Monday, 21 October 2013

पिंजरे की तीलियों से बाहर आती मैंना की कुहुक—सुधा अरोडा

द्वारा एक आलेख जो चर्चा मंच में,दिनांक २१.१०.१३ को प्रकाशित किया गया.
यह आलेख स्वर्गीया श्रीमति चंद्रकिरण सोनरक्सा की साहित्यिक यात्रा का एक संस्मरण है—
मन को छू गया,बहुत कुछ कह गया,झझकोर गया,नींद से जगा गया---
’वह पीडा और समाजिक अंर्तनाद ही मेरे लेखन का आधार रहा’
आत्मकथ्य से—
अपने घर का कूडा या महज अपने जीवन का कच्चा चिट्ठा मान कर---साहित्य कूडा फेंकने का मैदान नहीं है---यदि कूडा मैदानों में ना दिखाई दे तो शायद समाज के पुरुषवर्गीय ठेकेदारों को अपने घरों में फैली दुर्गंध भी महसूस ना हो—जो अक्सर उन्हीं के द्वारा फैलाई गयी होती है(क्षमा चाहती हूं,यदि किसी को कोई आपत्ति हो.यह मेरा विचार है,जो किसी व्यक्ति-विशेष पर लागू नहीं होता है,केवल,समाजिक मानसिकता के परिपेक्ष में कहा गया कथन है.पुनः क्षमाप्रार्थी हूं)
समाज का”स्त्री वर्ग’ सदियों से इस दुर्गंध को अपने में समेटे जीता रहा,और मर्यादाओं की दीवारों को अपने अहम के चौटिल कांधों का सहारा देता रहा.
हमारे समाज की आधारशिला स्त्री के सतीत्व पर रखी गयी---तभी तो सीतामैया को भी अग्निपरीक्षा से गुजरना पडा और निर्दोश सिद्ध होते हुए भी,आर्द्श पुरुषोत्तम भगवान के द्वारा निष्काशित हुईं.
साहित्य के बीज---समाज- रूपी,सडी-गली मिट्टी में ही पनपते हैं और जो नहीं पनप पाते,वे महज कागजी फूलों के पौधे ही बन कर रह जाते हैं,जिनसे आप अपने घरों की सजावटें मनपसंद फूलों से तो कर पाते हैं,परंतु वहां खुशबू हो ही नहीं सकती.
ऐसा साहित्य धरोहर हो सकता है,परंतु जीवन-रहित,वो जीवन जो ’सत्य’ के साथ खडा हो—उसका सामना कर सके---और समाज का एक वर्ग,अपने अहम की चोंटों से,दूसरे वर्ग के अहम को बे-वजह चौटिल ना करता जाय.उस वर्ग को स्वीकार भी करना चाहिये,तुम्हारे द्वारा गठित मर्यादाओं के शीश-महलों को,दूसरे वर्ग ने अपनी सहनशीलता,त्याग,करुणा व प्रेम से सभांले रखा,सदियों से सदियों तलक—खुद ’मौन’ हो विगत होती रहीं.
आस्तित्व को हिला गया—स्वर्गीया चंद्रकिरण सोनरक्सा जी का आत्मकथ्य.
हम सभी के अंर्तमन में एक आत्मकथ्य दबा पडा है,मर्यादाओं की निर्मम चट्टानों के नीचे.
एक साहस,आत्मदर्शन,आत्ममंथन की आवश्यकता है,कि अपने-अपने मौनों की चोंटों से उसे निकाल कर बाहर ला सकें और समाज को,समाज का असली चेहरा दिखा सकें.
कोशिश होगी---मैं भी अपने आत्मकथ्य की माटी पर,शब्दों के बीज बिखेर सकूं,संवेदनाओं से सींच सकूं---और कुछ फूल ’सत्य’ के खिला सकूं,जिनकी खुशबुओं से कुंठित मानसिकता को जगा सकूं.
पुनः




Tuesday, 8 October 2013

कुछ स्मृतियां---अनुभूतियों की छांव तले


 
पीपल के सूखे पत्ते पर,एक मासूमियत,अपने शैशव की करधनी में लटकीं,खिलखिलाहटें

आंगन में रुनझुन बिखेरतीं------आज भी करीब ४५ साल बाद,सुनहरे फोटोफ्रेम में---मेरी पहली धरोहर,मेरे आस्तित्व के निचोड की एक बूंद----हरदिन,हरपल,मेरी कोख में,एक स्पंदन सी,जीती है.

वह स्पंदन तुम्हारे आस्तित्व से क्योंकर छिटक गया???

या तुम सत्य की छाती पर,अपने भविष्य के रथ को रोंदते हुए निकलते रहे-----

कह नहीं सकती----क्या तुम्हारी मजबूरियां थीं?

क्यों तुम संवदनहीनता की हर सीमाओं को रोंदते रहे---निरुत्तर हूं----भ्रमित हूं----आहत हूं—और अनेक अनुत्तरित प्रश्नों के झंझावतों में घिर आई हूं.

खलील ज़िब्राल(लेबनीज़ दार्शनिक-कवि)

द्वारा रचित कुछ बेहद खूबसूरत पंक्तियां पढने को मिलीं----

And a woman who held a babe against her bosom said,Speak to us of children

And he said—

Your children are not your children.

They come through you but not from you.

And though they are with you yet they belong not to you.

They are the sons and daughters of life’s longing for itself.

कई बार पढा----पहली बार लगा कितने सुंदर भावों को,मोतियों सा चुन---एक माला सी पिरोई गई हो---

दूसरी बार पढा---एक मोती,एक प्रश्न बन छिटक कर गिर गया----your children are not your children----तो मेरे ही आस्तित्व से पुलकित वह स्पंदन कौन था---जिसे मेरी रक्त शिराओं ने हर पल सींचा----मिट्टी में गिरा एक बीज जब पौधा बन आकाश की ओर बढने लगता है,उसमें रंगों से भरी,महक बिखरने लगती हैं,फूलों से डालियां झुकती हैं तो,उस मिट्टी का ना होना कैसे नकारा जा सकता है---बीज की सम्भावनाएं,मिट्टी के हर कण-कण में निहित हैं.

सत्य है,वृक्ष की अपनी निजी संभावनाएं होती ही हैं,फूलों की अपनी अलग पहचान,परंतु बगैर मिट्टी के ये पहचान काव्य की कुछ पंक्तियां ही रह जाती हैं---दर्शनशास्त्र की भूलभुलैया---जहां सत्य को गाया तो जा सकता है,उसे विभिन्न कोणों से देखा जा सकता है---परंतु सत्य की लकीरों को मिटाया नहीं जा सकता है ना ही छोटा-बडा किया जा सकता है.

मैं किसी भी दार्शनिक-कवि की काव्यांजली को पढना अवश्य चाहूंगी---गुनगुना भी,किंतु कुछ गीत स्वप्न सरीखे ही होते हैं---मैं चांद को आंचल में भ्रर लूं---मैं खुशबुओं को मुट्ठी में भर लूं---मैं सूरज को आंगन में आंमंत्रित कर लूं---बहुत-बहुत सुंदर गीत लिखे जाते रहें हैं,गाते-गाते,सुनते-सुनते,निःसंदेह एक और ही दुनिया में प्रवेश हो जाता है---फिर जब नींद टूटती है,तो वही दीवारों के घेरे हैं,वहीं सकरी होती उम्मीदें हैं,यह वह सत्य है जो खुली आंखों से दिखता है,हाथों से छू सकते हैं ,पैरों को लहूलुहान करते है,ये रास्ते सत्य के.

वो सुनहरा फोटोफ्रेम,करीब ४५ वर्ष बाद भी,यूं का त्यों सुरक्षित है,उसका कांच भी उतना ही पुराना है,एक बार भी नहीं चटका है.

कुछ संवेदनाएं बेशकीमती हैं,संवेदनाएं ना हों तो आप के स्पर्श की गर्माहट ना होगी,आंखों में तैरती मुस्कुराहट ना होगी,इशारों की परिभाषाएं पथरीली हो जाएंगी.

सुनो---एक छोटे सी कहानी कहने जा रही हूं---१८-१९ साल की एक लडकी,अपने बिखरे अतीत की परछाइयों को लांघती,सुनहरी धूप से भरे आंगन में कदम रखती है,सकुचाई सी,सहमी सी,परंतु विश्वास से भरी कि इस आंगन को बुहारूंगी---आंगन के कोने में तुलसी का बिरवा सींचूंगी,संध्या-दीप से घर-आंगन को जग-मग करूंगी.आंगन से लगा चौका होगा,जहां भोरसुबह  से ,पतीलियां गर्म होती रहेंगी,थालियां लगती रहेंगी---दालें उफनती रहेंगी,साग सुधियाते रहेंगे.

रात थक कर चूर जब बिस्तर पर पैर रखूंगी तो एक स्पर्श,मेरे कांधे पर मुझे तृप्त कर जाएगा---

एक छोटा सा सपना---मेरे आस्तित्व का स्वाधिकार.

और नहीं जानती थी,अ ब स,इस रचना का,एक अल्हडपन बस एक सपना एक घर बसाने का.इससे अधिक सपनों के बीज नहीं थे मेरे पास,बोने के लिये.

सुबह-सुबह---कोख में कुछ स्पंदित हुआ,कुछ घबडाहट सी हुई,कोख पर अपनी हथेलियों को धीरे रखा,आंखें कभी बंद होने लगी,कभी खुलने लगीं,कुछ तो है???

ये कमरे में आए---कुछ कहने के लिये---मैं पुलकित हो गई---सुनो,जरा अपना हाथ देना—क्यों क्या बात है? अरे! जरा अपना हाथ यहां तो रखो---ये उलझन से भरे,अनमने मन से अपना हाथ हठा लिया---मैं अपनी दौनों हथेलियो की गर्माहट को तुम तक पहुंचाती रही.

यह था मेरे-तुम्हारे बीच पहला संवाद.पता नहीं मैंने जो कहा वह तुमने सुना या नहीं.परंतु मैं संभावनाओं के बीज को सींचती रही,बस एक चाह के साथ कि जो भी आस्तित्व मेरे गर्भ में पल रहा है वह पूर्ण हो.

हर दिन मैं मां बनती रही,कोख विकसित होती रही,तुम्हारे आने से पहले,तुम्हारा भोजन मेरी रक्तशिराओं में बह कर मेरे आंचल को भरता रहा.

और एक दिन,तुम अपने आस्तित्व को लिये,मेरे आस्तित्व से छिटक,इस संसार के खुले प्रकाश में,बंद मुट्ठियां लिये,सहमी-सहमी खुली आंखों के साथ,मेरे दाएं कांधे से सटे,लेटे हुए थे.

मैं डरते-डरते तुम्हे छू रही थी,निहार रही थी—क्या चमत्कार—क्या लीला---कैसी कलाकारी है---

तुम्हारे पापा के द्वारा खींचे गये,ब्लेक एम्ड व्हाइट फोटो जो मैंने स्केन करके लेपटोप पर डाल दिये हैं---करीब ५०० से अधिक ही होंगे.

वो केमरा भी तुम्हे याद होगा,रशियन केमरा,जिसे तुम अपने साथ ले गये हो,उम्मीद है तुमने सभांल कर रखा होगा.

४५ सालका अंतराल एक जीवन को जीने के लिये काफ़ी है.एक-एक दिन की हजार-हजार यादों को जी लेना----शब्दों से परे है,क्या याद रखें क्या भूल जांय.

यादों को समेटने के लिये,संवेदनाओं को जीना होता है,रोज उनकी जडों को सींचना होता है.

शायद---तुमने अपनी सम्वेदनाओं को सींचना छोड दिया है---उन्हें सींचना शुरू कर दो----उम्मीद है वे फिर से हरी हो जांयेगी---उम्मीद है जीवन के झंझावतॊ में,तुम्हें कुछ छांव दे पाएं—सुकून अवश्य देंगी.

मरुस्थल में भी,कुछ ताड के पेड होते हैं जो छांव तो नहीं देते,कम-से-कम,कुछ मीठे फल तो अवश्य देते हैं.

पुनः---

Your children are not your children------

And though they are with you,but not from you----???