एक सुंदर कथा—
जब सिकंदर महान भारत आ रहा था—रास्ते में एक अजीब व्यक्ति
डयोनीज से मिला.
मनुष्य चेतना की खिलावट में एक अनूठा व्यक्ति.सिकंदर को
उसमें रुचि हुई—उसके बारे में उसने कई कहानियां सुन रखी थीं,उससे मिलने की उत्कंठा
जगी और वह नदी किनारे जा पहुंचा जहां वह(डायोनीज) अक्सर रहा करता था,हालांकि यह बात
कि वह उससे मिलने जाय सिकंदर के अहंकार के विरुद्ध थी—और अपने अहंकार को पोषित
करते हुए मन में विचार किया कि किसी को यह ना कहूंगा कि मैं उससे मिलने गया था वरन
मैं नदी किनारे रास्ते से गुजर रहा था सो उससे अचानक भेंट हो गयी.मानवीय कमजोरी?
वह डायोनीज को देखने गया.सर्दियों की खुशनुमा सुबह
थी,डाओनीज नदी किनारे की रेत पर नग्न लेटा हुआ था.वह एक सुंदर व्यक्ति था,जहां
आत्मा सुंदर हो,शरीर से भी सौंदर्य प्रगट होने लगता है.
वह नग्न लेटा हुआ था—उसके पास एक भिक्षा पात्र भी नहीं था—बुद्ध
के पास भिक्षा पात्र तो होता ही था.
उसने एक कुत्ते को नदी तट पर पानी पीते देखा और अपना भिक्षा
पात्र भी नदी में फेंक दिया—सोचा कि पशु यदि अपरिग्रह की स्थित में जी सकता है तो
मै तो एक मनुष्य हूं,मैं क्यों नही.
सिकंदर वहां आया और विमुग्ध हुआ डाओनीज के सौंदर्य और गरिमा
को देखकर—श्रीमान,मैंने आज तक किसी को इस शब्द से संबोधित नहीं किया,चूंकि, आपसे
प्रभावित हुआ अतः कहें कि मैं आप के लिये क्या कर सकता हूं?
डायोनीज ने बगैर आंख खोले कहा—बस तू जरा सामने से हठ जा,तू
मेरी धूप रोक रहा है.
सिकंदर दूर हठ गया और बोला—यदि मुझे दूसरा जन्म मिले तो
ईश्वर से मेरी यही प्रार्थना होगी कि मैं डायोनीज के रूप में जन्म लूं.
डायोनीज ने हट्टहास किया और कहा—वह तो तू अभी भी बन सकता
है.और अभी तू अपनी सेना को लेकर कहां जा रहा है?
सिकंदर ने उत्तर दिया—विश्व-विजय के लिये.
डायोनीज ने पूछा—उसके बाद तू क्या करेगा?
सिकम्दर ने कहा—विश्राम करूंगा.
डायोनीज ने कहा---सिकंदर तू पागल है.मैं अभी भी विश्राम में
हूं और मैने कोई विश्व-विजय नहीं की.
तू अपनी यात्रा के मध्य में ही मर जायेगा—प्रत्येक व्यक्ति
अपनी यात्रा के मध्य में ही मरते हैं.
(जीवन का कोई प्रारम्भ व अंत नहीं है.जीवन वर्तुल है.)
सिकंदर कभी भी घर वापस नहीं लौट सका—रास्ते में ही उसकी
म्रूत्यु हुई.
जब तुम भविष्योमुख होते हो,तुम वर्तमान के बारे में भूल
जाना प्रारम्भ कर देते हो—जो अकेली एक वास्तिविकता है.
ये पक्षी चहचहाते हुए गीत गा रहे हैं—कहीं दूर---कोयल कुहुक
रही है—यह क्षण अभी और यहीं है.
बुद्ध कहते हैं—जीने का अपना ही अर्थ है—अभी और यहीं.
यह कथा हम पढते रहे हैं—शायद ही समझे हों---और कितने समझे??
यह प्रश्न निरुत्तर ही है—सदियों से---सदियों के अम्तराल
में बमुश्किल एक बुद्ध जन्म लेते हैं—और कभी-कभी एकाध डायोनीज जो अपनी नग्नता में
गरिमामयी सौम्दर्य से इस आस्तित्व को सुंदर बना कर निकल जाते हैं— (साभार—सहज जीवन,ओशो)
जीवन
का दर्शन कितना सादा है
पेट
भरा दो रोटी से,बिन तकिये की नींद गहन
खम्डहरों
में गढे खजाने,राख है,वक्त का रेला है
पथरीले
महलों को, खंडहर होते देखा है
जिन
हाथों ने इन्हें गढा---
अब उनका कोई निशां नहीं—
स्वर्ग
कहां—किसने देखा
पाया
क्या,क्या खोया है
मुट्ठी
में छोटा सा मोती,इस पल का
बस मेरा
है----बस मेरा है. साभार--मन के-मनके से