Sunday, 14 April 2013

आदरणीय मेरे सह-ब्लोगर



आज का मीडिया जगत दिन पर दिन नये आयाम खोल रहा है,जैसे---खुल जा सिमसिम
इस विस्मृतिक जगत में मैंने अनायास ही कदम रख दिया, सो नादानियां तो होनी ही थीं.
परंतु,समय-समय पर आप सभी का मार्गदर्शन मिलता रहा,आभारी हूं,भविष्य में ऐसे
ही मार्गदर्शन की आकांक्षा लिये हुए.
अभी तक मैंने अपनी पोस्ट के साथ जो भी चित्र संगल्न किये हैं, वे सभी गूगल के साभार
से लिये गये हैं.
इस स्वीकार्योक्ति के विलंब के लिये क्षमा चाहती हूं,कारण कुछ तकनीकी अनिभिग्यता ही है.

मन के-मनके (उर्मिला सिंह)
                                                                                                                                                   
                                                                                                                                                                   


Saturday, 13 April 2013

मेरी डायरी का---एक पन्ना


         
                    मेरी डायरी का---एक पन्ना
आज का दिन---कुछ अच्छा नहीं गया
यह,एक पन्ना है--- मेरा डायरी का
                 जहां,दो शब्द में---कह दी होती,दो बात पूरी
                 वहां---गलियों में---घूम-घूम,पोथी क्यों वांची
जहां---रिश्तों की,तह बना-बना कर
चीथडे कर दिये---रिश्तों के----
                 वहां---रिश्तों की,एक ही तह काफ़ी थी
                 तकिये के नीचे रख----रिश्तों को,सींचने के लिये
जहां---अपने ही काफ़ी थे,हम-साया,बनने के लिये
वहां---मुंडेरों पर,बैठे,कौवों को,टुकडा क्यों डाला
                  जहां---एक रोटी ही काफ़ी थी,चार पेट, भरने के लिये
                  वहां--- सोने के सिक्के---भीख में,क्यों मांगे
बात---समझने की है,मन की, मन से
शब्दों की बिसात--- बिछानी, क्या जरूरी है
                   एक फूल ही--- काफ़ी है,पूजा की थाली में
                   मंदिरों की ड्योढी पर,माथा लगाना,क्या जरूरी है
आंख झुका---सिर नवाना, काफ़ी है
दिले-यार के----दीदार के लिये---
                    आज का दिन---कुछ अच्छा नहीं गया
                    यह एक---पन्ना है,मेरी डायरी का


Tuesday, 9 April 2013

आएं---जीवन को ढूंढने चलें---








आज तक लाइव—हिंदी न्यूज चेनल पर,अपरांहान,९.४.२०१३ को प्रसारित एक
क्राइम-रिपोर्ट,जिसका प्रसारण, नाट्यरूपांतरन के रूप में किया जा रहा था,
जो एक सत्य घटना पर आधारित था----घटना का संक्षिप्त विवरण----उत्तर
प्रदेश के गोंडा जिले के एक गांव में हुई घटना,जो १२.३.१९८२ को घटित हुई.
उस गांव के एक पुलिस अफ़सर की,उनके ही सहयोगी पुलिस अफ़सर के द्वारा गोली मार कर हत्या कर दी गई,साथ ही उनके परिवार के १२ सदस्यों को भी
फ़र्ज़ी एनकाउंटर का जामा पहना कर,गोलियों से भून दिया गया.
(हो सकता है—दिये गये विवरण में कुछ विवरण तथ्यों के मुताबिक न हों.
कृपया क्षमा करें,क्योंकि,इस पोस्ट को लिखने का मेरा उद्वेश्य,किसी तथ्य का
उजागर करना नहीं है,वरन,इस घटना में निहित मानवीय पक्ष को देखना है.)
यह संक्षिप्त विवरण है,उस अमानवीय चरित्र का जो छल-कपट,द्वेष-विद्वेषव
आदि नकारात्मक मानवीय चरित्र के वो काले पक्ष हैं, जिन्हें कोई भी पूर्णिमा
प्रकाशित नहीं कर सकती है.
ऐसी घटनाएं,हम नित्य, अपने आस-पास होते देखते व सुनते रहते हैं,और हममें से कुछ ऐसे भी हैं जो स्वम खुद ऐसी नकारत्मकता का शिकार भी होते होगें.
इन नकारत्मकता की फसल इतनी कटीली होती है,कि कोई और विषाक्त कांटा,उतनी पीडा नहीं देता है,जितनी पीडा इन कांटों से मिलती है.
जिन पुलिस अफ़सर का कत्ल हुआ—उस समय उनकी निःसहाय विधवा अपनी दो मासूम बच्चियों के साथ,उस वैधव्य की पथरीली जमीन को,अपने मातॄत्व के दूध से सींच कर, उन बच्चियों के शैशव को कैसे सभांला होगा---उसको कहने के लिये शब्द पर्याप्त नहीं हैं,बस मानवीय आंसू,जो बिना छल-दिखावे के,अपने-आप गिर जांय—ह्रुदय से लेकर आत्मा तक निचुड जाय---उन दो बूंदों में---शायद कह सकें
उन दो बच्चियों ने भी,उस नकारत्मकता को ढोते हुए---जिसमें उनका शैशव, बचपन,यौवन के मधुर स्वप्न स्वाहा हो गये होंगे—उस राख को मुट्ठी में बांधे हुए,प्रारब्ध को स्वीकार करते हुए---उन कांटों पर चलते हुए—हर-पल,हर-क्षण
उस दर्द को जीती रहीं---और माता-पिता के दाहित शरीरों से उठी राख—में उन स्वप्नों को सिंचित करती रहीं होंगी—सकारात्मकता के जल से---कि वो निर्जीव राख भी कह उठी होगी----आओ,कुछ बीज अपने भविष्य के मुझ में रोप दो----निःसंदेह---फूलों को शाखों पर आना ही होगा---जो पीडा,जो अमानवीयता तुमने पी है---वो इन पुष्पों की महक व मधु से सिक्त हो जाएंगी.
मैं---नमन करती हूं---उस मानवीयता पर---जिसने इन दो बच्चियों(जो बहनें हैं)
ने अपने संघर्षों,दृढ निश्चय व जीवन के प्रति सकारत्मक दृष्टिकोंण से,अपने जीवन के हर-पल.हर-क्षण को सिंचित किया----
साथ ही,इस देश की लचर न्याय-प्रक्रिया को धता कर,अपने अधिकारित न्यायिक अधिकार को बलि होने से बचा लिया.
अंततः,मेरी शुभकामनाएं हैं उन बे-मिसाल बच्च्यों के लिये,पीडित परिवार के लिये---और,आंकाक्षा है---कि अन्याय के प्रति झुकना न हो---स्वम से इतना लेने की क्षमता, ईश्वर हम सब को दे----कि,जीवन में नकारत्मकता को भस्म कर सकें----उस राख में,भविष्य के लिये पुष्प महका सकें.
आंए----जीवन को ढूंढने चले-----
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Wednesday, 3 April 2013

कहां गये वो बाल---


 
    अस्सी के दशक में,दूरदर्शन पर एक सीरियल प्रसारित हो था---हम लोग---
   उस समय के निम्न मध्यवर्गीय को प्रितिबिंबित करता था यह सीरियल.चूंकि,
   उस समय एकमात्र चैनल था—दूरदर्शन,और जनसाधरण के मनोरंजन के लिये
   एकमात्र विकल्प—इसलिये इने-गिने कार्यक्रमों को बहुत ही धार्मिक भावना से
   देखा-सुना जाता था,दिनचर्या इन निर्धारित कार्यक्रमों के अनुरूप चलती थी.
  कृषिदर्शन,चित्रहार,हम लोग,(उन्हीं दिनों ’तमस’,’चाण्यक’,जैसे कालजयी सीरियल
  भी प्रसारित हुए) आदि बहुचर्चित कार्यक्रम प्रसारित होते थे.सप्ताहांत,उस समय
  की बहुचर्चित फिल्म का प्रसारण सभी मध्यवर्गीय समाज को,एक सूत्र में बांधे
  रखता था.जिनके यहां टेलीवीजन सेट नहीं हुआ करते थे,वे पडोस में समाहित
  हो जाते थे,बगैर किसी ओढी गई ओपचारिकता के साथ.
  मैं, बात कर रही थी----’कहां गये वो बाल’---इस वाक्य की प्रतिद्ध्वनि,मुझे
  सुनाई दे रही----’हम लोग’----’कहां गये वो लोग’—अतः,मैं थोड सा भटक गई,
  चर्चा से.
  कल,एक महिला-प्रधान कार्यक्रम में भाग लेने का सुअवसर मिला---होली का
  अवसर था,सो कार्यक्रम का मुख्य एजेंडा होली-मिलन था.
  मंच पर,गणमान्य अथिति आसीन थे,जिनमें हमारे शहर की माननीय मेयर भी
  थीं,जिनकी अद्ध्यक्षता में यह कार्यक्रम आयोजित किया गया.
  जिस समय मैं पहुंची,कार्यक्रम चल रहा था,मंच पर आसीन सौंदर्य-एक्सपर्ट,सौंदर्य
  से संबन्धित प्रश्नों के उत्तर-समाधान दे रहीं थीं,और प्रश्नकर्ताओं की समस्याओं
 (निःसंदेह,सौंदर्य संबन्धित) को शांत करने का प्रयास कर रहीं थीं.
 जैसा कि, हम सभी जानते हैं,सौंदर्य से संबन्धित अधिकतर विग्यापन,बालों व स्किन
 से सम्बन्धित होते हैं---लगता है सारी सुंदरता,केवल इन दो आयामों पर आकर,ठहर
 गई है----शेम्पू,स्किन क्रीम, सन क्रीम,मास्चराइजर,कंडीशनर,हेअर कलर—डाई आदि,
 छा गयें हैं,वरन यूं कहिये हमें जकड लिया है इन म्रृगमरीचओं ने.
 सौंदर्य के बाजारों में.सेकडों कंपनियां,सिरफुट्टवल कर रहीं हैं,सिर उनके फूट रहें है,
 और,जेबें हमारी ढीली हो रहीं हैं,सिर के बाल दिनों दिन कम होते जा रहें हैं,बालों की
 स्वाभाविक चमक, हेअरडाई की भेंट चढ रही है.जिनके बाल लंबें हैं, वे भी उन्हें कतरवा
 रही हैं.
 बालों की स्वाभाविक लहरें,जिन्हें हम कभी घुंघराले बाल कहा करते थे---गरम चीमटों से
 नारियल की जटाओं सी,सीधी-सतर हो गए हैं---सीरियलों में,हर एक महिला कलाकार के
 बाल इसी स्टाइल में नजर आ रहें हैं—सब स्टीरिओटाइप हो गएं हैं.
 कहां गईं वो विविधताएं---जहां विविधताएं नहीं,वहां सौंदर्य नहीं,जैसे हर रोज खिचडी
 खा रहे हैं---हां,कभी-कभी खिचडी भी अच्छी लगती है’
 यह एकरसता नकली फूंलों सी लगती है,जहां सुगंध नहीं है,रंगों का टोटा है.
 अब,बालों की गुंथी चोटियां नजर नहीं आती हैं,जिन्हें गूंथने-खोलने में एक अलग ही
 आनंद था---जब लंबे बालों की गूंथें खुलती थीं तो,खुले बालों की चमकती लहरें हवा में
 लहराने लगती थीं.
 मुझे याद है ,बालों को हफ्ते-दस दिन में ही धोया जाता था,पूरे दिन का शगल था.
 मुलतानी मिट्टी,दही,बेसन आदि का प्रयोग होता था,जब धुले बाल सूखते थे,तो चेहरा
 निखरा-निखरा लगता था.
 इस संस्मरण से याद आया--- एक कालजई रचना के विषय में---शायद आप में से
 कई महानुभावों ने उस रचना को पढा भी हो---’उसने कहा था’. इस कहानी की नाइका
दस-बारह वर्ष की बालिका ,खुले बाल,बालों को धोने के लिये दही लेने जाती है जहां
उस हम-उम्र लडके से मुलाकात होती है----जिसने कहा था---तेरी कुडमई हो गई—और
जिन्होंने पढा है,,आगे कुछ कहने की जरूरत नहीं है.
सूखते ही बालों की मांगों मे उंगलियों से सरसों या नारियल का तैल,हलकी-हलकी मालिश
के साथ डाला जाता था.तैल में डली कपूर की गोलियां मन-मस्तिष्क को शीतलता प्रदान
करती जाती थीं.
परिवार की स्त्रियों को जोडने का,यह खास शगल था,जहां बातों-बतों में,बालों की गूंथें
भी खुलती थीं और मन की गुंत्थियां भी.
और फिर, बालों की लंबी-लंबी गूंथियां गुंथ जाती थीं,बच्चियों की गूंथों में लाल-हरे फूल
टंक जाते थे,सुहागिनों की चौडी-चौडी मांगों में,सुर्ख-सिंदूर,चौडे-ललाट पर गोल बडी सी
सिंदूरी बिंदी-----कहानी लंबी है,लंबे बालों की.
कितना स्वाभाविक सौंदर्य था----
दूरदराज गांवो व कस्बों में,क्रीम या सनस्क्रीन का इस्तेमाल नहीं होता था---नहाए-धोए
सरसों का या नारियला का तैल हाथ-पैरों में लगा लिया,वही तैलीय हथेलियों को,चेहरों
पर रगड लिया या मक्खन निकालते समय,मक्खन से सिक्त हथेलियों को हाथों-पैरों
और चेहरों पर लगा लिया,मालिश कर ली.स्किन समस्याएं,सन-बर्न जैसी समस्याएं देखी
ही नहीं जाती थीं----हां उम्र के तकाजे उस समय भी थे जो आज भी है.फर्क इतना था
पहले वे स्वीकारे जाते थे,आज उन से हठ किये जाते हैं.
मेरे विचार से---हर बाल की,हर खाल की,अपनी-अपनी कहानी है---जो स्वाभाविक है,
निज है,वही खूबसूरती है---जो खूबसूरती है---वही प्रकृतिक है,और जो प्राकृतिक है-----
वही सुंदर है.