Thursday, 25 December 2014

ओशो---एक कहानी यूं कहते है



ओशो---एक कहानी यूं कहते है

मैंने सुना है कि एक बहुत पुराना वृक्ष था.आकाश में सम्राट की तरह उसके हाथ फैले हुए थे---फल आते थे ---फूल खिलते थे---जिन पर तितलियां उडती थीं----एक छोटा बच्चा उसकी छाया में रोज खेलता था.उस बडे वृक्ष को उस छोटे बच्चे से प्रेम हो गया.

( अहंकार हमेशा अपनों से बडों से समंध बनाना चाहता है.प्रेम के लिये कोई छोटा या बडा नहीं  है.)

वृक्ष बडा था ,उसकी डालियां ऊंची थीं,बच्चे के छोटे हाथ उसकी डालिओं तक नहीं पहुंच पाते थे ताकि वह फल तोड सके.वृक्ष को उस बच्चे से प्रेम था इसलिये उसके लिये वह नीचे झुकता ताकि वह फूल और फल तोड सके.

( प्रेम हमेशा झुकने को राजी है,अहंकार कभी भी झुकने को राजी नहीं है.)

जब भी वह बच्चा उस पेड से कुछ भी तोडता वह वृक्ष बहुत खुश होता.

( प्रेम जब भी कुछ देता है बहुत खुश होता है,अहंकार जब भी कुछ लेता है बहुत खुश होता है.)

बच्चा बडा होने लगा,महत्कांक्षाएं बढने लगीं,और अब वह कभी-कभी उस पेड की छांव तले आता और शीघ्र ही वापस लौट जाता.

लेकिन वृक्ष उसकी प्रतीक्षा करता---पुकारता आओ---आओ—

(प्रेम एक प्रतीक्षा है---एक अवेटनिंग)

जब कभी वह बच्चा (जो अब बडा हो गया था)नही आता तो वृक्ष उदास हो जाता,

( प्रेम की एक उदासी है.)

आकांक्षाओं के साथ-साथ बच्चा (जो अब बडा हो गया था) भी बडा होता गया.

वृक्ष उसको बुलाता रहा और वह कहता रहा---अब तुम्हारे पास क्या है जो तुम मुझे दे सकते हो?

(अहंकार का एक प्रयोजन होता है,प्रेम निश्प्रयोजन है)

उस वृक्ष ने बहुत सोचा---अब और क्या दे सकता हूं---(क्योंकि वह सब कुछ दे चुका था अब केवल वह अब बिना फूल व फल के रह गया था.)

और अब उस वृक्ष के प्रांण पीडित होने लगे कि वह आए---वह आए.

उसकी आवाज में यही गूंज गूंजने लगी---कि आ जाओ---.

बहुत दिनों बाद वह आया.वह प्रोढ हो गया था.

वृक्ष ने कहा---मेरे पासा आओ,मेरे आलिंगन में आओ---

उसने कहा---छोडो यह पागलपन की बातें,मुझे एक मकान बनाना है,मकान दे सकते हो?

तुम मेरी शाखाओं को काट कर मकान बना ्लो---और वह कुल्हाडी ले आया---

उस लडके ने पीछे लौट कर नहीं देखा.

वक्त गुजरता गया---वृक्ष अब ठूंठ रह गया था----फिर भी वह उसकी राह देखता रहा.

बहुत दिन गुजर गये---वह आदमी अब बूढा हो गया था---और एक दिन वापस लौट कर उस वृक्ष के नीचे आकर खडा हो गया---तुम बहुत दिनों बाद आये?

मुझे दूर देश जाना है,धन कमाने के लिये,क्या तुम मेरे लिये कुछ कर सकते हो?

वृक्ष ने कहा---मुझे काट लो,मेरे इस ठूठ से नाव बन जाएगी जिस पर बैठ कर दूर देश की यात्रा कर सकोगे.


लेकिन शीघ्र लौट आना और सकुशल लौट आना.

उसने वह वृक्ष काट डाला.

( क्योंकि अहंकार वहीं आता है जहां कुछा पा सके.)

ओशो आगे अपनी बात पूरी करते हैं---

मैं उस ठूंठ के पास एक रात मेहमान हुआ...उस वृक्ष ने मुझसे कहा---मेरा मित्र अब तक नहीं आया,बडी पीडा होती है---एक खबर भर मुझे ला दो कि वह स-कुशल है---.

जीवन एक ऐसा वृक्ष बन जाय और उस वृक्ष की शाखा अनंत तक फैल जांय---तो पता चल जाय प्रेम क्या है---अगर प्रेम मेरी आंखों में ना दिखाई दे,मेरे हाथों में ना दिखाई दे---जब मेरी आखों में दिखाई दे,मेरी हाथों में दिखाई देने लगे----तो मैं कह सकता हूं यह प्रेम है.

(साभार—संभोग से समाधि की ओर,प्रवचन भारतीय विद्याभवन,मुम्बई,२८ अगस्त १९६८.)

पुःश्चय---

वृक्ष की यह कहानी शाश्वत है.सदियों से दुहराई जा रही है—पीढी दर पीढी हस्तांतरित हो रही है और होती रहेगी.

प्रेम और अहंकार एक सत्य के दो चेहरे हैं.एक सीमा रेखा है केवल बाल बराबर यदि उसे हम देख सकें तो---सीमाएं--- विहीन हो जांय, प्रेम के वृक्ष ठूठ ना रह जाएंगे—आंखो में सिर्फ एक ही भाषा होगी---प्रेम की.

कुछ बे-वजह शब्द हमारी भाषा से विहीन हो जाएंगे,

एक आग्रह---प्रेम को वांचे---उसके इंद्रधनुष को बिखेरें.

                                         मन के-मनके

 

 

 

 

Friday, 19 December 2014

Drop This God---Start your Journey with the search for bliss.


    
ओशो—एक धारा बह रही निरंतर—किनारे बैठ कर स्नान का आनंद कैसे लिया जाय---सोचने की बात है???

लाखों करोंडों जीते हुए मर जाते रहें हैं---बगैर पिये जामों को चटकाते रहे हैं,कांच के टुकडों पर पैरों को लहूलान करते रहें और खुदा की खोज करते रहे हैं खुद ही मार कर उसको.

अभी हाल की एक त्रासदी को श्रधांजलि दो  शब्दों से देना चाहती हूं—वैसे तो किसी बाग-बगीचे के फूल भी काफी नहीं हैं---इन त्रासदियों की मजारों पर फूल चढाये जा सकें???

कुछ पंक्तियां---ओशो के हृदय से निकली हुईं.

क्षमा करें जो ओशो ने कहा है—नया नहीं है---निःसंदेह अनुभूतियां ओशो की सांसो में पगीं हैं---अनुभूतियां का यह संसार है---और हम ना जाने कैसे इनसे अछूते से रह जाते हैं???

इस संसार में हर कोई खुशियों की तलाश में है---केवल एक ही खोज है जो निरंतर है---शाश्वत है.

एक ही प्यास है जो बुझती ही नहीं किसी भी श्रोत से???

ओशो---यहां तक कि वृक्ष  भी जमीन से आकाश की ओर देख रहा है, केवल खुशी की तलाश में.

हर परवाज की हर उडान,पशुओं के पैरों की चाप----चाह है, केवल खुशी की.

सम्पूर्ण आस्तित्व यहां तक कि मौन पाषांड वे भी उगते हुए सूरज की नारंगियत में मुखरित हो उठते हैं---खुशी की तलाश में.

ओशो---अधिकतर,बिना खुशी को पाये ईश्वर की तलाश में निकल जाते हैं--- क्योंकि---ईश्वर भी वहीं टिक पाता है--- जहां आनंद है.

अपनी खोज को समझना होगा,वस्तुतः हम सभी आनंद चाहते है—एक ऐसी खुशी जो हमें स्वम से जोड दे.

यहां हर कण इसी शाश्वत की खोज में है,यही ईश्वर है,यही खुदा है---

सो अपनी खोज को समझना होगा बिना किसी लाग-लपेट के.

और---हो सकता है---खुशी गंगा की धार सी---हमारे दरवाजे तक स्वम ही आ जाय यदि हम सही खोज में हैं.

ओशो---हम इस संसार में इसी खुशी की तलाश में हैं---हमें समझना होगा---और ईश्वर भी वहां ही है--- जहां आनंद है.

जल्दी ना करें भगवान----खुदा की खोज की.

यात्रा की शुरूआत सही स्टेशन से होनी चाहिये----आनंदम---और---ईश्वर---पूर्णता.

हिंदू,मुसलमान---मजहबी इबारतें---सभी इस खोज में लगी हुई हैं--- ये हमारी फितरतें हैं कि हम इतने स्वार्थी हो जाते हैं कि सिर्फ़ अपने लिये खुशी खोजने लगते--- ताबूतों

 में फूल नहीं खिलते---शमशानों की धहकती राखों पर बागीचे नहीं रोपे जा सकते???

और हम ईश्वर की खोज में लग जाते हैं उस खोज में जिसको हम जानते तक नहीं.

क्या हम ईश्वर---खुदा को जानते भी हैं----???

हां---निःसंदेह आनंद को हम अवश्य जानते हैं.

सो---उसे ही ढूंढिये जो जाना जा सके.

सो---उसे ही पाने की कोशिश की जानी चाहिये---जो पाया जा सके.

रंगों के इंद्रधनुषों को देखने के लिये नजरों को बदलने की जरूरत है.

लहू का सुर्ख रंग हथेलियों को धूप में रख कर---देखिये---नीली नसों से झिलमिलाता सुर्ख रंग---अपनी ही हथेलियों को मन करने लगता है---चूम लें.

हथेलियों को चीरती हुई गोलियां सुर्खी को बदरंग कर देती हैं.

हर रंग की अपनी एक रवांनगी है---पहचानने की जरूररत है.

शायद---बंदूकों को दफ़्न कर---प्यार और खुशी की फसल बोनी होगीं.

अब---खेती की जमीने सिमटने लगी हैं---पहले जैसे बागीचे भी कम नजर आते हैं---पहले जैसी तिलियां भी कम दिखती हैं---चहचहाटें---दूर होती जा रही हैं---

आएं----भगवान को आराम करने दें---

अपने घरों को फिर से सजाएं---

निःसंदेह---आनंद की झूमरों से.

सादर-साभार---ओशो( Voice Of Silence )


Wednesday, 17 December 2014

कराह रहा है-----अपनी ही पौध पर


                                                          
मुस्कुराहटों की घाटियों में---

सरहदों की बाडें कटीली

उम्मीदों की चोटियों पर---

बरसती हैं---गो्लियां

ये फितरतें---

ये बेचेनियां---

खुद खोदती हैं—

कब्रें---अपनी ही

ये डरों के साये---

ये लालची---चाहतें

अपने ही ताबूतों में

ठोक रही हैं---

कीलियां

ये खुदा की इबारतें—

ये घंटियां---मंदिरों की

किसने लिखी हैं---

किसने टांगी हैं?

वो तो----

खुद ही बे-बस

बे-जार

बहा रहा है---आंसू

अपनी ही चीखों को

थामें---गले में

मस्जिदों से---दूर

मंदिरों के पिछवाडे

कराह रहा है---

अपनी ही पौध पर---

 

 

Monday, 15 December 2014

एक बार एक नगर में ऐसा हुआ----


वहां दो दार्शनिक रहा करते थे----उनमें से एक आस्तिक दूसरा नास्तिक.

उन दोनों के साथ-साथ रहते हुए पूरा नगर परेशान था क्योंकि वे दोनों नगर वासियों को अपने-अपने तर्कों से कायल करते रहते थे,और एक दिन एक दार्शनिक से नगरवासी की बात हो जाती थी तो वह आस्तिक बन जाता था और दूसरे दिन जब दूसरे दार्शनिक से बात होती तो वह नास्तिक बन जाता था.

और पूरा नगर बहुत भ्रम व उलझन में पडा हुआ था.

अतः नगरवासियों ने यह निर्णय लिया कि इन दोनों को आपस में वाद-विवाद और तर्क-वितर्क करने दो,जो भी जीतेगा हम उसी के साथ हो लेंगे क्योंकि जो विजयी होता है वही सत्य होता है.

इसलिये उस नगर के लोग एक जगह एकत्रित हुए और उन्होंने कहा---

आज की रात पूर्ण चन्द्रमा की रात है,हम सभी पूरी रात जागते रहेंगे-----जो भी विजयी होगा हम लोग उसी का अनुसरण करेंगे.

इसलिये वैसा ही हुआ.

उस पूर्णमासी की रात दोनों दार्शनिक वाद-विवाद करते रहे.

सुबह नगरवासी और भी उलझन में पड गये.

आस्तिक---नास्तिक बन गया था.

नास्तिक---आस्तिक बन गया था.

वास्तव में यह दो अलग चीजें नहीं हैं.

प्रत्येक नास्तिक में आस्तिक छुपा हुआ होता है.

प्रत्येक आस्तिक में नास्तिक छुपा हुआ होता है.

साभार---ओशो के प्रवचन से,जो संकलित किया गया---

मां सागर प्रिया के द्वारा.

(पुस्तक-- सहज जीवन, खंड---खतरे में जियो.)


 



Tuesday, 4 November 2014

महान मनुष्यता मैं चाहता हूं,महात्माओं की कोई जरूरत नहीं----ओशो



ओशो यूं कहते हैं---
मैंने सु्ना है कि अमेरिका में एक लेख लिखा हुआ था------मजाक का कोई लेख था,उसमें लिखा था कि हर आदमी और हर जाति का लक्षण शराब पिला कर पता लगाया जा सकता है कि उसका बेसिक करेक्टर क्या है?
अगर दच आदमी को शराब पिला दी जाय तो वह एक दम से खाने पर टूट पडेगा.
अगर फ्रेंच आदमी को शराब पिला दी जाय तो शराब पीने के बाद वह एकदम नाचने-गाने लगेगा.
यदि अंग्रेज को शराब पिला दी जाय तो वह एक कोने में एकदम से शांत  होकर बैठ जायेगा.
ऐसे सारे दुनिया के लोगों के लक्षण थे.लेकिन भूल से भारत के लोगों के लक्षणों के विषय में कोई चर्चा नहीं थी.तो किसी मित्र ने मुझसे कहा कि आप इस विषय पर कुछ कहने की कृपा करें.
तो मैंने कहा---जग-जाहिर,भारतीय शराब पियेगा और तत्काल उपदेश देने लगेगा,यह उसका जातीय गुण है,करेक्टरिस्टिक है.
यह जो---उपदेशकों का समाज है---ये रोग के लक्षण हैं,अनीति के लक्षण हैं.
और इस रोग को बढाने के सुगम उपाय है,वह यह कि जीवन में सर्वागींण ग्यान उत्पन्न ना हो सके. और जीवन के जो सबसे ज्यादा गहरे केंद्र हैं जिनके अग्यान के कारण,अनीति,व्यभिचार और भ्रष्टाचार फैलता है उन केंद्रों को आदमी कभी भी ना जान सके,क्योंकि उन केंद्रों को जान कर मनुष्य तुरंत आनीति,व्यभचार व भ्रष्टाचार से तुरंत दूर हो जाता है.
चूंकि मैं उस मूल-केंद्र की बात करता हूं अतः कुछ तथाकथित संतो ने कहा कि हमारे मन में आपके प्रति कोई आदर नहीं है.
मैंने उनसे कहा इसमें कोई गलती नहीं---मैंरे प्रति आदर होने की जरूरत ही क्या है?
मैं महात्मा था नहीं,मैं महात्मा नहीं हूं,मैं महात्मा होना नहीं चाहता.
महान मनुष्य मै चाहता हूं—
महान मनुष्यता मै चाहता हूं—
साभार---संभोग से समाधि की ओर.


Friday, 31 October 2014

ओशो----एक कहानी यूं कहते हैं,



एक सुबह अभी सूरज भी निकला नहीं था और एक मांझी नदी के किनारे पंहुच गया था.उसका पैर किसी चीज से टकरा गया.झुक कर देखा तो पत्थरों से भरा एक थैला पडा था.सूरज उग आया,झोले में से पत्थर निकाल कर, शांत नदी में एक-एक कर के फेंकने लगा.
धीरे-धीरे सूरज की रोशनी चारों ओर फैलने लगी,तब तक वह सारे पत्थर नदी में फेंक चुका था, सिवाय एक पत्थर के,जो उसके हाथ में रह गया था.
सूरज की रोशनी में जैसे ही उसने उस पत्थर को देखा उसके दिल की धडकन रुक गयी.जिन्हें वह पत्थर समझ कर फेंक रहा था वे हीरे-जवाहारात थे---वह रोने लगा.
इतनी सम्पदा उसे मिली थी उसके जीवन भर के लिये ही नहीं अनंत जन्मों के लिये भी काफी थी.
लेकिन फिर भी मछुआरा भाग्यशाली था क्योंकि अंतिम पत्थर फेंकने से पहले सूरज निकल आया और उसे दिखाई दे गया कि जो उसके हाथ में पत्थर है वह हीरा है.
साधारणतया संसार में सभी इतने भा्ग्यशाली नहीं होते हैं.
जिंदगी बीत जाती है,सूरज नहीं निकलता है,सुबह नहीं होती है और जीवन के सारे हीरे हम पतथर समझ कर फेंक चुके होते हैं.
जीवन एक बडी सम्पदा है,लेकिन आदमी सिवाय उसे फेंकने और गंवाने के कुछ भी नहीं करता है.
हजारों वर्षों से हमें एक ही मंत्र दोहराने के लिये दिया जाता रहा है---जीवन व्यर्थ है,जीवन दुखः है.
नहीं जीवन एक राज है,एक रहस्य,एक –एक पर्त खोलते रहिये स्वर्ग की घाटियां फैली होंगी—स्वर्ग के उतंग-शिखर धवल-प्रकाश से आच्छादित होगेम,निहारिये उन्हें.
साभार---संभोग से समाधि से.