Saturday, 29 March 2014

तेरी मुझे खबर नहीं-----




तेरी मुझे खबर नहीं-----



                   प्यार कोई चांदी का कटोरा है
                   या कि,चम्मच है सोने की
                   या कि,लाकरों की चाबी है
                   या कि,वीरानी है महलों की
प्यार कोई कहानी है, हीर-रांझा की
या कि,लैला-मंजनू की दिवांनगी है
या कि,भीगे हुए तकियों के सपने हैं
या कि,फाडी चिंदियों की कहानी है
                    प्यार तो मौसम हैं----
                    तो आंगनों में बिछे हुए पतझड भी हैं
                    पहाडों पर जमीं हुई बर्फें है----तो
                    नदियों में उफनती हुईं बर्बादीं भी हैं
बोगनबेलियों  की सुलगती कहानियां---तो
खिलते गुलाबों की बिखरती खुशबुएं भी हैं
बासंती चादरों में लिपटीं,लहलहाती सरसों भी हैं
आम की बौंरो का नशा,पीहू-पीहू की टेर भी है
                  बारिशों के इंतजार में------
                  गर्मियों की लपटें भी हैं---
                  रजाइयों में दुबकी सिसकियां भी हैं
                  मुडेंरों पर बैठे—संदेश भी हैं
प्यार दोधारी खंजर तो,
म्यान में रखी—एक तलवार भी है
प्यार मिटना भी है –तो
मिटाना भी है---
                    यह तो,एक जिद है जीने की
                    एक जिद है,पीने की---
                    एक जिद है,जाने देने की
                    तो,एक जिद है,साथ होने की
मैं,प्यार करूं---
यह मेरी तिजोरी है—
खोले रखूं या ताले लगाऊं
लुटाऊं या कि,लुट जाऊं
                        एक फ़कीरी है---
                        बस,चुल्लू भर---पीने की
                        यहां,मेरी जिद ही कायम है
                        तेरी----मुझे खबर नहीं---
                                           मन के-मनके

                   
                    
                   
 

Sunday, 16 March 2014

राहत---राहत----राहत---





राहत---एक शब्द---संवेदनाओं के फूलों को पिरोए हुए---हाथों के स्पर्शों की डोरी में—आंखों की अनकही भाषा की सुलझी हुई गांठों में----एक माला, जो इंसानियत के मंदिर में चढनी ही चाहिये,अन्यथा मानवता के देवालय पूर्वाग्रहों के खंडहरों के अलावा और कुछ भी नहीं हैं,जहां हम पत्थरों की मूर्तियों की पूजा करते-करते खुद भी पत्थर होते चले जा रहें हैं.
’राहत’---चाहिये ही हम सब को.
हम बीमार हैं,डाक्टर है,दवाइयों की कडुवाहटें भी हैं,ना चुका सकने वाली पर्चियों की लिस्टें भी हैं.
हम अकेले हैं—साथ है भी तो भी,साथ नहीं है-- और कोई विकल्प नहीं है.
’अकेलापन’ लाइलाज बीमारी है.जिसने झेल ली समझो,मोक्ष की राह पर चल पडा---अन्यथा ’अकेलेपन’ की सुरंग कभी ना खत्म होने वाली पगडंडी है,जहां घुप्प अंधेरा है.दुनिया का और कोई अंधेरा नहीं है,जो ’उजाले’ की देहरी को ना लांघ पाए.
तब,हमें राहत चाहिये—एक ऐसा साथ चाहिये,जो हम राह हो सके---किसी भी रिश्ते की टेक हो सकती है,एक स्पर्श भी राहत दे सकता है---चाहे अंधेरा कितना भी हो,हाथ थाम चलना आसान हो जाता है.
We are dying---
             अलविदा—कहने का समय हो आया हो, हमें ’राहत’ चाहिये.कोई कह सके कानों में---जाइये सुकून से,आप अकेले नहीं हैं,उन अनजानी राहों पर ,हम भी आ रहे हैं.बस---थोडा इंतजार---जाने वाले को ’थोडा सुकून आ जाता है,थोडी राहत मिल जाती है,जो बहुत-बहुत जरूरी है---और जरूरतों के अलावा.
आज,मानवता बिखर रही है---
जैसे फूल की पंखुडियां---बिखर जायं तो फूल बदसूरत सा लगने लगता है,खूबसूरती बिखर गई हो जैसे.
आज हमारे पास सरप्लस में जीवन है,हर आयाम से देखें तो.सुविधाएं के ढेर लगते चले जा रहे हैं(जनसंख्या का बडा भाग अभी भी वंचित है आधारभूत सुविधाओं से).
क्या करें इन सुविधाओं को खाया भी नहीं जा सकता,ना ही बिछा कर सोया जा सकता है,क्योकि एक स्थिति पर आकर सरप्लस कचरा ही हो जाता है.
’जीवन’—एक मुकाम पर आकर---सीधी सपाट लाइन के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं रह जाता है,यदि जीवन संवेदनहीन हो जाय जैसे बगैर स्वाद का भोजन जीने के लिये खाया जा रहा है,बगैर तृप्ति के.
एक घटना याद आ रही है---
मेरी एक परिचित महिला केंसर से पीडित थीं और वे मृत्यु शैय्या पर थीं.औपचारिकता वश उनसे मिलने जाना हुआ.
डाक्टर से लेकर,उनके पति व परिवार के अन्य सदस्य अपने-अपने कर्तव्यों का निर्वाह कर रहे थे---निःसंदेह.
परंतु, कुछ था, जो नहीं था.
मैं उनके सिराहने बैठ गई. अनायास ही उन्होंने अपनी आंखें खोल दीं और मेरी आंखों में देखने लगीं.
आंखो में एक दर्द था जो उनकी बीमारी की पीडा से भिन्न था.कुछ कहना चाह रहीं थीं, जैसे कोई इच्छा जो अधूरी रह गई हो----
कोशिश की---उनके जलते हुए माथे पर मेरी हथेलियां रखीं थीं और वे मुझे देखे जा रहीं थीं.और धीरे-धीरे उनकी आखें बंद होती चली गईं,लगा शायद—उन्हॆ वह मिल गया है जो वो चाह रहीं थीं.कह नहीं सकती---मैं उनसे कुछ कह पाई या नहीं क्योंकि वहां कोई शब्दों का आदान-प्रदान नहीं था.हां आखों की भाषा जरूर थी और हथेलियो के स्पर्ष से---मैं कह पाई—अलविदा,जाइये---सुकून से.मिलेंगे,बस थोडा इंतजार.
’राहत’
     एक ऐसा फूल जो किसी शाखा पर नहीं खिलता है,वरन—आखों की नजर से फूल झरते हैं,हथेलियों के स्पर्श में खुशबू समेटतें हैं उनकी और खोल दीजिये इन हथेलियों को,आंखों की पलकों से पंखुडियों को खिलने दीजिये----और----एक ’राहत’ बिछ जाये उन रास्तों पर जिन पर से होकर गुजरने वाले हैं,अपने ही---दूर अनजानी राहों के सफर पर.
                                                    मन के-मनके






Tuesday, 11 March 2014

थोडा---सलीकेवार हो जाते तो,खूबसूरत हो जाते



बहुत ज्यादा हो गया यह दिखावा,यह भोंडापन—यह सटीरियोटाइप-पन.सब एक जैसा कि,नकल पर नकल,अकल पर नकल,शकल पर नकल—
आज जीवन कार्बन कोपी सा दिखाई देने लगा है,कहीं विविधता नहीं,कहीं कोई छाप नहीं,कहीं कोई हस्ताक्षर नहीं,कोई पहचान नहीं.
सडक पर निकलिये सब एक जैसे दिखाई देते हैं,शकलें भी एक जैसी दिखाई देतीं हैं क्योंकि तनावों ने शकलों पर एक जैसी लकीरें जो खींच दी हैं---हर आंख एक ही भाव लिये हुए है,हर मुस्कान नपी-तुली सी,ना ज्यादा ना कम.
जाम लगा एक होर्न के साथ अन्य होर्न भी लाइन में लग जाते हैं.ऐसा लगता है,कार्बन कोपी की मशीन खट-खट कापियां निकालती चली जारही है,और जीवन की किताब सिवाय कार्बन कोपी के पन्नों के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है.एक पेज पढ लीजिये और किताब पूरी हो गई.
आज हम उत्सवों की भी कार्बन कोपियां निकालते चले जा रहे हैं,फर्क नहीं पड रहा अमीरी-गरीबी का,बस पन्नों का कुछा छोटा-बडा होना ही शेष रह गया है.
मातमपुर्सी भी अछूती नही रह गई है इस कार्बन कोपी के असर से.उतना ही रोना,उतना ही बैठना,उतना ही कहना-सुनना---वापस घर आ जाना---समय ना खिचता है ना सुकुडता है,लगता है एक जंगल सा उग आया है कुकुरमुत्तों का.
एक विवाहोत्सव में जाना हुआ,लडकी की शादी थी.
शुरूआत यूं हुई---जहां से जाना था और जहां पहुंचना था---करीब ८-९ घंटे का सफर था,सडक के रास्ते.कल्पना कर सकते हैं,उन राज्यों की सडकों की जहां राजनीति का परिवारीकरण हो रहा है.समस्त ताकतें वचनबद्ध हैं उसे मजबूत करने के लिए.ऐसे में अन्य ९९.९९ प्रतिशत शेष बचता है---टूटे सडकें ,सडकों पर गद्ढे,चौराहों पर जाम,बाजारों में बढते हुए दाम,सम्मानों की छीछालेदर---सुरक्षा के तार,बे-तार,के अलावा और क्या हो सकता है सोचनीय है?
खैर विवाहस्थल पर पहुंचते ही,एकमात्र व्यव्स्थापिका का सीधा फरमान---आप सब पहिले खाना खा लीजिये,आप सब के ही कारण यह सब कुछ रुका हुआ है.
ना कोई हाल-चाल ना कोई तसल्ली,नाही कोई अपनत्व की शिकायत-गिला-शिकवा.
जैसे-तैसे खाने की रस्मोअदायगी पूरी की,जैसे कार्बनकोपी के पन्नों की दरकार थी.
बाहर से आने वाले,घरवाले सब एक दूसरे से छिटके हुए से.पहचाने हुए भी बे-पहचाने से लग रहे थे.लोग ग्रुपों में बंट गए,अपने-अपने दायरे हो जाते हैं.
ढोलक की थाप---कहीं दूर से आती आवाज,यह भी जरूरी है.पांच-सात गीतों का घिस हुआ रिकार्ड बजना ही था,सुरों में जंग सी लग चुकी है,पुराने-नये का बेसुरीला संगम,बे-स्वाद हो रहा है.
शाम होते-होते गरमा-गहमी शुरू हो गई,लडकी जो दुल्हन बनने जा रही है---मिलने आई और हाथों की मेंहदी दिखाने लगी.ना कहीं,’मेरी शरमीली---मेरी शर्मीली---दो-तीन हम-उम्र उसके आगे-पीछे---पार्लर जाना है---पार्लर जाना है.
सुना है,दुल्हन का मेकअप १०,००० से शुरू होता है,खत्म कहां होता है,मालूम नहीं.
इधर दूसरा शोर शुरू हो गया---बाथरूम खाली है---खाली नहीं है---कौन सी साडी पहनूं—हर एक दूसरे से पूछ रहा है.अक्सर एक मौके के लिये तीन सेट रखे जाते हैं,चलने से पहले,फायनल एक करना होता है.एक राय घर में फायनल होती है और एक वेन्यूस्थल पर.
आज-कल,साडी की सेटिंग बहुत टेढी खीर है,कितनी पिनों की जरूरत  पडती है,किस साइज की पिन कहां लगानी होती है,कितनी प्लेट्स लगानी होती हैं,उनका झुकाव किस ओर होना चाहिये—दांई ओर अधिक या बांई ओर.
पल्लू की नीचाई-चौडाई कितनी हो,कांधे पर कहां सेट होना है---समस्या गम्भीर है.
साडी को अकेले सेट करना लगभग असम्भव है.अब कौन किसकी साडी सेट करे---समस्या फिर बडी हो जाती है क्योंकि सभी का मुद्दा एक है,चाहे वह २५ वर्ष की हो या ६५ वर्ष की हो,हर एक निर्भर हो जाती हैं ,इस अनुष्ठान को पूरा करते-करते.
बाल(केश) अब सभी के आज़ाद हैं---कोई बंधना-बधनी नहीं,वरन खूबसूरत लंबाई भी रो रही हर बार की कतर-ब्योंत से.क्या करें कार्बन कोपी का तकाजा है.फलां सीरियल---ठिकां सीरियल---फलां के बालों की लम्बाई इतनी है-उतनी है—क्या करें कार्बन कोपी का सवाल है---मजबूरी है.
अब आएं—विवाह-स्थल का नजारा—देखें और दिखाएं----
रोशनियों की चायनीज लटकन चारों तरफ बेतरतीब लटकी पडी थीं. हरे-लाल कालीनों पर ऊंची एडियां टेढी-मेढी होती रहीं.
शोर---बाहर चार-पांच शहनाईं वाले नगाडों की चोट पर,चीत्कार कर रहे हैं.अंदर घुसते ही डी जे पर---फेविकोल—कुइकफिक्स---पर हर उम्र टेढी-मेढी हो रही थी,कुछ नशे में,कुछ भोंडेपन में,अंदर की बात एक ही है.
सवाल कार्बनकापी का तकाजा है.
भीड का अधिक हिस्सा २०-२५ स्टालों पर मधुमक्खियाओं के झुंडों की तरह स्टालों के आस-पास मंडरा रहे हैं----मारा-मारी---पता नहीं—कितने भूखे हैं या दो-चार दिन से नमक का पानी पी रहे थे---खाने से अधिक खाना डस्टबिन में फेंखा जा रहा है---कार्बनकापी का सवाल है.
सब अपनी-अपनी तर्ज पर सब चल रहे हैं.
अब आती है बारात----
इतने शोर में बेचारे दुल्हे राजा बेसुरे बेंडबाजों के सथा अंदर आ जाते हैं और लोगों को पता भी नहीं चलता---क्योंकि सब अपने-अपनो शिड्यूल में चल रहे हैं.
जैसे-तैसे दो-चार संगी-साथियों के साथ,हिलती-डुलती स्टेज पर,सुनहरे सिंघासन पर विराजमान हो जाते है,कोई नहीं देखता,कोई फिक्रदान नहीं है---फोटोकोपी चालू है----.
शोर बरकरार है,आपा-धापी चल रही है—दोने चट रहे है ,फिंक रहे हैं---अब किधर जांय,क्या खाएं,साडियां जो सलीके से पहनी थीं बे-सलीके हो रहीं हैं----फोटोकोपी चालू आहे----
लीजिये दुल्हन का आगाज भी हो गया,वही तरीका,वही सलीका,नया सोचने को कोई तैयार ही नहीं,बडा आसान है पुरानी धुनों पर नये गीत लिख लेना.
चार-पांच सो काल्ड भाई-बहन एसकोर्ट कर रहे हैं,छः लोगों के छः हाथ थामे हुए है फूलों की चादर दुल्हन के ऊपर----मांफ करें चादर चढाई जा रही है जैसे मजार पर----बहारो फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है---
और दुल्हन भी स्टेज पर चढ गईं जैसे-तैसे,क्योंकि स्टेज हिल ही रही थी.
अपने लहरदार लहंगे को ठीक से सेट कर के दुल्हे की दांई या बांई ओर बैठ गईं.अन्य मशगूल हैं अपनी-अपनी फोटोकोपी निकलवाने में----और इधर जयमाला भी पूरी हुई और शादी की लगभग रसम पूरी हो चुकी---फेरे तो फेरे हैं जीवन भर के.
डी जे कुछ मद्धम पड चुका है क्योंकि जो थिरक रहे थे अब वे भी थक चुके हैं और खाना भी तो है.यहां तक आते-आते आधे से अधिक जा चुके है मुंह पोंछते हुए और लिफाफा पकडाते हुए---आपका खाया,चुका भी चले.
शायद ही किसी में आतुरता हो वर-वधू की छटा को देखने की किसी को दरकार नहीं,सब कुछ नीरस सा,खानापूर्ती.
आइये आखरी दौर शुरू होता है---आइये फोटो खिचा लीजिये---आप कहां रह गये---आपने खिचा लिया---और अब तक दुल्ह्र राजा की कमर टेढी हो चुकी थी---दुल्हन का मेकअप पसीने-पसीने हो रहा है.
हम कब सोचेंगे----थोडा सलीकेवार होगें---थोडी खूबसूरती को बचाने के लिये कब खूबसूरत होंगे!
आइये अपने हस्ताक्षर ना भूलें---आपकी पहचान हैं.