My
elder brother whom, I always consider my
soul-support and always seek his words,whenever I had been in need.Always my
regards and affection for him,till I am alive.
The
letter starts with two lines---
1.They
are the sons and daughters of Life’s longing for itself.
2.Time
has come for you----be a sanyasin-----.
आदरणीय भाईसाहब,
आपका एस.एम.एस
मिला,पढा,कोशिश करती रही.इस एस.एम.एस में क्या संदेश है.कई बार पढा---.
आशा करती हूं आप मुझे कुछ
सीमा तक, समझते ही होगें.
आपको मैने ना केवल भाई के
रूप में, वरन प्रेंणनास्रोत के रूप में भी देखा है और जब तक जीवित हूं, मेरी
संवेदनाएं इसी रूप में ही बनी रहेंगी क्योंकि उनकी जडें मेरी पुरानी से पुरानी
स्मृतियों में जीवित हैं.
हम वर्तमान में तो जीते
ही हैं,परंतु अतीत की पृष्ठभूमि पर रह कर.
आने वाली उथल-पुथल जो जीवन का हिस्सा है,उनसे उबरने के लिये कुछ मनोबल मिलता रह्ता
है उन अतीत की जमीन से,और यही मानवीय पृवर्ती है.
मैं एक बहुत ही साधारण
इंसान हूं जो एक पुत्री-बहन-पत्नी और दादी-नानी के रिश्तों को जी चुकी हूं,उनमें
से कुछ अभी जी भी रही हूं.
सन्यासिन हो कर भी कहीं
और नहीं जाया जा सकता है, क्योंकि हवा तो वही है और सांस भी वही.
बहुत-बहुत पुरानी स्मृतियां
,आज भी मेरे मानस पटल पर ताजी हैं----जब मेरा ही आस्तित्व मुझसे पूछने लगा
था---अखिर मैं किसकी जवाबदेही हूं?
और,१० वर्ष की उम्र तक
आते-आते,प्रताणनाओं और तिरस्कारों के झंझावतों के बीच अपने-आप को नितांत पाकर मैं
निकल पडी थी, रेल की पटरियों पर.
जहां,बचपन की मासूमियत
होनी चाहिये थी,वहां असहनीय उपेक्षाएं व बेगाने तिरस्कार थे’ जो मेरे आस्तित्व को
हर क्षण चटका रहे थे.
बचपन एक अहसास है, जो
अपनत्व की छांव तले ही पल्लवित हो सकता है अन्यथा वह वक्त से पहले जबरन पकाया हुआ
फल रह जाता है, जिसमें जीवन का स्वाद व महक नहीं होती.
उन क्षणों में बाबूजी याद
आते रहे.सोचती रहती थी और अपने –आप से पूछती रहती थी----क्या वे मुझे कभी याद करते
हैं?क्या कभी उनके हाथों का स्पर्श मुझे मिलेगा?
जैसा कि खलील ज़िब्राल
कहते हैं---मां-बाप बच्चॊ से केवल माध्यम के तहत जुडे होते हैं या कि इस कथन के कई
कथन हो सकते हैं.
परंतु मैं ऐसा महसूस करती
हूं कि यह जुडना भी हमारा प्रारब्ध है और जहां जुडाव हो बेशक माध्यम ही बन कर,वहां
अनुभूतियां के तार भी जुड ही जाते हैं, अन्यथा ये रिश्तों के इंद्रधनुष कैसे बने?
क्षमा चाहती हूं---किसी
महान कथन को अपनी सोच से देखने के लिये.साथ ही अनुग्रहित हूं, यदि ये महान कथ्य
उवाचित ना होते तो हम हमेशा विभ्रमित रहते और मुक्त ना हो पाते, अप्रसांगिक बंधनों
से.क्योंकि, यहां आस्तित्व में सब कुछ प्रसांगिक है---लेकिन एक सीमा पर आकर सब कुछ
अप्रसांगिक हो ही जाता है और वहीं से सत्य की यात्रा भी शुरू हो जाती है.
मुझे याद है वह घर---जहां
मेरा जन्म हुआ था.कितनी बार आंखें मूंद कर.कोशिश की है कि उस परिछाईं को देख
सकूं---कही आते-जाते,सीढियों पर चढते-उतरते,चूल्हे पर रोटियां सेंकते ,मुझे गोद
में लेते हुए---मैं उस छाया को भी नहीं छू पाई,आज तक.
शायद याद हो आपको—मैं
आपकी टांगों से लिपटी,रो रही थी कह रही थी,मुझे यहां से ले चलो---आप बार-बार खुद
को मुझसे छुटा रहे थे,यह कहते हुए---कहां लेकर जाऊं?
उस दिन दस साल की बच्ची
अचानक परिपक्व हो गई थी,और पहली बार साक्षात्कार हुआ अपने प्रारब्ध से.
प्रारब्ध---जहां आपको
अपनी नांव स्वम खेनी होती है,आगे-आगे---पीछे लौटना सम्भव नहीं होता है,हालांकि हम साये
होते हैं लेकिन आप नितांत होते हैं.
और उस दिन मन में पहली
बार स्वीकार-भाव आ गया,प्रश्न तिरोहित हो गये.
मेरी भूख मेरी थी,मेरा
तिरस्कार मेरा था---मेरे वजूद का चटकना मेरा था.
किसी कोने में छुपकर
आंसुओं को पोंछना आ गया था.
और प्रारब्ध की नाव
लिये,अपने कर्मों की पतवार से खेने लगी---शिकायतें गैर-जरूरी हो गईं---उम्मीदें
अपरिभाषित हो गईं----और अपनों की तलाश ठहर गई.
एक घटना,जीवन के उस पडाव
पर जहां मैं जिम्मेवार नहीं थी.मेरे वजूद की कुछ अनुभूतियां थीं---उभर रहीं
थीं,खुशबू बन कर,मुझे अपने में समेट रहीं थीं.एक नई अनुभूति---एक सुकून---नित्य
पराओं के झंझावतों में,कुछ अपना केवल कुछ अपना पाने की एक ललक.
सम्भवतः एक शाश्वत
अनुभूति जो नकारता है, वह छलावा करता है या खुद को छलने के लिये खुद को ही भूल
जाता है.
मैं साहस कर पा रही
हूं,कह पा रही हूं---उन अनुभूतियों के सच को.
सत्य देर-अबेर देख लेना
चाहिये और अपने मानवीय होने को स्वीकार लेना चाहिये ही.
कम-से कम अपने प्रति
ईमानदार होना,आस्तित्व के दायित्व से मुक्त होना है.
अक्सर ही हमारी मान्यताएं,समाजिक
परिवेश,संस्कार एंव स्वम-पोषित मर्यादाएं---हमें सत्य का साक्षात्कार नहीं करने
देतीं और हम ओढी हुई जिंदगी में लिपटे,घुटी सांसों में कैद,जीवन पर्यंत जीने का
बहाना ढूंढते रहते हैं.
जीवन एक ऐसा सत्य जिसे
संपूर्णता से स्वीकारा जाना चाहिये,टुकडों में नहीं.
मैं---कहानी नहीं कह रही
हूं,सत्य को देखने का साहस कर पा रही हूं.
आभारी हूं,उन क्षणों के
लिये जब मैं एक किरण को छूकर गुजर गई---इस आस्तित्व की अनुकम्पा मुझे छू गई,किस
रूप में?
भाईसाहब,आपने खलील
ज़िब्राल की कुछ पंक्तियां उद्धरित की हैं---सहमत हूं स्वीकार करती हूं और आभारी भी
हूं कि आपने मुझे एक भ्रमजाल से निकालने में मुझे मदद दी---अन्यथा मैं कहीं गुम हो
जाती!!!
परंतु---जीवन के क्या दो
ही छोर है---एक दूसरों के लिये जीना(वांछनीय है,संबन्धों की माला को पिरोये रखने
के लिये और अपनी सार्थकता को दूसरों की सार्थकता से जोडे रखने के लिये)
दूसरा छोर स्वम को
तिरोहित कर देना---’सन्यास’ के रास्ते---अपरिचित-अग्येय पथों को रोंदना----सूखी
रेत में जीवन के बीज को गाढना,,,जहां कभी जल-धार फूटनी ही नहीं है.
सन्यस्त होना किसी पथ पर
चले जाना मात्र ही नहीं है,उसको जान लेना भी जरूरी है और यदि जान ही पाए तो मंजिल
ही पथ बन जाता है.अब जाना कहां है,क्या पाना है---पाने योग्य कहीं भी पाया जा सकता
है---जो नहीं पाया जा सकता, उसे कहीं भी नहीं पाया जा सकता.
मेरा मानना है---जब तक
स्वम तृप्त-तिष्ट-सम नहीं है---सन्यस्त का भाव ही दंभपूर्ण है.
ओशो---जीवन एक ऐसी धारा है जो बह रही है---निरंतर---उस बहाव
में,कचरा भी बह रहा है,फूलों की टोकरियां भी हैं,दोनों में बहाए श्रद्धा की
दीपमालाएं भी----सहज-सरल-सुंदर यात्रा---प्रेम-अपनत्व-स्पर्श,शब्दों की
पुष्पाजंली---मुस्कुराहटों के इंद्रधनुष---तो आंसुओं से सिक्त संवेदनाएं भी---सभी
अर्पित हो जाते हैं---जीवन के शिवालय की ड्ढ्योडी पर.
पहुंचना तो वहीं है---क्यों ना---अंजुलि में भर कर ’तृप्ति’
को---उस विराट के आगे झुक जाएं और कह पाएं---तुम मुझे स्वीकार हो---मुझे स्वम में
समाहित करो-----
मैं,सन्यस्त इसी भाव से होना चाहती हूं.
मुझे,जीवन का हर रंग चाहिये,हर खुशबू की सुबास---हर वह
रोंमांच जो स्पर्श दे सके-----और---
जो गया –उसके लिये मेरी आंखों में आंसू ना हों---जो है,उसके
लिये कुछ आंसू दे सकूं----
जो,बांहे फैलाए---पुकारता हो---उस ओर----चल पडूं---
पुनःश्चय--- इति,