Wednesday, 23 January 2013
Tuesday, 15 January 2013
द्वंद-निर्द्वंद
द्वंद-निर्द्वंद-मन-क्लांत
निर्जन सा, आत्म-गहन
जीवन-सागर की लहरें,उदंड
पटक
रहीं,तट पर,मस्तक--
चाल-समय की—निर्मम
घायल सा—आस्तित्व-समग्र
घूम रहा है,समय-चक्र
जीवन-रथ की दिशा,बदल
सागर है,दिशा-विहीन
ओझल सा,भविष्य-क्षितिज
नीरव-रातें,दिवस-अभिशप्त
शशि-दग्ध,सूरज
कर रहा,भस्म
दृष्टि हो रही,अपरिपक्व
दृढ
निश्चय हो गए,शिथिल
खुली आंखों से हैं, दूर--बहुत
जीवन के सभी,भविष्य-पथ
मोती,माला
से,हो रहे--विलग
ढीले
पड गए,बंधन-अपनत्व
दिशाएं,गूंज रहीं,चीखों से
हर
प्रश्न,रह गए,पुनः-प्रश्न
समय ने, पलटी करवट
हवाएं,हो गईं,दावानल
अपनों के
स्पर्श---
अनमने----अव्यक्त
स्वप्न-सुप्त,संकेत-हीन
भविष्य-आशाएं,आस-हीन
प्रतीक्षा,अंत-हीन---
आगुंतक,राह-भटक---
रातें,स्वप्न-विहीन---
दिवस,श्मशानी-मौन
जीवन-सागर,गरज-गरज
लहरें तूफानी,दानावल---
करना होगा,सागर-मंथन
विष-अभिषप्त,पृथक-पृथक
बूंद-बूंद,जीवन-अमृत
पीना होगा,अंजुलि-भर
आंखें मूंद,कर-बद्ध---
नत-मस्तक,पूर्ण-समर्पण
चौखट पर,प्रारब्ध तेरे
जो मिल जाय,स्वीकार-भाव
जो दे
पाओ---तुम---
शिथिल
मुठ्ठियां,हो जाएं,बंद
भूले-भटके से पुण्य,मेरे
बन,’शिव’---हो जाओ-- प्रगट
दो बूंद,कृपा-अलख--तेरी
बन अमृत—पी—हो
जाऊं,मुक्त
चटके
हैं,कितनी बार---
सर
पटकती,लहरों से
जीवन-सागर के----
शांत-तट----
तब,तुमने ही आकर---
शांत किया,इन लहरों को
अपनी
आभा से,स्पष्ट किया
ओझल-ओझल
सा,भविष्य-क्षितिज----
Sunday, 6 January 2013
कामनी का हादसा-----
कामिनी का
हादसा हमारे समाज के दोगलेपल की तस्वीर है----पोस्टेड बाय डा. अनवर जमाल----
’किसी लडकी को आप---समाज का चलन उल्टा है सच
से इसे बैर---’
’एक तन्ज एक हकीकत----कई सवालों को मुंह बांय
खडा कर गया---अब जैसा कि----आप सच कहेंगे तो जमाना-----जडों को पानी देकर यह शांखे
कतरता है-----’ इन प्रश्नों का उत्तर भी इस पंक्ति में निहित है.
समय आ गया है,हर घर के हर सदस्य को,रिश्तों
के मतलब खंगालने होगें,ईमानदारी से—
सच को हम ,दरवाजों पर रखे पायदानों के नीचे
सरका कर, घर में दाखिल होते हैं---मंहगे कालीनों पर पैर फटकार कर,शालीनता का
मुखोटा ओढ लेते हैं---मर्यादा के ढोंग की डुगडुगी घर की चारदीवारों में बैठ कर
बजाते हैं,जिसकी डुग-डुग हम नहीं सुनते हैं—औरों को सुनाने के लिये डूग-डुग करते
हैं.इस जादू के खेल में ,हम सभी कहीं ना कहीं शामिल हैं,जिम्मेदार हैं.
समय बदलता है,और ढांचे में परिवर्तन लाज़मी है---परंतु,ढांचे
के अंदर जो कांच की मर्यादा का गुलदान रखा है—कृपया,हम सब उसे हिफ़ाजत दें.चटकी हुई
चीज जुडती नहीं है और यदि जुडती है तो,निशान छोड जाती है और हर समय टूटने
का,बिखरने की संभावना बनी रहती है.
अब हम,दोगले हैं---स्वीकारें ---एक ओर हमारे
यंगस्टर(शायद पूरे समाज को) एक्सपोजर मिल रहा है---दुनिया सिमट रही है और
संस्कृतिया एक-दूसरे में घुल-मिल रहीं हैं---एक दशक,दो दशक पूर्व की संस्कृति अपने
आप को ढूंढ रही है और हम दो कदम पीछे चलकर एक कदम आगे बढ पा रहे हैं.
कुछ शाश्वत सत्य हैं,मानवीय रचना के, वरन
सम्पूर्ण प्रकृति के.उसके विषय में कोई किसी को नहीं समझा रहा ना ही स्वीकार रहा
है.
क्या विडंबना है?
वह सत्य है---विषम के प्रति आकर्षण.इसी सत्य
के ऊपर पूरा आस्तित्व टिका है---और हम उसके प्रति आंखे बंद किये बैठे हैं.
उस सत्य को ढकें भी नहीं ना ही उघाडें,वरन
उसे गरिमा से स्वीकारें.मर्यादा की कसोटी पर देखें,समझें और स्वीकारें.
अब जो गेप है---वह है,शाश्वत-सत्य व उसके
प्रति हमारे भटके,दोगले नज़रिये के कारण.
ओशो---को
पढ रही थी---उन्होंने कहीं अपने संस्मरण में कहा है—’मैं बहुत दिनों तक आदवासियों
के बीच जा कर रहा हूं----वहां सेक्स को लेकर कोई भ्रांति नहीं है वरन स्त्रियां व
पुरुष, इतना ही नहीं युवा बच्चे-बच्चियां साथ-साथ रहते हैं,काम करते हैं.यहां तक
कि स्त्रियां व युवा बच्चियां शरीर पर केवल एक वस्त्रे(साडी) पहनती हैं,शरीर के
ऊपर के भाग पर कोई वस्त्र नहीं पहना जाता है.वहां बलत्कार जैसी कोई घटना नहीं होती
हैं.यहां तक कि मेरे द्वारा बताए जाने पर कि ऐसे कई समाज हैं, जहां समलिंगी संबन्ध
भी होते हैं—इस पर वे विश्वास नहीं कर सके.’
ओशो—’वहां की
समाजिक व्यवस्था में ’ घोटुल’
नामक एक व्यवस्था है जहां,दिन छुपने के बाद युवा बच्चे-बच्चियां साथ-साथ रहते
हैं,नाचते-गाते हैं और शारीरिक सम्बंधों में भी बंधते हैं,लेकिन समाजिक स्वीकृति व
मर्यादा के तहत—और कभी कोई ऐसी घटना नहीं घटती है’ जहां शर्म से सिर झुकाना
पडे,दुनिया भोचचक्क हो जाए.कानून बनें,कानूनों को तोडा-म्रोडा जाय,पुलिस पर
उंगलियां उठें,जंतर-मंतर,इंडिया गेट रोंदे जांय-----
आएं,हम और आप अपने-आप को टटोलें---क्या हम
अपने युवाओं को इस नए संसार के अनुरूप ढाल पा रहें हैं?
वे बाहर जा रहे हैं ,अपनी जिंदगी का बहुत बडा
हिस्सा,पूर्वाग्रहों के तानों से बुने कुकून से निकल,गुजार रहें हैं जहां उन्हें
ऐसी दुनिया से रूबरू होना पड रहा है जो नकारत्मकता के कोढ से पीडित है----नशे के
रूप में,अस्वाभाविक यौनाचार के रूप में (ओशो ने
काम को स्वीकारा है—प्रकृति के फूल के रूप में—जिसे आस्तित्व के आगे श्रद्धा से
अर्पित करना चाहिये.).
यहां हर रिश्ता बिक रहा है—मैटेरिअलिज्म के
खोटे सिक्के,हर रिश्ते को खरीद रहें हैं.
कृपया, थोडा पडोस के घर की दीवाल से कान लगा
कर सुनने की कोशिश करें---क्भी-कभी जरूरी है,हालांकि,नितांत अनैतिक भी है,परंतु
गंदगी को उघाडने के लिये कीचड पर पैर रखना भी होता है.
ये विचार मेरे हैं,कृपया,इन्हें किसी को
उघाडने की प्रक्रिया के रूप में ना देखा जाय.