहां डूबा नहीं जाता—वरन, पार निकला जा सकता है—मन की ग्लानियों से—पछतावों से.

जो शब्दों में बयां ना हो सके—खुशबुओं के जरिये पहुंच जाता है—कभी-ना-कभी रूमाल की खुशबू ने भी महकाया होगा—दिल की बात है—रहने दीजिये दिल में ही.

खुशबुओं को हम ता-उम्र ढूंढते ही रहते हैं—

बहुत ही खूबसूरत खुशबुओं की गलियों से गुजर रही हूं—मैं और मेरा सबसे छोटा पोता और हम-- अक्सर खुशबुओं से ही अपनी-अपनी बात कह लेते हैं—यह राज भी उसने ही बतया—जब भी पास बैठता है—मुझे सूंघने लगता है—अम्माजी—why are u smelling like Indian?

और मेरे पास उसके प्रश्नों में छुपे उसके ही उत्तर मिल जाते हैं.

मुस्कुरा भर देती हूं.