एक ’एड’,ध्यान से नहीं देखा,किस प्रोडक्ट का ऎड---अमिताभ
बच्चन जी—एक पंक्ति कहते हैं-
हमारे अपने हमसे दूर, कहीं नहीं जाते हैं---वे यहीं कहीं
होते हैं,हमारी आंखों में,आंखों की बनावट के रूप में,हमारी चाल की लचक में.
कभी-कभी ’एड’ बडे ही अर्थपूर्ण होते हैं,कुछ शब्दों में
बहुत कुछ कह जाते हैं—जिन्हें छुआ जा सकता है---अनकही भाषा के माध्यम से.
मेरे,आदरणीय सह-ब्लोगर हैं---जो अपनी माताजी के आभाव को
शब्दों के माध्यम से व्यक्त करते रहे हैं---उनकी इस भाषा को समझने के लिये,पढने के
लिये,पढने वाले को,उन्हीं के स्तर की संवेदनशीलता के स्तर पर आना होगा अन्यथा जो
कहा—कुछ शब्द---कुछ पंक्तियां बन कर रह जाएंगी.
जीवन का चक्र है—जो आएं हैं,जाएंगे ही—हर-पल,हर-जगह यही
चक्र चल रहा है,और इस चक्र में घूमते-घूमते हम इतने अभ्यस्त हो जाते हैं,कि वहीं आ
जाते हैं, जहां से चले थे.
वैसे तो, इस सृष्टि का प्रत्येक पिंड अपनी धुरी पर घूम ही
रहा है---और जीवन का प्रत्येक आयाम भी इसी पिंड का एक हिस्सा है—’सूक्ष्म’ तो स्वाभाविक
है वह भी घूम रहा है.
अभी ’फेलीन’ नाम का एक तूफान भारत के पूर्वीय तट से
टकराया---दो-तीन दिन तक,हर चैनल पर उसकी तीव्रता-भयानकता की खबरें चलती रहीं,हर चैनल
एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा में लगा हुआ था.
एक चैनल पर(नाम याद नहीं है) नासा के एक सेटेलाइट के द्वारा
लिया गया पृथ्वी का चित्र प्रसारित किया गया—चित्र बहुत ही मनमोहक दिख रहा था,अपनी
धुरी पर निश्चल-अटल घूम रहा है— पृथ्वि का पिंड-कोई विचलन नहीं.
उसे फर्क नहीं पड रहा है, ’फेलिन’ तटों पर सिर फोड रहा
है,कहीं ’केटरीना’ तटों पर छाती पीट रही है---महासमुंदर उफन रहें हैं,वरुण देवता
विकराल हो रहे हैं.
या कि प्याज सो रुपए किलो बिक रही है,सोना तीस हजारी हो गया
है---
’कोख’ स्पंदित हो रहीं हैं या कि सिकंदर चार कांधों पर जा
रहा है---या कि धर्म बन रहे हैं या कि ध्वस्त हो रहे हैं----माता के जागरण
रातों-रात विशालाकाय स्पीकरों की कतारों से विस्फोटित हो रहें हैं.तीर्थ बन रहे
हैं,तीर्थ-पगडंडियां संकरी होती जा रही हैं,लाखों पद-चिन्हों से.
जो देवालय हमने बनाए---हमने ही गिरा दिये.भगवानों के अवतार
हमारी ही परिकल्पनाओं के अतिरिक्त और कुछ अधिक नहीं है.संस्कार-परम्पराएं रोज
बनती-बिगडती रहती हैं.
अब आइये---राजनेताओं की कलामुड्डुइयां भी देखें.इनके
अपने-अपने अखाडे हैं,हर पांच वर्ष बाद,पुनः अखाडे में कूद पडते हैं,और क्या देते
हैं क्या लेते हैं, वही बेहतर जानते हैं.
अब आइये देखें---इस पृथ्वी के किसी भी भाग पर कोई भी बा्ड
नजर नहीं आती है,यदि हम आंतरिक्ष से देखें.लेकिन हम बच्चों के खेल खेलते हैं.कागजी
नक्शों पर लकीरें खीचते-मिटाते रहते हैं.हर देश अपने को राष्ट्र बनाने में लगा हुआ
है.
यहां, हर कोई अपने –आप से डरा हुया है---और अपने से लड रहा
है---स्वंम से हार रहा है,स्वंम को हरा है.
जब हम बडी-बडी बातों में घिर जाएं तब दिमाग पर ज्यादा जोर
डालने की जरूरत नहीं.थोडा-थोडा दूर से,थोडा-थोडा ऊंचाई से---इस पिंड को देखने की
जरूरत है---कोशिश करें---अनंत की चादर पर,एक नीला बिंदु---टंका हुआ, नीला सा
हीरा---कितना खूबसूरत,अटल-अचल-शांत---महायात्रा पर----
अब आ जाएं थोडा सा नीचे---
जीवन-यात्रा का यह भी एक छोर है,खूबसूरती को दोंनो आयामों
से देखने की जरूरत है.हीरे को हम कभी दूर रख कर परखते हैं तो कभी नजरों के करीब
लाते हैं.कभी रोशनी में ले जाते हैं तो कभी अंधेरे में भी परखते हैं.
जीवन का परिदृश्य भी ठीक यही है.
जीवन को कभी दूर से देखना होता है,कभी पास से भी.
संवेदनाओं के शीशे में देखिये,इंद्रधनुष की सतरंगी छटा
देखने को मिलेगी.
कभी दूर से भी देखिये –मोह,भंग हो जाएगा,भ्रम के जाल कट
जांएगे.
जीवन की सार्थकता-निर्थकता स्पष्ट हो जाएगी,
और,जब हम कहेंगे कि ’वो’ हमारे बीच नहीं हैं---तो ’वो’
हमारे ही बीच नजर आने लगेगें---हमारी आंखों में,हमारी चाल की लचक में, हमारे
स्पर्शों में.
एक घटना का जिक्र करना चाहूंगी---अभी मेरे छोटे बेटे अपने
परिवार के साथ कुछ दिन मेरे साथा रहने के लिये आये थे.उनके दो बे्टे हैं .छोटे
बेटे को लेकर एक चर्चा चल निकली कि इनकी शक्ल किस पर गयी है.अक्सर ऐसी चर्चा
परिवार में चलती रहती हैं.
तभी मुझे ख्याल आया कि मेरा बहुत पुराना फोटोग्राफ़(जब में
करीब ८-१० वर्ष की रही हूंगी) उसमें मैं जैसी दिखती हूं,जयदेव(छोटे पोते का नाम)
करीब-करीब वैसे ही दिखते हैं.
देखिये---मेरे जाने के बाद भी मैं रहूंगी—मेरे पोते में.
यहां साइंस भी है,जेनेटिक साइंस और पराग्यान,जिसमें हमारा
प्रारब्ध-वर्तमान-भविष्य,सब समाहित हैं .
हमारे ,अपने, हमसे दूर नहीं जाते हैं---वे हमारे पास भी हैं
और हममें निहित भी हैं.
हां,कुछ शब्द,कुछ संवेदनाएं,कुछ बूंदें---अवश्य बचा कर
रखिये,उनको महसूस करने के लिये,,उनके लिये—
यही जीवन है—जीवन का अर्थ है—यही जीवन की मिठास है.
यहां कुछ-कुछ’उथल-पुथल’ है---वहां सब कुछ ’शांत’ है---दोनों
ही छोर जरूरी हैं, यात्रा को पूरा करने के लिये--- निरंतरता के लिये---जीवन-रूपी
यात्रा एक वर्तुल है—पृथ्वी-पिंड की तरह---कोई नहीं कह सकता शुरू कहां हैं---कहां
अंत.
पुनः,कुछ स्मृतियों में जीवन को जानने के लिये---एक और
प्रयास---करती रहूंगी.
मन के-मनके